स्वतंत्रता दिवस : तय तो यह (नहीं) हुआ था
स्वतंत्रता दिवस : तय तो यह (नहीं) हुआ था

सबसे पहले बायां हाथ कटा
फिर दोनों पैर लहूलुहान होते हुए
टुकड़ों में कटते चले गए
खून दर्द के धक्के खा-खाकर
नसों से बाहर निकल आया था।
-शरद बिल्लौरे
तय तो यही हुआ था, स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले से अपने भाषण में प्रधानमंत्री (Prime Minister's speech from Red Fort on Independence Day) ने जिस तरह से पाक अधिकृत कश्मीर (Pakistan occupied Kashmir) के साथ बलूचिस्तान का नाम भी जोड़ा उससे लगा कि भारतीय विदेश नीति के सर्वश्रेष्ठ की विदाई हो गई है। अधिकतर भारतीय उनके इस जुमले के पक्ष में हैं और मान रहे हैं कि जैसे को तैसा, ईंट के बदले ईंट, आंख के बदले आंख जैसे तमाम मुहावरों को चरितार्थ करने का समय आ गया है। परंतु इस तरह की राजनीति का क्या पूरी दुनिया में कहीं भी सकारात्मक परिणाम सामने आया है? जर्मनी का दो फाड़ होकर एक होना और वियतमान का दो हिस्से में बंटने के बाद फिर एक हो जाना अलग तरह की सकारात्मक राजनीति का सूचक है।
भारत और पाकिस्तान दो देश बने तो सबको लगा था कि अब तो सब चैन की नींद सोएंगे और अपने-अपने हिस्सों की आबादी की बेहतरी के लिए काम करेंगे। मगर नतीजा? सन् 1965 और 1971 की लड़ाई। (सन् 1947-48 की कश्मीर घुसपैठ को व पाक अधिकृत कश्मीर के गठन के अतिरिक्त) सन् 1971 के युद्ध में पाकिस्तान के दो टुकड़े हो गए और बांग्लादेश सामने आया। तमाम भारतीयों को लगा था कि अब तो पाकिस्तान के होश ठिकाने आ ही जाएंगे। आज बांग्लादेश के गठन को करीब 45 साल हो गए हैं। इस बीच हम कारगिल युद्ध देख और जीत भी चुके हैं। लेकिन पाकिस्तान के होश ठिकाने तो क्या और भी तीखे होते चले गए हैं।
बलूचिस्तान विवाद पर भारत का रुख India's stand on Balochistan dispute
अब हम बलूचिस्तान को विवाद में ले आए हैं। अपनी सहज कल्पना में हम यह मान भी लें कि बलूचिस्तान पाकिस्तान से अलग होकर एक स्वतंत्र राष्ट्र बन गया है तो भी इस बात की क्या ग्यारंटी है कि शांति कायम हो ही जाएगी?
