हिन्दुत्व माने ब्राह्मणवादी परियोजना का विस्तार
हिन्दुत्व माने ब्राह्मणवादी परियोजना का विस्तार
स्याह दौर में कागज कारे-3
सुभाष गाताडे
जनतंत्र का बुनियादी सूत्र क्या है ?
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यही समझदारी कि अल्पमत आवाज़ों को फलने फूलने दिया जाएगा और उन्हें कुचला नहीं जाएगा।
अगर ऊपरी स्तर पर देखें तो बहुसंख्यकवाद – बहुमत का शासन – वह जनतंत्र जैसा ही मालूम पड़ता है, मगर वह जनतंत्र को सर के बल पर खड़ा करता है। असली जनतंत्र फले-फूले इसलिए आवश्यक यही जान पड़ता है कि धर्मनिरपेक्षता का विचार और सिद्धान्त उसके केन्द्र में हो। यह विचार कि राज्य और धर्म में स्पष्ट भेद होगा और धर्म के आधार पर किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं होगा, यह उसका दिशानिर्देशक सिद्धान्त होना चाहिए।
बहुसंख्यकवाद स्पष्टतः जनतंत्र को विचार एवं व्यवहार में शिकस्त देता है। जनतंत्र का बहुसंख्यकवाद में रूपान्तरण जहां वास्तविक खतरे के तौर पर मौजूद है, पूंजी के शासन के अन्तर्गत – खासकर नवउदारवाद के उसके वर्तमान चरण में -एक दूसरा उभरता खतरा दिखता है उसका धनिकतंत्र अर्थात प्लुटोक्रसी में रूपान्तरण। हाल में दो दिलचस्प किताबें आयी हैं जिनमें 21 वीं सदी के पूंजीवाद के अलग अलग आयामों की चर्चा है। थॉमस पिकेटी की किताब ‘कैपिटेलिजम इन द टवेन्टी फर्स्ट सेंचुरी’ जो सप्रमाण दिखाती है कि बीसवीं सदी में निरन्तर विषमता बढ़ती गयी है और व्यापक हो चली है, उस पर यहां भी चर्चा चली है। वह इस बात की चर्चा करती है कि ‘‘पूंजीवाद के केन्द्रीय अन्तर्विरोध’’ के परिणामस्वरूप हम ऊपरी दायरों में आय का संकेन्द्रण और उसी के साथ बढ़ती विषमता को देख सकते हैं।
पिकेटी की किताब की ही तरह, अमेरिकी जनतंत्र पर एक प्रमुख अध्ययन भी वहां पश्चिमी जगत में चर्चा के केन्द्र में आया है। वह हमारे इन्हीं सन्देहों को पुष्ट करती है कि जनतंत्र को कुलीनतंत्र ने विस्थापित किया है। लेखकद्वय ने पाया कि ‘‘आर्थिक अभिजातों और बिजनेस समूहों द्वारा समर्थित नीतियों के ही कानून बनने की सम्भावना रहती है.. मध्यवर्ग के रूझान कानूनों की नियति में कोई फर्क नहीं डालते हैं।’’ प्रिन्स्टन विश्वविद्यालय से सम्बद्ध मार्टिन गिलेन्स और नार्थवेस्टर्न विश्वविद्यालय से सम्बद्ध बेंजामिन पाजे द्वारा किया गया यह अध्ययन – ‘‘टेस्टिंग थियरीज आफ अमेरिकन पालिटिक्स: इलीटस्, इण्टरेस्ट ग्रुप्स एण्ड एवरेज सिटीजन्स’ – इस मिथ को बेपर्द कर देता है कि अमेरिका किसी मायने में जनतंत्र है (http://www.counterpunch.org/2014/05/02/apolitical-economy-democracy-and-dynasty/ ) वह स्पष्ट करता है कि ‘ऐसा नहीं कि आम नागरिकों को नीति के तौर पर वह कभी नहीं मिलता जिसे वह चाहते हों। कभी कभी उन्हें वह हासिल होता है, मगर तभी जब उनकी प्राथमिकताएं आर्थिक अभिजातों से मेल खाती हों।’ …‘अमेरिकी जनता के बहुमत का सरकार द्वारा अपनायी जानेवाली नीतियों पर शायद ही कोई प्रभाव रहता है। ..अगर नीतिनिर्धारण पर ताकतवर बिजनेस समूहों और चन्द अतिसम्पन्न अमेरिकियों का ही वर्चस्व हो तब एक जनतांत्रिक समाज होने के अमेरिका के दावों की असलियत उजागर होती है।’ .. उनके मुताबिक अध्ययन के निष्कर्ष ‘‘लोकरंजक जनतंत्र’ के हिमायतियों के लिए चिन्ता का सबब हैं। (सन्दर्भ: वही)
ऐसी परिस्थिति में, जब हम जनतंत्र के बहुसंख्यकवाद में रूपान्तरण और उसके कुलीनतंत्र में विकास के खतरे से रूबरू हों, जबकि पृष्ठभूमि में अत्यधिक गैरजनतांत्रिक, हिंसक भारतीय समाज हो – जो उत्पीड़ितों के खिलाफ हिंसा को महिमामण्डित करता हो और असमानता को कई तरीकों से वैध ठहराता हो और पवित्र साबित करता हो – प्रश्न उठता है कि ‘क्या करें’ ? वही प्रश्न जिसे कभी कामरेड लेनिन ने बिल्कुल अलग सन्दर्भ में एवं अलग पृष्ठभूमि में उठाया था।
4.
