'हिन्दुत्व' के रंगमंच पर दलित कठपुतली
'हिन्दुत्व' के रंगमंच पर दलित कठपुतली
नरेंद्र कुमार आर्य
डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि संविधान के तहत राष्ट्रपति अंग्रेजी संविधान के तहत ब्रिटिश राजा(मुकुट) की तरह ही शासन का प्रमुख होगा :
"वह राज्य का मुखिया है, लेकिन कार्यपालिका का नहीं। वह राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है, लेकिन राष्ट्र पर शासन नहीं करता है। वह राष्ट्र का प्रतीक है। प्रशासन में उनकी जगह एक औपचारिक उपकरण है जिसके उपयोग के कारण उसे देश की निर्णय-प्रक्रिया में जाना जाता है ... भारतीय संघ का अध्यक्ष आम तौर पर अपने मंत्रियों की सलाह को मानने के लिए बाध्य होगा। वह उनकी सलाह के विपरीत कुछ भी कर सकता और न ही वह उनकी सलाह के बिना कुछ कर सकता है."
यह प्रतीकों का राजनीतिक परिप्रेक्ष्य है जिसमें राम नाथ कोविंद राजग के राष्ट्रपति पद के उमीदवार हैं. अगर हम इतिहास में पीछे जाएँ तो देखते हैं कि डॉ. अम्बेडकर ने ' यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ़ इंडिया' का ड्राफ्ट भी तैयार किया था जिसमें राष्ट्रपति के पद को अमेरिकी राष्ट्रपति की तरह शक्तिशाली बनाये जाने का मसविदा दिया था. उस समय वो मूल अधिकारों की सब- कमेटी के सदस्य थे. कमेटी की बैठक के समय उनकी अनुपस्थिति के कारण उनके ड्राफ्ट पर चर्चा नहीं हो सकी थी. वर्तमान संविधान का मसविदा पेश करते समय भी आंबेडकर ने संसदात्मक और अध्यक्षात्मक प्रणाली की खामियों और गुणों का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया था. (राष्ट्रपति प्रणाली शासन का एक ऐसा स्वरूप है, जिसमें राष्ट्रपति मुख्य कार्यकारी होता है और जनता द्वारा सीधे चुना जाता है। इस प्रणाली में सभी तीन शाखाएं, कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका संवैधानिक तौर पर एक-दूसरे से स्वतंत्र होती हैं, और कोई भी एक-दूसरे को खारिज या खत्म नहीं कर सकती। राष्ट्रपति कानून लागू करवाने, विधायिका उन्हें बनाने और न्यायालय न्याय के लिए जिम्मेदार होते हैं। सभी को दूसरों को संतुलित और नियंत्रित करने की विशिष्ट शक्तियां दी गई हैं ) अगर, आज देश में अध्यक्षात्मक/राष्ट्रपति प्रणाली होती तो क्या कांग्रेस और भाजपा इसी जोश से एक दलित को राष्ट्रपति बनाने का जोखिम उठा सकती थी ?
आपातकाल के बाद जून 1975 में वकालत से कॅरियर की शुरुआत करने वाले कोविंद, 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के निजी सचिव/ विशेष कार्यकारी अधिकारी रह चुके हैं. इसके बाद वे भाजपा नेतृत्व के संपर्क में आए और दो बार राज्य सभा के सदस्य और राज्यपाल रह चुके हैं. जब अमित शाह ने कोविंद का नाम लिया उन्होंने उनके 'गरीब' और 'दलित' पृष्ठभूमि पर जोर दिया. देश के राष्ट्रपिता गाँधी को एक 'चतुर बनिया' कहने वाले व्यक्ति के लिए कोविंद की जातीय पहचान ज्यादा महत्वपूर्ण है, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है. भाजपा संसदीय बोर्ड की करीब दो घंटे तक चली बैठक के बाद पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि कोविंद 23 जून को इस शीर्ष संवैधानिक पद के लिए अपना नामांकन दाखिल कर सकते हैं. राष्ट्रपति उम्मीदवार को अपने दम पर जिताने के लिए भारतीय जनता पार्टी के पास लगभग 25,000 वोट कम हैं और उन्हें ऐसा उम्मीदवार चाहिए था जिसको अन्य दलों के मत भी आसानी से मिल जाएँ.
कोविंद का दलित होने तुरुप की चाल समझी जा रही है.