जैसे-जैसे पाकिस्तान विभाजित होता जा रहा है वैसे-वैसे उसकी आक्रामकता में भी वृद्धि होती जा रही है।
यहां हमें इस बात पर गौर करना आवश्यक है कारगिल युद्ध के बावजूद अटलबिहारी वाजपेयी ने स्वयं या उनकी सरकार ने इस तरह की कोई आक्रामक नीति नहीं अपनाई थी और उसके अत्यंत सकारात्मक प्रभाव भी सामने आए हैं। कश्मीर घाटी की वर्तमान स्थिति के लिए पाकिस्तान को ही दोषी ठहराए जाने से समाधान नहीं होगा बल्कि हमें आत्मनिरीक्षण भी करना होगा।
भारत के वर्तमान राजनीतिज्ञों में से अनेक जिनमें प्रधानमंत्री भी शामिल हैं, स्वयं को जेपी (जयप्रकाश नारायण) का शिष्य बताते नहीं अघाते। परंतु वे भूल जाते हैं कि जेपी, गांधी जी के बाद संभवत: सबसे विराट वैश्विक शांतिवादी राजनीतिज्ञ रहे हैं।
जेपी ने की थी भारत-पाकिस्तान की जनता के बीच संपर्क की वकालत
JP advocated People to People Contact between people of India and Pakistan
जेपी पहले भारतीय राजनीतिज्ञ थे जिन्होंने सन् 1962 में दोनों देशों (भारत-पाकिस्तान) की जनता के बीच संपर्क (पीपुल टू पीपुल कॉन्टेक्ट) की जबरदस्त वकालत की थी। जेपी के भगत आज उस प्रक्रिया का समूल नाश चाह रहे हैं। एक केन्द्रीय मंत्री कह रहा है कि पाकिस्तान नरक समान है। दूसरा सार्क के सम्मेलन में जाने में आनाकानी कर रहा है। इतना ही नहीं प्रधानमंत्री इस वर्ष वेनेजुएला में होने वाले गुटनिरपेक्ष देशों के सम्मेलन में जाने हेतु अनमने से हैं? इसकी वजह क्या वेनेजुएला और अमेरिका के बीच रिश्तों में आई खटास है जिसमें अमेरिका ने वेनेजुएला से स्वयं की सुरक्षा को खतरा बताया है?
गौरतलब है भारत इस आंदोलन का जनक है और अब तक के प्रत्येक सम्मेलन में प्रत्येक भारतीय प्रधानमंत्री अनिवार्य रूप से इसमें शामिल भी हुए हैं। अटलबिहारी वाजपेयी भी दो बार इस सम्मेलन में गए हैं और पाकिस्तान के खिलाफ विश्व जनमत बनाने में गुटनिरपेक्ष देशों का बड़ा योगदान रहा है।
हम भी विभाजन से कुछ भी सीखना नहीं चाहते We also do not want to learn anything by division
शरद आगे लिखते हैं,
‘तय तो यही हुआ था कि मैं/ कबूतर की तौल के बराबर/ अपने शरीर का मांस काटकर/ बाज को सौंप दूं/ और वह कबूतर को छोड़ दे/’
भारत और पाकिस्तान के राजनीतिज्ञों की अपरिपक्वता ही हमारे आपसी रिश्तों की कड़वाहट को द्विगुणित कर रही है। जिस तरह हम दिन प्रतिदिन उत्तेजक भाषा का प्रयोग कर रहे हैं वह हमारे भविष्य के लिए घातक है।
पश्चिमी विश्व ने दो विश्व युद्धों से सबक नहीं सीखा और हम भी विभाजन से कुछ भी सीखना नहीं चाहते। मंटो, खुशवंत सिंह, उषा बुटालिया, फैज अहमद फैज, इकबाल बानो, बड़े गुलाम अली खां, बिस्मिल्लाह खां, मेहंदी हसन और इन जैसे तमाम साझा संस्कृति के प्रतीक हमें अतिवादी न होने की समझाइश दे रहे हैं। तमाम कड़वाहटों के बावजूद इन जैसी महान शख्सियतों ने कभी अलगाव की वकालत नहीं की।
पूर्व उपराष्ट्रपति कृष्णकांत ने दक्षिण एशिया में हिंसा को लेकर एक अत्यंत महत्वपूर्ण टिप्पणी में कहा था,