अगर हम अधिनायकवाद, फासीवाद के खिलाफ संघर्ष के पहले के अनुभवों पर गौर करें तो एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया यही हो सकती है कि हम एक संयुक्त मोर्चे के निर्माण की सम्भावना को टटोलें।
सैद्धान्तिक तौर पर इस बात से सहमत होते हुए कि ऐसी तमाम ताकतें जो साम्प्रदायिक फासीवाद के खिलाफ खड़ी हैं, उन्हें आपस में एकजुटता बनानी चाहिए, इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि इस मामले में कोई भी जल्दबाजी नुकसानदेह होगी। उसे एक प्रक्रिया के तौर पर ही देखा जा सकता है – जिसके अन्तर्गत लोगों, संगठनों को अपने सामने खड़ी चुनौतियों/खतरों को लेकर अधिक स्पष्टता हासिल करनी होगी, हमारी तरफ से क्या गलति हुई है उसका आत्मपरीक्षण करने के लिए तैयार होना होगा और फिर साझी कार्रवाइयों/समन्वय की दिशा में बढ़ना होगा। कुछ ऐसे सवाल भी है जिन्हें लेकर स्पष्टता हासिल करना बेहद जरूरी है:
- हम भारत में हिन्दुत्व के विकास को किस तरह देखते हैं ?
हिन्दुत्व के विचार और सियासत को आम तौर पर धार्मिक कल्पितों ;तमसपहपवने पउंहपदंतपमेद्ध केे रूप में प्रस्तुत किया जाता है, समझा जाता है। (एक छोटा स्पष्टीकरण यहां हिन्दुत्व शब्द को लेकर आवश्यक है। यहां हमारे लिए हिन्दुत्व का अर्थ हिन्दु धर्म से नहीं है, पोलिटिकल हिन्दुइजम अर्थात हिन्दु धर्म के नाम से संचालित राजनीतिक परियोजना से है। सावरकर अपनी चर्चित किताब ‘हिन्दुत्व’ में खुद इस बात को रेखांकित करते हैं कि उनके लिए हिन्दुत्व के क्या मायने हैं।)
उसके हिमायतियों के लिए वह ‘हिन्दू राष्ट्र’ – जो उनके मुताबिक बेहद पहले से अस्तित्व में है – के खिलाफ विभिन्न छटाओं के ‘आक्रमणकर्ताओं’ द्वारा अंजाम दी गयी ‘ऐतिहासिक गलतियों’ को ठीक करने का एकमात्र रास्ता है। यह बताना जरूरी नहीं कि किस तरह मिथक एवं इतिहास का यह विचित्र घोल जिसे भोले-भाले अनुयायियों के सामने परोसा जाता है, हमारे सामने बेहद खतरनाक प्रभावों के साथ उद्घाटित होता है।
इस असमावेशी विचार का प्रतिकारक, उसकी कार्रवाइयों को औचित्य प्रदान करते ‘हम’ और ‘वे’ के तर्क को खारिज करता है, धर्म के आधार पर लोगों के बीच लगातार विवाद से इन्कार करता है, साझी विरासत के उभार एवं कई मिलीजुली परम्पराओं के फलने फूलने की बात करता है। इसमें कोई अचरज नहीं जान पड़ता कि धार्मिक कल्पितों के रूप में प्रस्तुत इस विचार के अन्तर्गत साम्प्रदायिक विवादों का विस्फोटक प्रगटीकरण यहां समुदाय के ‘चन्द बुरे लोगों’ की हरकतों के नतीजे के तौर पर पेश होता है, जिन्हें हटा देना है या जिनके प्रभाव को न्यूनतम करना है। इस समझदारी की तार्किक परिणति यही है कि धर्मनिरपेक्षता को यहां जिस तरह राज्य के कामकाज में आचरण में लाया जाता है, वह सर्वधर्मसमभाव के इर्दगिर्द घूमती दिखती है। राज्य और समाज के संचालन से धर्म के अलगाव के तौर पर इसे देखा ही नहीं जाता।
इस तथ्य को मद्देनज़र रखते हुए कि विगत लगभग ढाई दशक से हिन्दुत्व की सियासत उठान पर है – निश्चित ही इस दौरान कहीं अस्थायी हारों का भी उसे सामना करना पड़ा है – और उसके लिए स्टैण्डर्ड/स्थापित प्रतिक्रिया अब प्रभाव खोती जा रही है और उससे निपटने के लिए बन रही रणनीतियां अपने अपील एवं प्रभाव को खो रही हैं, अब वक्त़ आ गया है कि हम इस परिघटना को अधिक सूक्ष्म तरीके से देखें। अब वक्त़ है कि हम स्टैण्डर्ड प्रश्नों से और उनके प्रिय जवाबों से तौबा करें और ऐसे दायरे की तरफ बढ़े जिसकी अधिक पड़ताल नहीं हुई हो। शायद अब वक्त़ है कि उन सवालों को उछालने का जिन्हें कभी उठाया नहीं गया या जिनकी तरफ कभी ध्यान भी नहीं गया।
