हिन्दू फासीवादी आंदोलन और मीडिया
हिन्दू फासीवादी आंदोलन और मीडिया
यह एक मिथक है कि मीडिया लोकतंत्र का चौथा खम्भा है
सेमिनार पत्र
कुछ समय पूर्व भारतीय अखबारों और खासकर इंटरनेट में एक तस्वीर सामने आयी थी। इस तस्वीर को एक पत्रकार ने एक शीर्षक दिया ‘‘प्रधानमंत्री की पीठ पर किसका हाथ?’’ तस्वीर में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत के सबसे बड़े पूंजीपति मुकेश अंबानी की पत्नी का अभिवादन कर रहे थे और उनकी पीठ पर मुकेश अंबानी ने बड़े स्नेह और अधिकार से अपना हाथ रखा हुआ था। तस्वीर दिलचस्प होने से अधिक उस संबंध को जाहिर कर रही थी, जो भारत के प्रधानमंत्री और भारत के सबसे बड़े एकाधिकारी घराने के प्रमुख के बीच कायम है।
यह तस्वीर बतलाती है कि हाल के कुछ दशकों और उसमें भी खासकर हालिया लोकसभा चुनाव के कुछ समय पहले से भारत के एकाधिकारी घरानों का उस पार्टी (या उसके मातृ संगठन) से क्या रिश्ता कायम हुआ है, जो इस वक्त भारत की सत्ता में प्रचंड बहुमत से काबिज है।
पिछली सदी के आठवें-नवें दशक के पहले भारत के एकाधिकारी घरानों का रुख इस पार्टी या संगठन के प्रति ऐसा नहीं था। उपेक्षा, संशय और बाज दफा तिरस्कार का भाव मौजूद था। नब्बे के दशक में जाकर ही उसके एक बड़े हिस्से ने यह रुख अपनाया कि ‘चलो एक बार इन्हें भी अजमाया जाय’। और हालिया लोकसभा चुनाव में वह इसे आजमाने के अलावा किसी और को आजमाना ही नहीं चाहता था। फलतः नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं और जिस संगठन के वे स्वयंसेवक हैं वह अपने इतिहास में सबसे मजबूत और ताकतवर स्थिति में है।
भारत की एकाधिकारी पूंजी समग्र भारतीय पूंजी की सिरमौर है और वही भारत की सत्ता को मूलतः संचालित और निर्देशित करती है। एकाधिकारी पूंजी ने पिछले चुनाव में हिन्दू फासीवाद अधिक वैज्ञानिक शब्दों में हिन्दू फासीवादी आंदोलन से जो गठजोड़ कायम किया, उसे जो प्रश्य दिया उसके परिणाम आज हमारे सामने हैं।
हिन्दू फासीवादी आंदोलन और एकाधिकारी पूंजी का अभी गठजोड़ ही कायम हुआ है, अभी वे एकाकार नहीं हुए हैं। जिस दिन वे एकाकार हो जायेंगे उस दिन भारत में हिन्दू फासीवादी सत्ता कायम हो जायेगी। और यह सत्ता एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग की ऐसी नग्न तानाशाही होगी जिसका संचालन हिन्दू फासिस्ट कर रहे होंगे। पूरे देश में बर्बरता का राज होगा।
अभी जो स्थिति है उसमें मोदी सरकार हिन्दू फासीवादी आंदोलन और एकाधिकारी पूंजी दोनों के हितों को एक साथ साध रही है। एकाधिकारी पूंजी के हितों के अनुरूप तेजी से आर्थिक व श्रम सुधार और हिन्दू फासीवादी आंदोलन को अपनी कार्यसूची लागू करने के लिए पूर्ण अवसर प्रदान करना।
मोदी सरकार के दोनों से क्या रिश्ते हैं यह सितंबर माह में हुई दो मीटिंगों से भी जाहिर हुये हैं। पहली मीटिंग जो तीन दिन चली पूरी मोदी सरकार संघ के सामने नतमस्तक थी। संघी नेता दंभपूर्वक मंत्रियों से उनके कामकाज का ब्यौरा लेते और वे उन्हें आगे कैसे काम करना है इसका निर्देश देते रहे। दूसरी मीटिंग देश के प्रधानमंत्री ने स्वयं अपने आवास पर बुलायी। इस बैठक में देश के प्रमुख पूंजीपति अंबानी से लेकर मित्तल तक शामिल थे। प्रधानमंत्री व पूंजीपतियों की बैठक का एजेंडा आर्थिक सुधार व गहराता आर्थिक संकट था। मोदी सरकार देश की जनता या संसद के प्रति नहीं एकाधिकारी घरानों और संघ के प्रति जवाबदेह है।
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एकाधिकारी पूंजी, संघ और सरकार के रिश्तों की ढेरों मिसालें पेश की जा सकती हैं। ये संबंध गुप्त नहीं हैं, बेहद खुले हैं और वीभत्स हैं, जुगुप्सा जगाते है और ये जुगुप्सा तब और जगाते हैं जब कोई लोकतंत्र का हवाला देता है।
देश में जब ऐसे हालात हों तो कोई सवाल पूछ सकता है कि देश की मीडिया ऐसे में क्या करता है? और वह क्या भूमिका निभाता है?
