अमलेन्दु उपाध्याय
‘बढ़ती धार्मिक असहिष्णुता’ और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हो रहे हमले के खिलाफ लेखकों का गुस्सा बढ़ता ही जा रहा है। अब तक लगभग आधा सैकड़ा लेखक पुरस्कार वापस कर चुके हैं तो 100 से ज्यादा लेखकों ने राष्ट्रपति को पत्र लिखकर देश में बढ़ रही असहिष्णुता पर अपना प्रतिरोध दर्ज कराया है।
लेखकों की हत्याओं के विरोध में लेखकों की इस मुहिम पर संघ गिरोह आग-बबूला हो गया है।
देश के लेखकों द्वारा लगातार साहित्य अकादेमी पुरस्कार लौटाने पर केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने असभ्य़-कुसंकृत बयान दिया (उनकी संघ संस्कृति से ऐसे ही पैशाचिक अट्टहास की आशा भी थी), “अगर वे लोग लिखने में परेशानी महसूस कर रहे हैं, तो पहले उन्हें लिखना बंद करने दीजिए। फिर हम आगे सोचेंगे।” तो वित्त मंत्री अरुण जेटली ने ब्लॉग लिखकर तीर चलाया और कहा- “इस घटना के संदर्भ में ही देश में लगातार साहित्‍यकार और लेखक साहित्‍य एकादमी को पुरस्‍कार लौटा रहे हैं। पुरस्‍कारों को लौटा कर लेखकों ने वर्तमान नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ विरोध का माहौल बना दिया है।“
जेटली ने अपने बलॉग में लिखा – “और हां विरोध करने वालों से कुछ सवाल भी। आप में से कितने लोग इमरजेंसी के खिलाफ इंदिरा गांधी के विरोध में सड़कों पर उतरे, या जेल में गए? क्‍या इनमें से किसी लेखक ने 1984 में सिक्‍ख दंगों के खिलाफ या फिर 1989 में भागलपुर दंगों के खिलाफ कुछ कहा? क्‍या 2004 से लेकर 2014 में हुए लाखों करोड़ों रुपये के भ्रष्‍टाचार खिलाफ उनकी अतंरआत्‍मा नहीं कांपी? कांग्रेस के पास दोबारा सत्‍ता में आने की कोई वजह नहीं है, जबकि मुख्‍यधारा से बाहर और महत्‍वहीन वामपंथ अपनी प्रासंगिकता पहले खो चुका है, वहीं पहले सरकारी संरक्षण पा चुके लोग अब 'एक दूसरे मतलब की सियासत' के जरिये राजनीति कर रहे हैं। लेखकों का यह गढ़ा हुआ विद्रोह इन्‍हीं सब में से एक है।“
लेकिन हत्यारी यूनियन कार्बाइड (डाउ केमिकल्स) और कर चोरी करने वाली वोडाफोन के स्वयंसेवक अधिवक्ता लेखकों के इस विरोध की कीमत नहीं समझ सकते, क्योंकि उनके सियासी पुरखों का इतिहास अंग्रेजों की चमचागिरी, स्वतंत्रता संग्राम से विश्वासघात और आपातकाल में इंदिरा गांधी से माफी मांगने का रहा है।
दरअसल संस्कृतिविहीन संघ परिवार से लेखकों के खिलाफ ऐसी ही प्रतिक्रियाओं की उम्मीद भी थी। संघ परिवार की समस्या यह है कि उसके पास कोई सभ्य सुसंस्कृत विद्वान लेखक है ही नहीं और हो भी नहीं सकता।
सवाल तो जेटली से भी हो सकता है कि महाशय आपने 1984 के सिख दंगों के समय क्या किया? 2002 के गुजरात दंगों पर जब आपके अटल बिहारी वाजपेयी ही, झूठ-मूठ में ही सही, राजधर्म की याद दिला रहे थे, तब आपकी बोलती बंद क्यों थी? व्यापमं जैसे व्यापक हत्यारे भ्रष्टाचार पर आपकी जुबान को लकवा क्यों मार गया है? और हुजूर लगे हाथ ये भी बता ही दीजिए कि भोपाल गैस कांड की अपराधी यूनियन कार्बाइड (डाउ कैमिकल्स) का अधिवक्ता बनना आपने क्यों स्वीकार किया ?
आपातकाल में लेखकों की भूमिका पर सवाल उठाने वाले अरुण जेटली को देश को बताना चाहिए कि बाला साहेब देवरस ने इंदिरा गांधी को पत्र लिखकर माफी मांगी थी और आपातकाल को अनुशासन पर्व कहा था, जबकि आपातकाल में कई लेखक जेल गए, किसी ने भी इंदिरा गांधी से माफी नहीं मांगी।
अरुण जेटली किस मुंह से आपातकाल पर लेखकों से सवाल कर रहे हैं- “आप में से कितने लोग इमरजेंसी के खिलाफ इंदिरा गांधी के विरोध में सड़कों पर उतरे, या जेल में गए?” मशहूर शायर हफीज मेरठी इमरजेंसी में जेल गए, तो उनके बेटे का इंतकाल हो गया, उनसे माफी लिखने को कहा गया। लेकिन खुद्दारी के साथ हफीज़ साहब ने कहा किस बात की माफी?
