वह क़लम की ताक़त से वाक़िफ़ था
टीवी, इंटरनेट और मोबाइल के इस दौर में अगर किसी ने अपनी जगह आज भी बरक़रार रखी है तो वह अखबार ही है। देश से लेकर दुनिया तक बनते बिगड़ते इतिहास का साक्षी यही अखबार रहा है। इसीलिए शायर अकबर इलाहाबादी इसकी तुलना तोप से करते हुए कहते हैं कि 'जब तोप मुक़ाबिल हो तो अखबार निकालो'। इस अखबार को तोप बनाने वालों में एक नाम जुड़ता है संजोय घोष का। देश के एक संभ्रात घराने में जन्मे संजोय ने आम आदमी की आवाज़ को सरकार तक पहुँचाने का माध्यम इसी अखबार को बनाया था।

दरअसल अपनी समस्याओं को सरकार तक पहुँचाने का सबसे सशक्त माध्यम यदि कोई है तो वह अखबार ही है। यह एक ऐसा माध्यम है जिसने निरंकुश शासक को भी सत्ता से उखाड़ फेंका है। भारत में अखबार या यूँ कहें कि समाचारपत्र की शुरुआत कब और किस उद्देश्य से की गई थी, इसका कोई ठोस प्रमाण तो नहीं मिलता है लेकिन इस बात के सुबूत अवश्य मिल जाते हैं कि आज़ादी की लड़ाई में समाचारपत्र ने भी अपनी दमदार भूमिका अदा की थी। बात चाहे 'बंगाल गज़ट' की हो या फिर गांधी जी द्वारा प्रकाशित 'हरिजन' की या फिर 'अल हिलाल' समाचारपत्र की। सभी ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ देशवासियों को एकजुट करने और ब्रिटिश राज के खात्मे में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। यही कारण था कि अंग्रेजी शासक भारतियों द्वारा प्रकाशित किसी भी समाचारपत्र को संदेह की दृष्टि से देखते थे और उसपर फ़ौरन प्रतिबन्ध लगाकर उसकी प्रतियों को जला दिया करते थे।

आज़ादी के बाद देश में समाचारपत्रों की भूमिका भी बदल गई। अब इसमें क्रांति का अलख जगाने की जगह सरकार तक अपनी आवाज़ पहुँचाने का माध्यम ने ले लिया। समाचारपत्र ने जनता की आवाज़ और चुनी हुई सरकार के बीच सेतु का काम करना शुरू कर दिया। जनता के प्रतिनिधि भी इसकी भूमिका के कारण कई बार अपनी नीतियों को बदलने पर मजबूर हो गए। एक वक़्त ऐसा भी आया जब केंद्रीय सत्ता ने निरंकुशता की हदें पार करते हुए अखबार को सेंसरशिप करना चाहा। लेकिन फिर भी इसकी भूमिका किसी प्रकार काम नहीं हुई बल्कि ये और भी मुखर होकर सम्पूर्ण क्रांति का जनक साबित हुआ।

लेकिन बदलते वक़्त के साथ समाचारपत्रों का नजरिया भी बदलने लगा। इसमें जनता की आवाज़ की जगह सरकारी दृष्टिकोण ने ले लिया। नि:स्वार्थ सेवा की सोंच पर बाज़ारीकरण हावी होता चला गया। सरकारी विज्ञापनों के माध्यम से मिलने वाली मोटी रक़म ने हक़ की आवाज़ को दबाना शुरू कर दिया। प्रकाशक अब इसे कमाई का माध्यम बनाने लगे। परिणामस्वरूप समाज के अंतिम छोड़ पर खड़े व्यक्ति की आवाज़ सरकारी विज्ञापन, चटपटी ख़बरों और पेज थ्री तक सिमट कर रह गई। जो समाचारपत्र हक़ की आवाज़ को उठाने और सरकार को आईना दिखाने का काम करती थी वही अब भ्रष्टाचारियों की चाटुकारिता, उद्धोगपतियों को फ़ायदा पहुँचाने वाली ख़बरें और हीरो-हीरोइनों के गॉसिप छापने का माध्यम भर रह गया। 1990 के बाज़ारीकरण ने प्रिंट मीडिया को भी अपनी चपेट में पूरी तरह से ले लिया।

