कोलकाता में मौसम बेहद बदल गया है और नवंबर से ही सर्दी होने लगी है।
हम लोग सालाना अतिवृष्टि अनावृष्टि बाढ़, सूखा, भूकंप, भूस्खलन की मानवरची आपदाओं के मध्य अपने-अपने सीमेट के जंगल में रायल बेंगाल टाइगर की तरह विलुप्तप्राय होते रहने की नियति के बावजूद मुक्तबाजारी कार्निवाल में मदहोश हैं।
जो अमेरिका हम बन रहे हैं, वहॉँ सर्वव्यापी बर्फ की आंधी जाहिर है कि हमें आकुल व्याकुल नहीं कर सकतीं। जाहिर है।
हम सुनामी, समुद्री तूफान और केदार जलप्रलयमें गायब मनुष्यों और जनपदों के बारे में उतने ही तटस्थ है जितने कि जल जंगल जमीन नागरिकता आजीविका नागरिक मानवाधिकारों प्रकृति पर्यावरण से बेदखली के निरंतर अश्वमेध अभियान से।
जैसे कि अविराम जारी स्त्री उत्पीड़न से। अविराम भ्रूण हत्या और आनर किलिंग से।
जैसे कि सभ्यता के चरमोत्कर्ष का दावा करते हुए निरंतर जारी नस्लभेदी अस्पृश्यता के आचरण से और अपने चारों तरफ हो रहे अन्याय, अत्याचार और बलात्कार और नरसंहार से। शुतुरमुर्ग की तरह बालू में सर गढ़ाये जिंदगी जीने के नाम मौत जी रहे हैं हम लोग।
मौसम के मिजाज से हमें कोई नहीं लेना देना और हमें सुंदरवन की परवाह नहीं है कि उसे किसे किसे बेचा जा रहा है जैसे हमें गायब होती घाटियों, झीलों, नदियों और जलस्रोतों के गायब होते रहने, जनपदों के डूब में शामिल होते जाने, गांवों के सीमेंट के जंगल में तब्दील होते जाने और निरंतर तेज होती जलयुद्ध के साथ अभूतपूर्व भुखमरी और बेरोजगारी की तेज होती दस्तक की कोई परवाह नहीं है।
अत्याधुनिक भोग आयोजन में निष्णात हमें निजीकरण, विनिवेश, विनिंत्रण, विनियमन या बायोमेट्रिक डिजिटल नागरिकता के बहाने अपने ही संविधानप्रदत्त मौलिक अधिकारों और अपनी निजी गोपनीयता और नागरिक संप्रभुता की भी परवाह नहीं है।
लेकिन बदलते मौसम के बहाने हमें अपने नैनीताल में बिताय़ी जाड़ों की छुट्टियाँ खूब याद आ रही हैं।
हमें याद आ रही हैं युगमंच और
नैनीताल समाचार के तमाम साथियों के साथ, गिरदा के साथ और मोहन के साथ तो कभी कभार पंकज बिष्ट, आनंद स्वरूप वर्मा, शमशेर सिंह बिष्ट, सुंदरलाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ट, विपिन चाचा के साथ हिमपात मध्ये देखे बदलाव के ख्वाबों से लबालब वे सर्दियों की मुलामय सी धूप और वे अंतहीन बहसें।
हमे याद आ रहे हैं फादर व्हाइटनस और फादर मस्कारेनस और नैनीताल भुवाली के गिरजाघरों के तमाम पादरियों की, जो हमारे सहपाठी थे डीएसबी में और नहीं भी थे।
हम जाड़ों की छुट्टियों में क्रिसमस के दिन अमूमन चर्च में होते थे।
सुबह नाश्ते में पावरोटी के साथ पोच या आमलेट तो रात में खाने के बाद फलाहार और काफी सेवन।
भुवाली चर्च में क्रिसमस की उस रात की याद भी आती है जब रात के बारह बजे गुल कर दी गयी बत्ती के बाद जो पहली रोशनी आयी और मेरे चेहरे पर पड़ी तो मुझे जिंदगी में पहली बार और अंतिम बार सार्वजनिक तौर पर गाने का प्रयास करना पड़ा और बेसुरे उस चीख से ही शुरु हुआ था बड़ा दिन।
और आज सुबह ही खबर पढ़ने को मिली कि अबकी दफा बड़ा दिन का त्योहार यानी क्रिसमस अटल बिहारी वाजपेयी का जन्मदिन होगा और पटेल के जन्मदिन के एकता परिषद बतौर मनाये जाने की तर्ज पर यह देश भऱ में राजकीय सुशासन दिवस होगा।
जवाहर लाल नेहरु और इंदिरा गांधी के सारे देशवासी भक्त नहीं हैं लेकिन भारतीय इतिहास उनकी भूमिका के बगैर अधूरा है।
उनके जनम मरण को मिटाने पर तुला संघ परिवार अब अल्पसंख्यकों के पर्व त्योहारों का केसरियाकरण करने लगा है।
पैसे के अभाव में लालबहादुर स्मारक बंद होने को है।
मुझसे पूछिये तो हम इन स्मारकों के समर्थक नहीं है।
तमाम बंगले जहॉँ सिर्फ मृतात्माओं का वास है और तमाम जमीनें जहॉँ महान लोगों की समाधियाँ हैं, वे खाली कराकर गरीब गुरबों को बांट दी जाये, हमारा लक्ष्य बल्कि यही है औऱ भूमि सुधार का असली एजेण्डा राजधानी से ही लागू होना चाहिए।