लोग सवाल उठा रहे हैं कि कोविंद में ऐसा किया है जो आडवाणी, जोशी या सुषमा स्वराज की बजाय भाजपा ने उन्हें चुना है? मगर कोविंद को सिर्फ दलित के तौर पर देखने वालों के लिए ये भी समझाना चाहिए कि आडवाणी, जोशी या सुषमा स्वराज में भी ऐसा क्या है ? वे भी सिर्फ एक भाजपा के 'वरिष्ठ' नेता भर हैं जिन्हें मैत्रीपूर्ण-मीडिया के द्वारा बार-बार उछलकर 'राष्ट्रीय' नेता बना दिया जाता है. शायद दलित होने की वज़ह से उन्हें वो फुटेज़ नहीं मिला जिसके वो हक़दार हों?
हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा में दलितों के लिए क्या स्थान है इस तथ्य से वही व्यक्ति अनभिज्ञ हो सकता है मूलत: यह ब्राह्मणवाद पर आधारित है और वर्ण-व्यवस्था की वकालत करता है. बिहार के पूर्व राज्यपाल रामनाथ कोविंद को भाजपा के द्वारा राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित करने के साथ ही 'दलित प्रश्न' एक बार फिर भाजपा सहित उन सभी संघी संगठनों के समक्ष उपस्थित हो गया है, जो हिन्दू राष्ट्रवाद को अपना मूलमंत्र मानते हैं.कोविंद की उम्मीदवारी बड़े गहरे अंदरूनी संपर्क-सूत्र रखने वालों के लिए भी कयास से परे थी. तो क्या ऐसा निर्णय अचानक के लिया गया है ? ऐसा तो हरगिज़ नहीं लगता.
संघ और भाजपा सवर्ण/ ब्राह्मणवादी संस्कृति से प्रभावित रहे हैं. परम्परागत फासीवादी दलों की तरह, लंबे समय तक इसका आधार ऊॅंची जातियाँ और शहरी व्यापारी रहे हैं, जो मूल रूप से ब्राह्मणवादी संस्कृति के झंडाबरदार रहे हैं. 'तुष्टिकरण' शब्द को अर्थशास्त्र के दायरे से बाहर लाकर भारतीय राजनीति में एक मुहावरे की तरफ लोकप्रिय बनाने का श्रेय भाजपा को ही जाता है. कांग्रेस पर कभी मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाने वाली भाजपा क्या दलित तुष्टिकरण का काम नहीं कर रही है ?
समरसता की राजनीति का दम भरने वाली भाजपा वास्तव में नफरत, हिंसा और नरसंहार की राजनीति का विद्रूप खेल खेलती है. उसके मनपसंद निशाने हैं दलित और मुसलमान. मुसलमान एक धार्मिक पहचान और अपने ऐतिहासिक सन्दर्भों के कारण कृत्रिम हिन्दू राष्ट्रवाद का प्राकृतिक दुश्मन है. दलितों का स्थान और भूमिका ज्यादा विडंबनात्मक है. एक तरफ तो वह हिन्दू वर्ण-व्यवस्था के स्वाभाविक अंग नहीं है बल्कि अन्त्ज्य रहे हैं, दूसरी न ही वे भिन्न धार्मिक इकाई हैं. भिन्न धार्मिक इकाई न होने से संघी संगठन उन्हें ज़रूरत पड़ने पर हिन्दू के रूप में इस्तेमाल करने की चाल खेलते हैं. उनकी निर्बलता, कमज़ोर आर्थिक स्थिति और असंगठित स्वरुप अन्याय, शोषण और अत्याचार का उपयुक्त पात्र बना देता है. मगर हिन्दू- मुस्लिम साम्प्रदायिक दंगो और हिंसा के दौरान पिछड़ों के साथ ये ब्राह्मणवाद की सेना के सबसे औजपूर्ण, हिंसात्मक और दुर्धर्ष सैनिक बन उसी हिंदुत्व को मज़बूत करते हैं जिसके सबसे उत्पीड़ित वर्ग वे स्वयं हैं. गुजरात दंगों की अशोक परमार की छवि इसकी जीती-जगती तस्वीर है.
भाजपा और उसके संघी संगठन जिस हिंदुत्व और हिन्दू-राष्ट्रवाद की विचारधारा का समर्थन करते हैं वह पुरातनपंथी, मनुस्मृति जैसे घोर जातिवादी और स्त्री-विरोधी धार्मिक ग्रंथों के साथ ही साथ अन्य अवैज्ञानिक और अतार्किक किस्म के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुनरोत्थान पर आधारित समाज का विचार है. ये सामंतवाद और ब्राह्मणवाद को सर्वोपरि स्थान देने के साथ अन्य सभी तबकों को भी हिन्दू धर्म 'शास्त्रों' के द्वारा नियत स्थिति में रखे जाने की वकालत करता है ताकि यथास्थितिवाद पर आधारित सामजिक समरसता बनी रहे.
