बादल सरोज

तरुण तेजपाल के पाशविक, जुगुप्सा जगाने वाले घोर आपराधिक और अक्षम्य कृत्य के लिये कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए। उस सजा में 10-15 साल इस बात के लिये भी जोड़ दिए जाने चाहिए कि उनके इस आचरण ने पत्रकारिता में काम करने वाली महिलाओं-युवकों और इस तरह की धाकड़ पत्रकारिता के शुभचिंतको के विश्वास को आघात पहुँचाया है। किसी भी बहाने या कारण से लैंगिक दुष्कृत्य के इस ओछे शर्मनाक प्रदर्शन को कम करके नहीं आंका जा सकता। माफ़ !!!! सवाल ही नहीं उठता। पीड़िता भी कहे तो भी माफ़ी नहीं दी जा सकती - न दी जानी चाहिए। क्योंकि यह पीड़िता और व्यभिचारी के बीच का मामला भर नहीं है। यह ऊँची हैसियत वाले का नीचतम काम है-इसलिये सजा भी उदाहरणीय होनी चाहिए। इसी के साथ यह भी कि : इट्स फाल ऑफ़ अ मैन, नॉट दि मिशन। इट्स क्रिमिनल एक्ट ऑफ़ एन इंडिविजुअल नॉट दि इंस्टीटूशन।

बंगारू की घूस के बाद बीजेपी पर ताला नहीं जड़ा गया था, तंदूर काण्ड के शर्मा के बाद अकबर रोड बेचिराग नहीं हुआ था। शिवानी की ह्त्या के बाद तो उस बेचारी के अखबार तक ने उसे ढँग से श्रद्दाञ्जलि तक नहीं दी थी। यह सब संकेत हैं- इनसे अधिक न जाने कितने कितने पाप करने के बाद भी दोषी व्यक्ति ही करार दिये गये। यही मापदण्ड इस मामले में लागू होना चाहिए। तहलका का योगदान-इसकी तमाम सारी बाजारू सीमाओं, व्यावसायिक करतबों और वैचारिक धारणाओं के बावजूद-भारतीय राजनीति और समाज के कोढ़ को उजागर करने के मामले में सराहनीय रहा है।

जो तेजपाल के बहाने इस पर निशाना साध रहे हैं वे शिजोफ्रेनिक हैं-पाखण्डी हैं और अपनी कुरूपता छुपाने के लिये आइना तोड़ना चाहते हैं। वे कामयाब नहीं होंगे- उनके सौभाग्य से तहलका यदि चुक भी गया तो किसी और आकार-नाम-रूप-धजा में यह रुझान अस्तित्व में आयेगा।

इस वक़्त तेजपाल की आड़ में तहलका को जमींदोज करने के लिये नेजे-भाले-बरछी-बल्लम उठाये अचानक सदाचारी बन बैठे कुछ बंधू-बांधव, यदि ईमानदारी से ऐसा कर रहे हैं (कुछ हैं जो शायद ऐसा कर रहे हैं) तो उनसे यह उम्मीद स्वाभाविक है कि वे इस मुहिम को और आगे बढ़ायेंगे और बैंगलोर की आर्कीटेक्ट बच्ची सहित- ऐसे बाकी मामलो में भी दुम की बजाय जुबान हिलायेंगे। ऐसे लोग जो पीड़िता की पीड़ा वाली घटना के वृतान्त की ई-मेल को रस ले ले कर साझा कर रहे हैं, दिखा और छाप रहे हैं वे काम-कुण्ठित ही नहीं हैं, शाब्दिक व्यभिचार और लैंगिक कदाचरण के दोषी भी हैं। इनका भी खुले आम घूमना खतरनाक है। उन्हें इलाज की सख्त आवश्यकता है। हम शर्मिन्दा हैं कि हमारे काल में तेजपाल हुये। हम चिन्तित हैं कि हमारे काल में ऐसे भी लोग हुये जो महज इस बात पर गमजदा और आग-बबूला हैं कि हाय हुसैन हम न हुए ! क्षोभ और स्तब्ध कर देने वाले इन पलों में प्रियंका दुबे और बृजेश सिंह और ऐसे ही अनेकानेक काबिलियत और जीवट के मित्रों की बहुआयामी agony में हम उनके साथ हैं।

स्रोत-एफबी