हम पर्व त्योहारों की आस्था के आशिक भी नहीं हैं और न उन्हें मनाने की कोई रस्म निभाते हैं। हम तो जनसंहारी काली पूजा और दुर्गोत्सव के बहाने नरमेध उत्सव के खिलाफ हैं। लेकिन संविधान में दिये मौलिक अधिकारों के तहत धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार भी है और धर्म और आस्था के मामले में जनता के हक हकूक का हम पुरजोर समर्थन करते हैं अपनी कोई आस्था न होने के बावजूद, बशर्ते की वह धर्म घृणा अभियान सत्ता विमर्श और सौंदर्यबोध में तब्दील होकर जनसंहारी मुक्ताबाजारी संस्कृति का हिस्सा न हो।
जाहिर है कि हमें संघ परिवार के धर्म-कर्म और संघियों की आस्था के अधिकार का भी पुरजोर समर्थन करते हैं लेकिन उतना ही समर्थन हमारा बाकी धर्मालंबियों, समुदाओं, नस्लों के हकहकूक के पक्ष में है।
मेरे गांव बसंतीपुर भी आस्था के मामले में कट्टर हिंदू हैं, जैसे कि इस देश के हर जनपद के हर गांव के वाशिदे किसी न किसी धर्म के आस्थावान बाहैसियत होंगे।
मैं अपना मतामत स्पष्ट तौर पर व्यक्त करता हूँ और इन सामंती परंपराओं के अवशेष का विरोध भी करता हूँ, लेकिन हम अपने देश वासियों के धार्मिक अधिकार के खिलाफ और अपने अपने गांव के पर्व त्योहारों के विरुद्ध तब तक खड़े नहीं हो सकते, तब तक ऐसे पर्व त्योहार अस्पृष्यता, नस्ली बेदभाव और मुक्ताबाजरी उत्सव में तब्दील न हो जाये।
जिस भारत को विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर महामानव मिलन तीर्थ भारततीर्थ कहते रहे और मानते रहे कि यहॉँ तमाम मतों, मतांतरों, धर्मों, नस्लों और उनकी बहुआयामी संस्कृतियों का विलय ही भारत राष्ट्र है जो भारततीर्थ भी है, वहॉँ चूंकि जन्मजात हम हिंदू है तो हम सिर्फ हिंदुत्व के पर्व त्योहार मनायेंगे और अहिंदू त्योहारों को मटिया देंगे, इस अन्याय का प्रतिवाद किये बिना हमें राहत नहीं मिलेगी।
और जनम पर तो हमारा कोई दखल नहीं है तो कर्मफल सिद्धांत मानें तो हम तो परजन्म में ईसाई मुसलमान बौद्ध सिख दलित ब्राह्मण से लेकर गिद्ध कूकूर तक हो सकते हैं, जन्म आधारित पहचान और आस्था के बहाने हम इंसानियत के खिलाफ खड़े हो जाये, यह किस किस्म का हिंदुत्व है, नहीं जानते ।
दरअसल यही संघ परिवार के सनातन हिंदुत्व का एजेण्डा है जो दरअसल जायनी मुक्तबाजार का एजेण्डा भी है, जिसकी पूंजी धर्मोन्मादी राष्ट्रीयता है।
दरअसल यह हिंदू साम्राज्यवाद का पुनरूत्थान है।
यह एजेण्डा कामयाब हो गया तो मुक्तबाजार भारत तो बचा रहेगा, फलेगा फूलेगा, लेकिन भारतवर्ष की मृत्यु अनिवार्य है।
इस हकीकत को भी बूझ लीजिये कि हिंदू साम्राज्यवाद के इस पुनरूत्थान का जिम्मेदार दरअसल संघ परिवार ही है, यह कहना गलत होगा।
पंडित जवाहर लाल नेहरु खुद हिंदू साम्राज्यवादी थे और विस्तारवाद के पक्षधर थे तो एकाधिकारवादी नस्ली राजकाज के भी वे पुरोधा रहे हैं।
उन्हीं के किये कराये की वजह से क्षेत्रीय अस्मिताओं के नस्ली रंगबेध के खिलाफ उठ खड़े होने की निरंतरता से भारतवर्ष अब खंड खंड एक राजनीतिक भूगोल है, कोई समन्वित राष्ट्रीयता नहीं है और उन्हीं की वजह से आज हिंदुत्व ही भारत की एकमात्र राष्ट्रीयता है।
और अब परमाणु शक्तिधर भारत का राजकाज संभाल रहे संघ परिवार अगर परमाणु शस्त्रास्त्र प्रथम प्रयोग की कारपोरेट लाबिइंग में लगा है तो समझना होगा कि यह प्रयोग किसके खिलाफ होने जा रहा है और उसकी भोपाल गैस त्रासदी का जखम पीढ़ी दर पीढ़ी कौन लोग अश्वत्थामा बनकर वहन करते रहेंगे।
दर असल लाल किला हिंदुत्व के नजरिये से विधर्मी विरासत है जैसे नई दिल्ली की तमाम मुगलिया इमारतें, जो परात्व और ऐतिहासिक धरोहरें भी हैं।
अयोध्या काशी मथुरा के धर्मस्थलों के खिलाफ जिहाद रचने वाले और बाबरी विध्वंस बाबा साहेब डा. भीमराव अंबेडकर के परानिर्वाण दिवस के दिन करके हिंदुत्व के मसीहा संप्रदाय नें एक मुश्त विधर्मी विरासत और इस देश के बहिष्कृत बहुजनों के हिस्सेदारी के दावे को एक मुश्त खारिज करने की जो अनूठी कामयाबी हासिल की है कि कोई अचरज नहीं कि इतिहास को वैदिकी सभ्यता बना देने वाले लोग इन पुरातात्विक और ऐतिहासिक विरासतों के हिंदुत्वकरण का कोई बड़ा अभियान छेड़ दें।
........ जारी
O- पलाश विश्वास