समाचारपत्रों की इस हैरतअंगेज और बदली भूमिका ने बहुत से बुद्धिजीवियों को विचलित कर दिया। किसी को समझ में नहीं आ रहा था कि बाजार के इशारे पर चलने वाले समाचारपत्र में आम आदमी की आवाज़ को फिर से कैसे बुलंद किया जाये। ऐसे में संजोय घोष ने एक साहसिक क़दम उठाया। विदेश में उच्च शिक्षा प्राप्त करने और विश्व बैंक जैसी प्रतिष्ठित संस्था की नौकरी का ऑफर ठुकराने वाले संजोय के दिलो-दिमाग़ में आम आदमी की समस्याओं को सरकार तक पहुँचाने का जज़्बा मूर्त रूप लेने लगा था। अपने कार्य को अंजाम देने के लिए उन्होंने 1994 में 'चरखा' नामी एक गैर सरकारी संस्था की नींव डाली और क़लम को अपना माध्यम बनाया। संजोय देश के दूर-दराज़ और पिछड़े क्षेत्रों का दौरा करते और वहां की समस्याओं को हिंदी और अंग्रेजी के समाचारपत्रों में आलेख के माध्यम से प्रमुखता से उठाने लगे। 'साथी हाथ बढ़ाना' की तर्ज़ पर संजोय आम आदमी को ही अपनी समस्यायें स्वयं लिखने की प्रेरणा और प्रशिक्षण देने लगे। परिणामस्वरूप चरखा के बैनर तले एक ऐसी कड़ी तैयार होने लगी जो अपने अपने क्षेत्रों में ही क़लम के माध्यम से सरकार और समाज के अंतिम पंक्ति तक खड़े व्यक्ति के बीच सेतु का काम करने लगी।

संजोय के इस साहसिक कार्य का एक तरफ जहाँ सकारात्मक परिणाम नज़र आने लगा और समाज के दबे कुचले और दूर दराज़ के लोगों की आवाज़ सरकार तक पहुँचने लगी वहीँ इसका नकारात्मक और घातक परिणाम भी सामने आया। भ्रष्टाचार के दलदल में डूबे समूह की आँखों में संजोय खटकने लगे और उनकी क़लम की ताक़त को मिटाने की साजिशें शुरू हो गईं। लेकिन किसी भी परिणाम से बेख़ौफ़ संजोय अपने कार्य को अंजाम देने लगे रहे। इसी कड़ी में उन्हें 1996-97 में असम के माजुली द्धीप जाने का अवसर मिला। ब्रह्मपुत्र नदी के बीच दुनिया के इस अनोखे द्धीप पर न केवल मनुष्य बल्कि प्रकृति के साथ भी अन्याय किया जा रहा था। जिसे ख़त्म करने के लिए संजोय ने एक बार फिर क़लम को हथियार बनाया और शोषितों के मार्गदर्शक बन गए। तो दूसरी ओर भ्रष्टाचार के सागर में गोते लगाने वाले भी संजोय के मिशन को रोकने के लिए सारी हदें पार करनी शुरू कर दीं।

असम में उस वक़्त उल्फा उग्रवादियों का ज़ोर अपने चरम पर था। वह सभी गैर असामियों को सरकारी एजेंसी का साथ देने वाले मुखबिर की नज़र से देखते थे और भारत सरकार के साथ लड़ाई में बाधक समझते थे। इसका भरपूर फायदा भ्रष्टाचारियों ने उठाया और संजोय के खिलाफ उल्फा उग्रवादियों को भड़काना शुरू कर दिया। आखिरकार वह अपने नापाक मक़सद में कामयाब हो गए। जुलाई 1997 में माजुली से संजोय का अपहरण कर लिया गया और फिर क़लम को सशक्त माध्यम की प्रेरणा देने वाले इस महान जादूगर की आवाज़ को हमेशा के लिए खामोश कर दिया गया।

