सोशलिस्ट पार्टी ही हो सकती है शरद खेमे की सही मंज़िल
सोशलिस्ट पार्टी ही हो सकती है शरद खेमे की सही मंज़िल
जनता दल (यू) का नीतीश खेमे और शरद खेमे में विभाजन अपने को समाजवादी कहने वाले नेता और राजनीति दलों में टूट के सिलसिले की एक और बानगी है। 1977 में सोशलिस्ट पार्टी के जनता पार्टी में विलय के बाद से ही समाजवादी आंदोलन और विचारधारा की दावेदार कई पार्टियां बनीं। जनता पार्टी की टूट के बाद पहले समाजवादी चरण सिंह के लोकदल में गए। फिर जनता दल, समाजवादी पार्टी, आरजेडी, जेडीयू, जेडीएस, बीजेडी जैसी कई क्षेत्रीय पार्टियां बनीं। इन पार्टियों को कई राज्यों में और गठबंधन सरकारों में केंद्र में सत्ता में रहने का भी अवसर मिला। लेकिन ये सभी पार्टियां व्यक्तिवाद और परिवारवाद के आगोश में इतने गहरे तक पैठ गयीं कि समाजवाद और सामाजिक न्याय से उनका रिश्ता केवल नाम का रह गया। नतीजा यह है कि 'गांधी, लोहिया, जयप्रकाश' इन पार्टियों के नारों और पोस्टरों में तो बने रहे लेकिन उनके उच्च राजनीतिक आदर्शों और विचारधारा से इन 'समाजवादी' पार्टियों का कोई लेना-देना कभी नहीं रहा। इन क्षेत्रीय दलों ने आंदोलन के राष्ट्रीय स्वरूप को तो क्षतिग्रस्त किया ही, कभी कांग्रेस और कभी बीजेपी के साथ समझौते कर समाजवादी विचारधारा को भी नुकसान पहुंचाया है। बल्कि यह कहना सही होगा कि समाजवाद शब्द को ही बदनाम कर दिया।
11 बार सांसद रह चुके शरद यादव उम्र के उतार पर हैं। वे राजनीति के जिस दोराहे पर खड़े हैं, वहां उन्हें आगे की रणनीति का चुनाव करना है। शायद वे और उनके साथी इसमें लगे भी हैं। सुना और देखा जाता है उम्र का उतार सत्ता की राजनीति का चस्का बढ़ा देता है! शरद यादव को लग सकता है आगे सांसद कैसे बना रहा जाए। उनके कंधों को अपने समर्थकों को भी कुछ सियासी फायदे पहुँचाने का भार महसूस होता होगा। शरद यादव सत्ता की राजनीति में रहने वाले समाजवादी नेताओं की पीढ़ी में बचे सबसे पुराने नेताओं में से एक हैं। वे चाहें तो अब निजी महत्वाकांक्षा छोड़ कर समाजवादी राजनीति के भरोसे को दोबारा कायम करने की ऐतिहासिक भूमिका निभा सकते हैं। वह एक कोशिश ही होगी, लेकिन देश के हालातों के मद्देनज़र एक ज़रूरी कोशिश। देखते हैं शरद यादव वह बीड़ा उठाते हैं या नहीं।
शरद यादव जहां खड़े हैं वहां से दो रास्ते खुलते हैं - वे या तो कोई नई पार्टी बना सकते हैं, या फिर उन पार्टियों के साथ मिलकर आंदोलन की अगुवाई कर सकते हैं जिन्होंने तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी समाजवादी आंदोलन और विचारधारा के संघर्ष की मशाल जलाकर रखी है। अगर शरद यादव राष्ट्रीय स्तर पर कोई मजबूत विकल्प बनाने की वास्तविक तैयारी कर रहे हैं तो उनकी राजनीति की सबसे सही मंजिल सोशलिस्ट पार्टी है।
1992 में जब देश की अर्थव्यवस्था और राजनीति पर नवउदारवाद का हमला हुआ तो राष्ट्रीय स्तर पर एक वैचारिक राजनीतिक पार्टी की जरूरत महसूस हुई। 1995 में किशन पटनायक, भाई वैद्य, पन्नालाल सुराणा, विनोद्प्रसाद सिंह और कई युवा समाजवादियों ने समाजवादी जन परिषद् का गठन कर नवउदारवादी ताक़तों की मुखालफत की और राजनीतिक विकल्प का एक नया माहौल देश में तैयार किया। 2011 में आंध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबादके सुरेंद्र मोहन नगर में सोशलिस्ट पार्टी की सोशलिस्ट पार्टी(इंडिया) के नाम से पुनर्स्थापना की गयी । इसमें भाई वैद्य, पन्नालाल सुराणा, राजेंद्र सच्चर, प्रोफेसर केशवराव जाधव, डॉ. जीजी पारिख, बलवंत सिंह खेडा, डॉ. प्रेम सिंह, अखाई अचुमी, ओंकार सिंह सहित 21 राज्यों के प्रतिनिधियों ने भूमिका निभाई। 2011 से लेकर अब तक सोशलिस्ट पार्टी ने नवउदारवाद और सांप्रदायिक शक्तियों के गठजोड़ के खिलाफ लोहा लेते हुए अपनी अलग पहचान बनाई है। सोशलिस्ट पार्टी(इंडिया) का संविधान, पार्टी का नीति-पत्र, अब तक जारी किए गए पार्टी के सारे प्रस्ताव, देश के हर मुद्दे पर पार्टी की तरफ से जारी होने वाले प्रेस नोट और पार्टी के कार्यक्रम इसकी वैचारिक दृढ़ता और राजनीतिक आदर्श को समझने के लिए काफी हैं। सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के पास लगभग पूरे देश में इकाईयां है और सोशलिस्ट युवजन सभा के बैनर तले संघर्षशील छात्रों और युवाओं का समर्थन है।
शरद यादव चाहें तो अपने समर्थकों के साथ सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो सकते हैं और उसका नेतृत्व कर सकते हैं। चुनाव आयोग और दिल्ली हाईकोर्ट ने भले ही जदयू और चुनाव चिन्ह तीर नीतीश कुमार खेमे को सौंपे हैं। भले ही बिहार में एक भी विधायक इनके साथ ना आया हो, लेकिन अभी भी देश भर में जेडीयू के ज्यादातर नेताओं-कार्यकर्ताओं और पार्टी संगठन का भरोसा शरद यादव पर कायम है। शरद यादव साझी विरासत के जरिये देश भर में एक सशक्त विपक्ष बनाने की कोशिश में जुटे हैं। अगर देश में समाजवादी एका और वैचारिक संघर्षों को आगे बढ़ाने की कोई मुकम्मल लड़ाई शरद वाकई लड़ना चाहते हैं तो बग़ैर सोशलिस्ट पार्टी(इंडिया) के ये मुमकिन नहीं है।
लेखक जी न्यूज़ में पत्रकार हैं


