हिंदू राष्ट्र की आस्था हिंदुत्व में नहीं, निवेशकों की आस्था है
हिंदू राष्ट्र की आस्था हिंदुत्व में नहीं, निवेशकों की आस्था है

West Bengal Chief Minister Mamata Banerjee with Samajwadi Party chief Akhilesh Yadav at the swearing in ceremony of Karnataka Chief Minister H.D.Kumaraswamy in Bengaluru on May 23, 2018. (Photo: IANS)
यह हिंदू राष्ट्र ग्लोबल हिंदुत्व का राष्ट्र है, जिसकी आस्था हिंदुत्व में नहीं, निवेशकों की आस्था है। जिसका राष्ट्र पीपीपी एफडीआई फारेन कैपिटल राष्ट्र है।
मुक्तबाजारी हिंदुत्व का एजेंडा, लाल और नील दोनों का सफाया
दलितों के सारे रामों का संघ परिवार ने हनुमान कायाकल्प कर दिया
इसके बिना हिंदू राष्ट्र असंभव है चूंकि
हमारी समझ में नहीं आ रही है यह बात कि संघ परिवार के इस खुल्ला खेल फर्ऱूखाबाादी को लाल और नील विचारधाराओं और राजनीति के झंडेवरदार अब तक क्यों समझ नहीं पा रहे हैं।
गौर कीजिये कि कैसे बिना अंबेडकरी और बहुजन आंदोलन के खिलाफ एक शब्द कहे केसरिया सुनामी रचने से पहले दलितों के सारे रामों का संघ ने हनुमान कायाकल्प कर दिया।
पूरी नीली राजनीति और बहुजन आंदोलन को समरसता कार्यक्रम के तहत आत्मसात करने की रणनीति अपनायी गयी और राजनीतिक मोर्चे पर भारतीय राजनीति में अलग-थलग बाकी बचे नील को हाशिये पर धकेल दिया है संघ परिवार ने, बिना उससे टकराये।
अपने सबसे ताकतवर और वफादार चेहरों को हाशिये पर रखकर ओबीसी नरेंद्र भाई मोदी के प्रधानमंत्रित्व के फैसले से नील को फतह करने का संघ परिवार का रणकौशल बेहद कामयाब रहा है।
क्योंकि हिंदुत्व का एजेंडा तो मनुस्मृति अनुशासन की बहाली का एजेंडा है और ब्राह्मण वर्चस्व की राजनीति में सर्वोच्च शिखर पर बहुजनों को प्रतिनिधित्व का माहौल रचे बिना बहुजनों को हिंदुत्व की पैदल सेना में तब्दील नहीं किया जा सकता।
गौततलब है कि बहुजन आंदोलन को सिरे से खत्म करने में कामयाब संघ परिवार बहुजन राजनेताओं के खिलाफ या अंबेडकरी आंदोलन के खिलाफ कुछ भी कहने के बजाय बहुजन आंदोलन की समूची विरासत, उसके प्रतीकों और उसके हजारों साल के प्रतिरोध के इतिहास, उसके निरंतर जारी संघर्षों के हिंदुत्वकरण करने का काम कर रहा है ताकि हिंदुत्व के भूगोल में बहुजन का कोई मतलब ही न रहे।
दूसरी ओर बंगाल का खेल अब पूरी तरह खुल गया है।
आज ही कोलकाता के एक बांग्ला न्यूज चैनल से बंगाल के भाजपा प्रभारी राहुल सिन्हा ने खुल्ला ऐलान किया कि भाजपा का लक्ष्य है, लाल रंग को ही सिरे से मिटा देना है।
अब इसे भी समझ लीजिये कि लाल रंग के खिलाफ मोदी हैं और संघ परिवार और भाजपा के साथ-साथ लाल रंग की सबसे बड़ी दुश्मन ममता बनर्जी हैं।
दीदी ने तो बंगाल में सत्ता संभालते ही बंगाल की धरती में जहां भी लाल रंग है, वहां उसे नील में तब्दील करने लगी है। मजे की बात है कि नील रंग से दीदी का कोई वैचारिक ताल्लुक नहीं है और न नीलरंगे बहुजन आंदोलन से उनका कुछ लेना देना है। कोलकाता नगर निगम इलाके में तो घरों और इमारतों के रंग नीला करने पर टैक्समाफी का ऐलान भी हुआ है।
धर्मोन्मादी ध्रुवीकरण बंगाल में तेज करने में जितना भारी योगदान मोदी, शाह और संघ परिवार के नेता नेत्रियों का रहा है, उसके बराबर योगदान अकेली ममता बनर्जी का है।