जेटली साहब जिस दिन इंदिरा गांधी से गिड़गिड़ाकर माफी मांगने वाला संघ परिवार हफीज़ मेरठी के पैरों की धूल के बराबर का एक आदमी भी पैदा कर दे, उस दिन इस देश के लेखकों से सवाल करे।... और कुल मिलाकर तो जेटली-शर्मा किस्म के लोगों ने अपनी बेहूदा टिप्पणियों से जहां हत्यारों के पक्ष में बातें की हैं, वहीं साहित्य और लेखकों के खिलाफ युद्ध का ऐलान ही किया है।
जेटली ने ब्लॉग में लिखा – “कानून व्‍यवस्‍था संभालना और निशाने पर रहने वाले ऐसे लोगों को सुरक्षा देने की जिम्‍मेदारी राज्‍य सरकार की होती है। इसी तरह दादरी की घटना उत्‍तर प्रदेश में हुई, जहां समाजवादी पार्टी की सरकार है।“
अगर दादरी की हत्या के लिए सपा सरकार और कलबुर्गी की हत्या के लिए कर्नाटक सरकार जिम्मेदार है तो जेटली जी को बताना चाहिए कि 2002 के गुजरात जनसंहार के लिए जिम्मेदारी किसकी है?
दरअसल ऐसे कुतर्क करने में दोष जेटली का नहीं, बल्कि उन संस्कारों का है जो उन्हें उनके सियासी परिवार की शाखाओं से मिले हैं। उनका सियासी परिवार मानव रक्त पिपासु है। जाहिर है जेटली के ये उद्गार कोई आश्चर्य पैदा नहीं करते, बल्कि उनके रक्तपिपासु सियासी परिवार के विचारों की ही अभिव्यक्ति करते हैं।
2013 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरॉन भी जलियांवाला बाग स्मारक पर गए थे। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक विजिटर्स बुक में उन्होंने लिखा कि "ब्रिटिश इतिहास की यह एक शर्मनाक घटना थी।" क्या अरुण जेटली से उम्मीद की जा सकती है कि वे भी 2002 के गुजरात जनसंहार और दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी की हत्या और दादरी की संघी आतंकवाद की कार्रवाई पर कैमरून जैसी टिप्पणी करने की हिम्मत दिखाएंगे?
1919 में जब पंजाब के जलियांवाला बाग में नरसंहार हुआ था, तो गुरुदेव ने इसकी घोर निंदा की और इसके विरोध में उन्होंने ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रदान की गई, 'नाइट हुड' (सर) की उपाधि लौटा दी।
गुरूदेव की इसी परंपरा का निर्वाह आज लेखकों ने किया है और सत्ता के संरक्षण में पल रहे संघी लंपट हत्यारों के विरूद्ध अपनी आवाज़ बुलंद की है।
याद रहे जेटली साहब, न तो गुरूदेव रवींद्रनाथ टैगोर वामपंथी थे और न नेहरूवादी। कन्नड़ लेखिका मुद्दू तीर्थहल्ली ने प्रोफेसर कलबुर्गी की हत्या और लेखकों के प्रतिरोध के प्रति सरकार के रवैये के विरोध में कर्नाटक साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटा दिया। वे ग्यारहवीं कक्षा की छात्रा हैं। एक छोटे से गाँव में कन्नड़ माध्यम के स्कूल में पढ़ती हैं।
मिस्टर जेटली आप मुद्दू तीर्थहल्ली को भी वामपंथी या नेहरूवादी नहीं ठहरा सकते, न आप उस नौजवान को नेहरूवियन और वामपंथी कहकर खारिज कर सकते हैं, जिसने देश में बढ़ रही असहिष्णुता के प्रतिवाद में स्मृति ईरानी के हाथों एमबीए की डिग्री लेने से इंकार कर दिया।
यह देश के जागरूक लेखकों का संघी हत्यारों और देश को अंधे कुएं में धकेलने के संघी आतंकवाद के विरोध में उठाया गया उचित कदम है, जो उनका एक लेखक होने के नाते समाज के प्रति दायित्व भी है।
महेश शर्मा, अरुण जेटली किस्म के प्राणियों को साहित्यकार वीरेंद्र सारंग की यह कविता एक माकूल और मुकम्मल जवाब है-

लौटा दो जो लिए हो - वीरेंद्र सारंग
मुझे जो मिला
लौटा देता हूँ तुम्हें
वैसे वह मेरा ही था
जो किये थे पच्चीस साल कर्म मैंने
घिसी थी कलमें, बिना सोए बिता दी थी रातें
बहुत से सुख कुर्बान किये हैं मैंने
दिखाई थी तर्जनी कि इधर देखो
यहाँ है जीवन, यहाँ मृत्यु
और यहाँ अँधेरा
लो अपना कबाड़
लो अपनी राशि
वैसे तो मैंने कर दिए हैं खर्च
दवा-दारू में, किताबों की खरीद में
ऑपरेशन में, पत्नी की अंतिम क्रिया में
हो गया खर्च सब, कहीं न कहीं जरूरी था जहाँ
फिर भी ले लो, जो बचाए थे मैंने अपने कफ़न के लिए
लौटा रहा हूँ सब कुछ अपना
लेकिन मुझे अपने तर्क की आज़ादी दे दो
मेरे बोलने-लिखने पर घात मत करो
वैसे मुझे डर नहीं लगता
मैं लिखूँगा खूब, जो सच है, जरूरी है
मुझे अपनी बात कहने की स्वतंत्रता है
जो तुम छीन नहीं सकते