हारने लगीं हैं खाप पंचायतें, लेकिन सबसे बड़ी खाप पंचायत में कोई फेरबदल नहीं
सबिता बिश्वास
ओलंपिक पदक जीतने वाली हमारी बिटिया साक्षी मलिक के खिलाफ जिस खाप पंचायत ने बाकायदा फतवा जारी करके उसकी कुश्ती रोकने की नाकाम कोशिश की थी, उसी के सम्मान समारोह का बायकाट करके काली हिरणी ने उसके अखाड़े में ही उसे चारों खाने चित्त कर दिया, तो ओलंपिक की तरह पैरा ओलंपिक में भी भारत झंडा लहराने वाली वाली हिरणियों में से एक दीपा मलिक के स्वागत में उन्हीं खाप पंचायतों के लोग इकट्ठे हो गये।
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक महम के ऐतिहासिक चबूतरे पर हुई खाप पंचायत का न्यौता ठुकराते हुए ओलिंपिक पदक विजेता साक्षी मलिक सम्मान समारोह में शामिल नहीं हुईं। साक्षी मलिक के माता-पिता न्यौता मिलने की बात तो स्वीकार करते हैं, लेकिन साथ ही उनका कहना है कि फिलहाल वह कुश्ती पर ही फोकस रखना चाहती है। इसलिए इस प्रकार के किसी भी कार्यक्रम से फिलहाल वह दूरी ही बनाए रखेगी।

इस समारोह के लिए ओलंपियन विनेश फौगाट व धावक धर्मबीर नैन को भी आमंत्रित किया गया था, लेकिन वे भी इस समारोह में नहीं पहुंचे। रोहतक के महम चौबीसी के ऐतिहासिक चबूतरे पर मंगलवार को खाप पंचायत बुलाई गई थी।
गौरतलब है कि पैरालिंपिक खेलों में पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला एथलीट बनीं दीपा ने शॉटपुट स्पर्धा में रजत पदक जीता है। अर्जुन अवार्ड विजेता दीपा कमर के नीचे से लकवाग्रस्त हैं। आर्मी आफिसर की पत्नी दीपा के दो बच्चे हैं।
हरियाणा में खाप पंचायतों की भ्रूण हत्या संस्कृति अभी बहाल है, लेकिन साक्षी और दीपा जैसी हमारी बेटियां देर सवेर इन खाप पंचायतों को बदलने के लिए मजबूर कर देंगे, यह उम्मीद जगने लगी है।
मनुस्मृति अनुशासन लागू करने पर आमादा अधर्म के कारोबारी अपने धतकरम से बाज नहीं आ रहे हैं तो स्त्री अस्मिता के मोर्चे पर जबरदस्त लामबंदी भी नजर आने लगी हैं। शनि मंदिर प्रवेश आंदोलन अब सिर्फ मंदिरों तक सीमाबद्ध नहीं है और स्त्री के लिए मसजिदों, दरगाहों के बंद दरवाजे भी खुलने लगे हैं।

राधिका वेमुला मां हैं।
संस्थागत हत्या के शिकार दलित रोहित वेमुला की मां। देश के चप्पे-चप्पे में अपने बेटे के लिए न्याय मांगने दौड़ती हुई उसकी छवि सत्ता वर्ग के हितों के लिए अपने ही बेटे को गोली से उड़ा देने वाली पुरानी मदर इंडिया से अलग है और यह नई भारत माता हैं।
ऐसी असंख्य नई भारत माताएं स्त्री अस्मिता के विविध आयाम हैं, जो पितृसत्ता के तमाम किलों तिलिस्मों को ढहाने में खुलते चले जा रहे हैं।
कश्मीर से जेएनयू में पढ़ने आयी सेहला रशीद के भाषण सुन लीजिये. खेल के मैदान में हमारी विश्व विजेता बेटियों के देख लीजिये, इरोम शर्मिला के सोलह साल के अनशन और आदिवासी भूगोल की तमाम सोनी सोरियों के जुझारू वजूद पर निगाहें डालें तो भारत माता की यह नई तस्वीर साफ नजर आयेगी, जिसके हाथ में कोई भगवा झंडा नहीं है। नहीं है।

खाप पंचायतें सिर्फ हरियाणा या पश्चिम उत्तर प्रदेश में नहीं हैं।
प्रगतिशील बंगाल से लेकर दक्षिण भारत में भी ये खाप पंचायतें चालू हैं। देवदासी प्रथा अभी जारी है उत्तर और दक्षिण भारत में। राजस्थान से लेकर उत्तर प्रदेश और बंगाल तक में दलित आदिवासी स्त्री के उत्पीड़न की खाप पंचायतें बहाल हैं और उन्हें राजनीतिक संरक्षण मिला हुआ है।
यहां तक कि आदिवासी समाज में जहां स्त्री के हकहकूक को सबसे ज्यादा तरजीह दी जाती हैं, वहां भी खाप पंचायतें स्त्री को डायन बताकर जिंदा जला देती है। पितृसत्ता के शिकंजे में आदिवासी समाज भी बुरी तरह वैसे ही फंसा है जैसे भारत के बहुसंख्य जनगण,जिन्हें पितृसत्ता के मनुस्मृति अनुशासन ने गुलाम बनाये रखा है।
पहली बार लेकिन बंगाल में किसी आदिवासी स्त्री को डायन कहकर जिंदा जलाने की कोशिश हुगली में नाकाम हो गयी है। बल्कि डायन बताने वालों को अस्पताल भेजकर उनकी चिकित्सा का बंदोबस्त हुआ है। हुगली जिले में ऐसा हुआ है।
खाप पंचायतों के सामंती सिपाहसालारों के मानसिक रोग की चिकित्सा जरूरी है।
सच्चर आयोग की रपट के मुताबिक बंगाल में जो मुसलमान अब भी मध्ययुगीन अंधेरा जीने को मजबूर हैं, वहां भी हमारी बेटियां रोशनी बिखेरने लगी हैं।

कम उम्र में शादी के खिलाफ पढ़ लिखकर कुछ बनने के लिए वे कानून का दरवाजा खटखटाकर कामयाब भी होने लगी हैं।
फासिज्म के घने अंधियारे में ब्राह्मण धर्म के मुकाबले यह स्त्री अस्मिता का जागरण ही परिवर्तन का मजबूत आधार है जिसे समझने की जरूरत है।
मजे की बात तो यह है कि परंपरागत खाप पंचायतें हरियाणा में भी इस परिवर्तन की आहट के मुताबिक बदलने लगी हैं, लेकिन लोक गणराज्य भारत में जो संस्थागत नई खाप पंचायतें बनी हैं, वहीं स्त्री अस्मिता की कोई सुनवाई नहीं है।
इस देश में सबसे बड़ी खाप पंचायत भारत की संसद है, जहां मर्दवादी वर्चस्व देश में तेजी से उभर रही इस स्त्री अस्मिता को रौंदने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। जहां मर्द आधी आबादी की नुमाइंदगी रोकने के लिए पार्टियों और विचारधाराओं के दायरे तोड़कर लामबंद हैं। पितृसत्ता के इस वैचारिक पाखंड को तोड़ने के लिए देश भर में स्त्रियों के गोलबंद होने की जरूरत है, वह भी स्त्री अस्मिता के मोर्चे पर।