क्या यह कहना मुनासिब होगा कि हिन्दुत्व का अर्थ है भारतीय समाज में वर्चस्व कायम करती और उसका समरूपीकरण करती ब्राह्मणवादी परियोजना का विस्तार, जिसे एक तरह से शूद्रों और अतिशूद्रों में उठे आलोडनों के खिलाफ ब्राह्मणवादी/मनुवादी प्रतिक्रान्ति भी कहा जा सकता है। याद रहे औपनिवेशिक शासन द्वारा अपने शासन की स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए जिस किस्म की नीतियां अपनायी गयी थीं – उदाहरण के लिए शिक्षा के दरवाजे शूद्रों-अतिशूद्रों के लिए खोल देना या कानून के सामने सभी को समान दर्जा आदि – के चलते तथा तमाम सामाजिक क्रान्तिकारियों ने जिन आन्दोलनों की अगुआई की थी, उनके चलते सदियों से चले आ रहे सामाजिक बन्धनों में ढील पड़ने की सम्भावना बनी थी।
आखिर हम हिन्दुत्व के विश्वदृष्टिकोण उभार को मनुवाद के खिलाफ सावित्रीबाई एवं जोतिबा फुले तथा इस आन्दोलन के अन्य महारथियों – सत्यशोधक समाज से लगायत सेल्फ रिस्पेक्ट मूवमेण्ट या इंडिपेण्डट लेबर पार्टी तथा रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया, या जयोति थास, अछूतानन्द, मंगू राम, अम्बेडकर जैसे सामाजिक विद्रोहियों की कोशिशों के साथ किस तरह जोड़ सकते हैं ?
इस सन्दर्भ में यह प्रश्न उठना भी लाजिमी है कि पश्चिमी भारत का वर्तमान महाराष्ट्र का इलाका – जो उन दिनों सूबा बम्बई में शामिल था- जहां अल्पसंख्यकों की आबादी कभी दस फीसदी से आगे नहीं जा सकी है और जहां वह कभी राजनीतिक तौर पर वर्चस्व में नहीं रहे हैं आखिर ऐसे इलाके में किस तरह रूपान्तरित हुआ जहां हम तमाम अग्रणी हिन्दुत्व विचारकों – सावरकर, हेडगेवार और गोलवलकर – के और उनके संगठनों के उभार को देखते हैं, जिन्हें व्यापक वैधता भी हासिल है।
इस प्रश्न का सन्तोषजनक जवाब तभी मिल सकता है जब हम हिन्दुत्व के उभार को लेकर प्रचलित तमाम धारणाओं पर नए सिरेसे निगाह डालें और उन पर पुनर्विचार करने के लिए तैयार हों। दूसरे शब्दों में कहें तो हमें (बकौल दिलीप मेनन) ‘जाति, धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता के बीच के अन्तरंग सम्बन्धों की पड़ताल करने के प्रति जो आम अनिच्छा दिखती है’ (पेज 2, द ब्लाइंडनेस आफ साइट, नवयान 2006) उसे सम्बोधित करना होगा। वे लिखते हैं:
हिन्दुधर्म की आन्तरिक हिंसा काफी हद तक मुसलमानों के खिलाफ निर्देशित बाहरी हिंसा को स्पष्ट करती है जब हम मानते हैं कि ऐतिहासिक तौर पर वह पहले घटित हुई है। सवाल यह उठना चाहिए: आन्तरिक अन्य अर्थात दलित के खिलाफ केन्द्रित हिंसा किस तरह (जो अन्तर्निहित असमानता के सन्दर्भ में ही मूलतः परिभाषित होती है) कुछ विशिष्ट मुक़ामों पर बाहरी अन्य अर्थात मुस्लिम के खिलाफ आक्रमण ( जो अन्तर्निहित भिन्नता के तौर पर परिभाषित होती है) में रूपान्तरित होती है ? क्या साम्प्रदायिकता भारतीय समाज में व्याप्त हिंसा और असमानता के केन्द्रीय मुद्दे का विस्थापन/विचलन (डिफ्लेक्शन) है ? (वही)
...... जारी
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पेड़ खामोश होना चाहते हैं मगर हवाएं हैं कि रूकती नहीं हैं......
नवउदारवाद और साम्प्रदायिकता के सहजीवी रिश्ते (symbiotic relationship)
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