नतीजतन अब बंगाल में कमसकम हर चौथा वोटर केसरिया है और सीबीआई नौटंकी के बावजूद दीदी बंगाल में निरंकुश हैं।
धार्मिक ध्रुवीकरण से सफाया लाल रंग का हुआ है जो कि संघ परिवार का घोषित एजेंडा है। जबकि बंगाल में नीली राजनीति और बहुजन आंदोलन दोनों निषिद्ध है।
बंगाल में बचा-खुचा नीला भी मतुआ आंदोलन के भगवाकरण से अब केसरिया केसरिया कमल-कमल है।
मुसलमानों के अटूट समर्थन के बिना बंगाल में सत्ता में बने रहना असंभव है।
धर्मनिरपेक्षता राजनीतिक मजबूरी है जो हकीकत में है ही नहीं।
बंगाल में किसी भी चुनाव क्षेत्र में तीस फीसद से कम वोट मुसलमानों के नहीं हैं और विधानसभा क्षेत्रों में से आधे में तो कहीं पचास तो कहीं सत्तर और नब्वे फीसद तक मुसलमान वोटर हैं।
जाहिर है कि दीदी खुलकर संघ परिवार के साथ खड़ी नहीं हो सकतीं, लेकिन उनका गठजोड़ संघ के साथ है। इसको छुपाना भी जरूरी है। मोदी और दीदी ने यह मुश्किल आसान किया कि लाल का सफाया।
तो मोदी और दीदी का साझा उपक्रम रहा है बंगीय धर्मोन्मादी ध्रुवीकरण और शाह के बंग विजय का असल आशय बंगाल की सत्ता दखल करना नहीं है, बंगाल से वाम का सफाया और बंगाल का केसरियाकरण है।
मोदी के खिलाफ दीदी की रोज-रोज की युद्ध घोषणा और दीदी को कटघरे में खड़े करने की केंद्र सरकार की कवायद ने इस साझे उपक्रम को सुपर-डुपर सफल बनाया है।
नौ महीने बाद हुई मुलाकात भी इसी साझा रणनीति की परिणिति है।
इसे सीधे तौर पर समझे तो बहुजन आंदोलन और अंबेडकरी विचारधारा को खत्म किये बिना मनुस्मृति शासन का हिंदू राष्ट्र बन नहीं सकता।
फिर यह हिंदू राष्ट्र ग्लोबल हिंदुत्व का राष्ट्र है, जिसकी आस्था हिंदुत्व में नहीं, निवेशकों की आस्था है। जिसका राष्ट्र पीपीपी एफडीआई फारेन कैपिटल राष्ट्र है।
भारत में वाम आंदोलन और लाल रंग का वजूद जब तक कायम है तब तक फासीवादी एजेंडा को अंजाम देना असंभव है और मुक्तबाजारी हिंदुत्व के खिलाफ कहीं न कहीं आग जलती ही रहेगी।
अब देखिये, बीमा बिल के विरोध के घोषित फैसले के विपरीत राज्यसभा से दीदी की तृणमूल कांग्रेस ने वाकआउट कर दिया।
2008 में यह बिल कांग्रेस ने पेश किया था और पहले से तय था कि बीमा बाजार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने में भाजपा कांग्रेस गठजोड़ बना हुआ है।
भूमि अधिग्रहण बिल तो सौदेबाजी में शतरंज की नायाब चाल बन गया। जमीन डकैती के लिए कायदे कानून का पालन इस देश में कब कहां होता रहा है।
होता तो थोक भाव से किसान खुदकशी न कर रहे होते और पांचवीं छठीँ अनुसूचियों और तमाम संवैधानिक रक्षाकवच के बावजूद देश भर में आदिवासियों की बेदखली का सलवा जुडुम चल नहीं रहा होता।
कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस की राजनीति सौ टका खरी ही रही कि बीमा बिल पास कराने के एवज में भूमि विधेयक राज्यसभा से सिलेक्ट कमिटी में चला गया, जिसे पास करने की वैसे भी कोई जल्दी नहीं है।
ज़मीनी सच्चाई लेकिन यही है कि लंबित परियोजनाएं सब चालू हैं और बाकी जो तमाम कानून भूमि विधेयक के विरोध के दिखावे के तहत सर्वदलीय सहमति से बनाये बिगाड़े जा रहे हैं, उससे हर हाल में जमीन से बेदखली तो होनी ही है।
पलाश विश्वास