तो क्या रामनाथ कोविंद को देश के सबसे बड़े संवैधानिक पद का उमीदवार बनाकर वो अपनी ब्राह्मणवादी स्थापनाओं में किसी क्रांतिकारी बदलाव का संकेत दे रहे हैं ? क्या राष्ट्रीय सेवक संघ सरसंघचालक (सर्वोच्च प्रमुख) के साथ साथ शंकराचार्यों के पदों पर भी दलितों को इसी तरह से प्रतिनिधित्व देने का कोई मंसूबा रखती है. यकीनन नहीं. संघ की अपनी ५०००० से ज्यादा शाखाएँ हैं अगर इसके अनुषंगी संगठनों को शामिल कर लिया जाए तो यह संख्या और भी बढ़ सकती है, मगर इसने कभी भी जाति और उससे उपजाने वाली अमानवीय असामनता के विभिन्न रूपों के उन्मूलन का प्रयास नहीं किया. बल्कि दबंग और उच्च जातियों को लामबंद कर दलितों पर दबाब डालने का प्रयास किया है. हाल ही में गुजरात में पाटीदार आन्दोलन, महारष्ट्र में मराठा आन्दोलन, उत्तर प्रदेश में ठाकुर आन्दोलन और हरियाणा में जाट आंदोलनों के पीछे इन संगठनों की अप्रत्यक्ष भूमिका दृष्टिगत हुई है. सांस्कृतिक पिरामिड का यथास्थितिवाद इनका मूल मन्त्र है और उसी को विशुद्ध रूप से पुनर्स्थापित करना इनका राजनैतिक लक्ष्य.
भारतीय लोकतंत्र में राष्ट्रपति का पद सत्तात्मक रूप से लगभग प्रभावहीन है. उसके के पास आपातकालीन शक्तियों के आलावा कोई खास शक्तियाँ नहीं होतीं जिससे वह देश की राजनीति या समाज-परिवर्तन में कोई विशेष भूमिका निभा सके. किन्तु राष्ट्रपति का पद संवैधानिक परिपाटियों के अनुसार काफी गरिमापूर्ण मन जाता है. "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः"( मनुस्मृति अध्याय ३, श्लोक ५६-६०) की तर्ज़ पर दलित भी प्रतिक्रियावादियों की दृष्टि में सिर्फ घृणा या श्रद्धा की वस्तु रह गए हैं एक गणतंत्र के सामान नागरिक नहीं.
सत्ता में आने के बाद से ही भाजपा ने कभी गुजरात, कभी उत्तरप्रदेश तो कभी हैदराबाद में दलितों के प्रति अपनी फितरत के मुताबिक एक प्रतिकूल वातावरण का निर्माण कर लिया है. संवैधानिक लगामों के अनुसार उस सत्ता प्राप्त करने के लिए जातीय और धार्मिक समीकरणों के अनुसार खून को अविष्कृत करना होता है. उत्तर प्रदेश में बसपा और मायावती की राजनैतिक उपस्थिति और सहारनपुर में जातीय दंगों में दलितों के खिलाफ हुई हिंसा को सकारात्मक तरीके से २०१९ के चुनावों के मुद्देनज़र कोविंद की उम्मीदवारी एक 'संजीवनी बूटी' की तरह इस्तेमाल कर, दलित-विष का दमन करने का प्रयास भी है.
वास्तव में भाजपा के केंद्र में सत्ता में आने के बाद से ही दलितों के प्रति हिंसा और उत्पीड़न का एक अनवरत सिलसिला शुरू हो गया है.
संघी संगठन के राष्ट्रवाद के मुखौटे के पीछे ब्राह्मणवाद हमेशा बल मारता रहता है. गौ-रक्षा के नाम पर गौ-उन्मादी आतंकवादी संघी संगठनों ने अब तक सैकड़ों दलितों और मुसलमानों को हिंसा निशान बनाया है जिसमे कई बेक़सूर लोगों की जान जा चुकी है और आतंक का ऐसा मनोवैज्ञानिक वातावरण तैयार किया जा रहा है जहाँ कोई भी इन प्रतिक्रियावादी ताक़तों को चुनौती देने की जुर्रत न करे और उनकी सत्ता की लालसा आसानी से पूरी हो सके. गुजरात में गौ-उन्मादी आतंकियों की वज़ह से एक दलित आन्दोलन परिपक्वता पाने की कगार पर है. रोहित वेमुला की संस्थानात्मक हत्या और उस में केंद्र सरकार के दो मंत्रियों के लिप्त होने से भी दलित और प्रगतीशील युवाओं का देशव्यापी आन्दोलन दक्षिणपंथी शक्तियों के खिलाफ उठ खड़ा हुआ था.केन्द्रीय विश्वविद्यालयों को लगातार राष्ट्रविरोधी घोषित कर उन्हें वैचारिक रूप से नपुंसक बनाने और उनका भगवाकरण करने का बीड़ा ये सरकार उठा चुकी है.