‘यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस भूमि ने बुद्ध, महावीर और गांधी को जन्म दिया हो, वह आज हिंसाग्रस्त है। मैं आज के युवाओं को यह घिसी-पिटी सलाह नहीं दूंगा कि समस्याओं का सामना करो और उन्हें सुलझाओ। दक्षिण एशिया में पनपी हिंसा बीमार राजनीति का लक्षण है। आज यहां राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने के लिए बड़ी मात्रा में धन और बल शक्ति की आवश्यकता पड़ती है। जब तक दक्षिण एशिया की राजनीति में शुद्धता एवं शुचिता नहीं आती, तब तक हिंसा से निपटने की संभावनाएं बहुत अधिक नहीं हैं।’
आज हिंसा सिर्फ भारत और पाकिस्तान ही नहीं बल्कि दक्षिण एशिया के अन्य देशों नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका और मालद्वीप तक में बुरी तरह से पैठ बना चुकी है और इसकी वजह इन देशों में आंतरिक राजनीति का गिरता स्तर है। अगर राजनीति के आंतरिक स्वरूप में हिंसा व्याप्त है तो वह दूसरे देश के साथ कैसे शांतिपूर्ण सहअस्तित्व में विश्वास रख सकती है। सीधी सी बात है हमें आंतरिक हिंसा पर पहले काबू करना होगा तभी हम शांतिपूर्ण हो पाएंगे।
शरद ने आगे लिखा है,
‘सचमुच बड़ा असहनीय दर्द था शरीर का बड़ा हिस्सा तराजू पर था और कबूतर वाला पलड़ा फिर नीचे था/ हार कर मैं समूचा तराजू पर चढ़ गया/’
स्पष्ट है कि हिंसा का कोई आंशिक या स्थगित समाधान संभव नहीं है, उसे तो तुरंत एवं पूरी तरह से निष्क्रिय करना ही होगा। फिर हिंसा आंतरिक हो या बाह्य इससे फर्क नहीं पड़ता।
पूर्व प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल का कहना था कि दक्षिण एशिया (South Asia) में अनूठी परिस्थिति है। यहां दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की अपने पड़ोसियों के साथ अद्भुत साम्यताएं हैं यहां दो पंजाब हैं और दो बंगाल हैं। नेपाल की तराई के इलाके के हिस्से उत्तरप्रदेश और बिहार से जुड़े हैं। तमिलनाडु और श्रीलंका का पूर्वी हिस्सा एक ही भाषा बोलता है और समान संस्कृति का संवाहक है। परंतु भारत और उसके पड़ोसियों में अत्यंत विषमता भी है। जहां भारत सभ्यतामूलक दृष्टिकोण और मिली-जुली संस्कृति पर जोर देता है वहीं इसके पड़ोसियों ने अपनी पहचान स्थापित करने के लिए धर्म का प्रयोग किया या अपनाया है।
Our culture is shrinking rather than expanding
आज हमारी संस्कृति विस्तार पाने के बजाय सिकुड़ रही है और शांति व सहअस्तित्व का स्थान हिंसा और नफरत ले रही है। यह अत्यंत खतरनाक स्थिति है। भारत को अपनी संस्कृति और सभ्यता के अनुरूप ही आचरण करना होगा।
भारतीय उपमहाद्वीप में थोड़ी -बहुत जितनी भी स्थिरता और समृद्धि दिखती है उसका आधार भारतीय समाज का बड़प्पन है जो तमाम विरोधाभासों के बावजूद आज भी दिखाई दे रहा है।
भारत का अनावश्यक आक्रामक होना विश्वशांति के लिए बड़ा खतरा है। एक पुराने प्रतीक महाराज मकरध्वज के बलिदान की गाथा का सहारा लेते हुए शरद ने अपनी कविता के अंत में लिखा है,
‘आसमान से फूल नहीं बरसे/ कबूतर ने कोई दूसरा रूप नहीं लिया/ और मैंने देखा/ बाज की दाढ़ में / आदमी का खून लग चुका है।’
हमें आदमी का खून बहने से रोकना होगा तभी हम बाज रूपी हिंसा से स्वयं को बचा पाएंगे। याद रखिए, वैसे भी युगों पहले से आसमान से फूल बरसना बंद हो गए हैं।
चिन्मय मिश्र
(वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार चिन्मय मिश्र का यह आलेख स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर पहली बार देशबन्धु में 2016-08-20 को प्रकाशित हुआ था।)