संजोय का जाना न केवल हाशिये पर खड़े लोगों की आवाज़ के साथ अन्याय था बल्कि सामाजिक सरोकार से जुड़े सभी समूह के लिए भी वज्रपात से कम नहीं था। संजोय की जुदाई ने चरखा और उससे जुड़े लोगों के दिलों को अवश्य तोड़ा था लेकिन उनके हौसले पस्त नहीं हुए थे। उनकी इच्छाओं और मिशन को पूरा करने के लिए चरखा टीम एक बार फिर से उठ खड़ी हुई और इस काम का नेतृत्व संजोय के पिता शंकर घोष ने संभाला। उनके मार्गदर्शन में चरखा कश्मीर के दूर दराज़ क्षेत्रों से लेकर नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़ और बाढ़ प्रभावित बिहार तक अपने मिशन को आगे बढ़ाने लगी। वर्ष 2005 में शंकर घोष ने ऐतिहासिक क़दम उठाते हुए देश की दूसरी सबसे बड़ी आबादी और उसकी ज़ुबान उर्दू के समाचारपत्रों में भी आलेख प्रकाशित करवाने का काम शुरू करवाया। इस तरह आज चरखा के आलेख देश की तीन प्रमुख भाषा हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी के समाचारपत्रों, पत्रिकाओं और वेबसाइटों में प्रकाशित हो रहे हैं।

चरखा का उद्देश न केवल आम आदमी की आवाज़ को समाचारपत्रों के माध्यम से उठाना है बल्कि उनकी समस्याओं को हल कर उनके जीवन को रौशन भी करना है। इसके लिए चरखा टीम और उससे जुड़े कार्यकर्ता प्रकाशित समस्याओं को सम्बंधित विभाग के अधिकारियों के समक्ष न केवल उठाते हैं बल्कि उसका निवारण भी करवाने का लगातार प्रयास करते रहते हैं। जम्मू-कश्मीर से लेकर बिहार तक ऐसे कई उदाहरण हैं जिसमे चरखा द्वारा प्रकाशित आलेख ने सरकारी अधिकारीयों को हरकत में आने और समस्याओं के फ़ौरन हल करवाने के लिए प्रेरित किया है। चरखा से जुड़े ऐसे कई लेखक हैं जिनके प्रभावपूर्ण आलेख के कारण उन्हें राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। वर्तमान में चरखा समस्याओं को शब्दों में पिरोने के साथ साथ सरकारी योजनाओं से देश के पिछड़े और दूर दराज़ में रहने वालों को जागरूक करने का काम भी कर रही है।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आदर्शों से प्रेरित संजोय घोष ने जिस उद्देश्य से चरखा की स्थापना की थी आज 20 वर्षों के बाद भी वह अपने मार्ग पर गतिमान है। परिवर्तन के इन 20 वर्षों में चरखा ने भी स्वयं को प्रिंट के साथ साथ डिजिटल से जोड़ लिया है। जो उनके अधूरे सपने और मिशन को लक्ष्य तक पहुँचाने में मील का पत्थर साबित हो रहा है। संजोय की कमी को पूरा करना असम्भव है लेकिन उनके जीने का उद्देश्य आने वाली पीढ़ी के लिए सदैव प्रेरणादायक साबित होता रहेगा। संजोय को श्रद्धांजलि इन शब्दों में-

सूरज हूँ ज़िन्दगी की रमक़ छोड़ जाऊंगा

मैं डूब भी गया तो शफ़क़ छोड़ जाऊंगा
O- शम्स तमन्ना
शम्स तमन्ना, लेखक चरखा के पूर्व हिंदी संपादक हैं और वर्तमान में डीडी न्यूज़ में असिस्टेंट प्रोडूसर के पद पर कार्यरत हैं ।