क्या दलित, रोहित वेमुला,सहारनपुर में दलितों की हत्या-हिंसा-उत्पीड़न, उना में संघी आतंकियों की अमानवीयता, नागौर डंगवास या यूपी भाजपा उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह का मायावती पर दिया गया बयान हो, को इतनी जल्दी भूल जायेगा? क्या कोविंद नाम का भाजपाई मरहम उनके जख्मों और दर्दों को मिटा पायेगा? इस बात की संभावना बहुत कम है. कांग्रेसी उदारवाद, वामपंथ, अम्बेडकरवाद, संघी-राष्ट्रवाद, नक्सलवाद से लेकर मायावाद बहुत सी राजनीतिक धाराओं से वे जुड़े भी और शायद सीखा भी है.
हिन्दू राष्ट्रवाद के रंगमंच पर आज आज एक दलित कठपुतली का प्रदर्शन होने जा रहा है. एक ऐसी कठपुतली ना जिसका कोई ज़ेहन होगा न कोई जुबान, जो ब्राह्मणवाद के इशारों पर नाचेगी. ब्राह्मणवाद राष्ट्रवाद का चोला पहन कर सबका साथ सबका विकास के नारे के साथ अपने गुप्त वैचारिक एजेंडे को आगे बढ़ाएगी जिसका राष्ट्रवाद से कोई लेना-देना नहीं होगा. इसे भारत के संविधान और आधुनिकता की तरफ बढ़ते लोकतान्त्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश की दृष्टि से चिढ है. संविधान धर्मनिरपेक्ष देश की बात करता है और हिंदुत्व-राष्ट्रवाद धर्मनिरपेक्षता को नेस्तनाबूद किये नहीं पनप सकता. इसे नापसंद है संवैधानिक बराबरी और और आज़ादी के अधिकारों से. जातियों के पिरामिड पर आधृत समाज में विश्वास करने वाली संघीय व्यवस्था में समानता की बात, विशेषाधिकारों और रुतबे की मध्यकालीन सोच की दुश्मन है. हिन्दुत्ववादी ताक़तें संविधान की मूल भावनाओं पर प्रहार कर देश को पुन: अंधकारपूर्ण प्राचीन भारतीय समाज के दिवा-स्वप्न की ओर धकेल देना चाहती हैं. लोकतंत्र भी इनके नापाक मंसूबों के निशाने पर है. आज जो भी बराबरी है इसी का परिणाम है.
कांशीराम ने सामूहिक दलित हितों से तटस्थ या उनके विपरीत राजनीति करने वाले लोगों को 'चापलूस' कहा था. 'चापलूसवृति' एक व्यक्तिगत स्वार्थाधारित प्रवृति है, जिसमे वृहत्तर सामाजिक हितों का क्षुद्र हितों के लिए बलिदान कर दिया जाता है. जातीय विद्वेष, शोषण, अपमान, हिंसा और भेदभाव सामुदायिक स्तर पर महसूस किये जाते हैं. इनका उन्मूलन भी सामुदायिक और सामाजिक एकता और संघर्ष से ही हस्सिल किया जा सकता है. 'चापलूसवृति' से समुदाय विखंडित होकर किसी भी प्रकार की प्रभावशाली सामाजिक संघर्ष और राजनीतिक अधिकारों को प्राप्त करने की भूमिका नहीं निभा सकते. जहाँ भाजपा को कमज़ोर लाक्षणिक राजनीतिक मुहर की तलाश है वहीँ दलितों का जागरूक तबका शायद उन्हें कभी भी 'अपना' उपयक्त प्रतिनिधि मन कर स्वीकार नहीं कर पायेगा.
# नरेंद्र कुमार आर्य ([email protected]) समसामयिक मामलों पर स्वतंत्र टिप्पणीकार होने के अतिरिक्त कवि और आलोचक भी है.