आम प्रचलित धारणा और उससे भी अधिक आदर्शों के अनुसार मीडिया को निष्पक्ष होना चाहिए। सत्य को स्थापित करना उसका मिशन होना चाहिए। आधुनिक मूल्यों जिसमें जनवाद, धर्मनिरपेक्षता, वैज्ञानिकता आदि, आदि का समावेश हो उस पर उसे खड़ा होना चाहिए।
यह एक मिथक है कि मीडिया लोकतंत्र का चौथा खम्भा है। असल में वह एक औजार है जिसके जरिये सत्ताधारी वर्ग अपने हितों, मूल्यों, संस्कृति का प्रचार-प्रसार करता है। लोकमत का निर्माण व निदेशित करता है। और इस तरह अपनी सत्ता बनाके रखता है जैसे समाज में ताकत, वर्चस्व, हैसियत पूंजी से तय होती है वैसे ही मीडिया में उसी का उतना ही जोर चलता है जितना कि पूंजी का मालिक वह होता है।
भारत में सम्पूर्ण मीडिया को उसके संचालन में लगी विभिन्न मात्रा की पूंजियों के आधार पर इस प्रकार बांटा जा सकता है।
1 एकाधिकारी पूंजी
2 गैर एकाधिकारी और क्षेत्रीय पूंजी
3 छोटी व स्थानीय पूंजी
4 बेहद अल्प पूंजी मूलतः समूहों, संगठनों या व्यक्तियों से संचालित
भारत के मीडिया के सभी तरह के हिस्सों यथा प्रिंट (अखबार, पत्रिकाएं, पुस्तकें) टेलीविजन, इंटरनेट, सिनेमा आदि में भारत के एकाधिकारी पूंजी का वर्चस्व कायम है। मुकेश अंबानी, अनिल अंबानी, जैन, चंद्रा, बिडला एकाधिकारी घरानों द्वारा भारत के सभी प्रमुख राष्ट्रीय, क्षेत्रीय अखबार, पत्रिकाएं, टेलीविजन चैनल और इंटरनेट में प्रकाशित समाचार, विचार आदि को संचालित किया जाता है। इसी कोटि में केन्द्र सरकार द्वारा संचालित मीडिया को भी रखा जा सकता है।
गैर एकाधिकारी पूंजी व क्षेत्रीय पूंजी, जो एकाधिकारी पूंजी से काफी छोटी है, का इसके बाद दबदबा है। ये भी अखबार, पत्रिकाएं, चैनल आदि-आदि चीजों को संचालित करते हैं।
जिलों, शहरों, कस्बों आदि में सीमित अखबार, पत्रिकाएं, चैनल छोटी व स्थानीय पूंजी द्वारा संचालित होते हैं। ये कामयाबी-नाकामयाबी के बीच में झूलते रहते हैं। सरकारी विज्ञापनों से लेकर सस्ती स्थानीय खबरों व मनोरंजन के आधार पर इनका धंधा चलता और बंद होता रहता है।
बेहद अल्प संसाधनों में कुछ व्यक्तियों या छोटे राजनैतिक समूह, संगठनों (जिसमें खासतौर पर प्रगतिशील, जनवादी, वामपंथी व क्रांतिकारी शामिल हैं) द्वारा संचालित अखकार, पत्रिकाएं, पुस्तकों का एक बेहद बिखरा हुआ और बेहद कम प्रभाव व आधार वालों की एक अलग ही कोटि है। कुछ जुनून, कुछ वैचारिक राजनीतिक संकल्प, कुछ कार्यकर्ताओं और कुछ पाठकों के आधार पर चलने वाली यह कोटि किसी स्तर पर आम जनता की आवाज के वाहक हैं। उनकी मांगों, उनके संघर्षों, उनकी व्यथा को स्वर देते हैं और कम या ज्यादा अपनी क्षमताभर शासक वर्ग से लोहा लेते हैं।
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भारत का मीडिया क्योंकि एकीकृत, समांग नहीं है; क्योंकि इसमें अलग-अलग आकार व किस्म की पूंजी लगी हुयी है; क्योंकि अलग-अलग आकार की पूंजी अलग-अलग राजनैतिक पार्टियों से संबंधित है और उनके अलग-अलग हित बनते हैं इसलिए मीडिया में कोई एक राय बनना, एक तरह के सिद्धांत-मूल्यों से संचालित मान लेने से गलत निष्कर्ष निकल सकते हैं। परंतु यह तो लगभग निश्चित ही है कि सभी प्रकार के पूंजियों से संचालित मीडिया के ऊपर एकाधिकारी पूंजी का वर्चस्व है। वही एक तरह से समाज में समाचारों, विचारों, मूल्यों व संस्कृति का निर्धारण, संचालन व निर्देशन करती है। उसके बनाये नियम, उपनियम, मूल्य, कार्य संस्कृति पर शेष पूंजियों द्वारा संचालित मीडिया चलने को विवश है। उसकी वही दिशा ओर समान के सभी विषयों पर वहीं पहुंच (एप्रोज) बनना लाजिमी है। पिछले चंद दशकों खासकर 1991 के बाद से खासकर यही हो रहा है। देश की कार्यसूची एकाधिकारी पूंजी तय करती हैं। इस कार्यसूची में कुछ कम या ज्यादा सलाह या आपत्तियों के साथ अन्य पूंजियां चलती हैं। पूंजी के क्षेत्र में जो नियम-उपनियम तय होते हैं उसके अनुरूप राजनैतिक दल, समूह, समाज में मूलतः व्यवहार करते हैं। कुछ रगड़घिस्सी, अंतर्विरोध चलते रहते हैं परंतु कार्यसूची बदलती नहीं है।
मीडिया क्षेत्र में लगी अलग-अलग आकार की पूंजी के हित उसके आकार, प्रभाव, क्षमता आदि से क्योंकि तय हो रहे होते हैं अतः उनकी भाषा, विचार, पहुंच आदि सभी कुछ का निर्धारण यही कारक कर रहे होते हैं।
ये बातें इसलिए आवश्यक हैं क्योंकि इनके आधार पर ही हिन्दू फासीवादी आंदोलन और मीडिया के संबंधों को समझा जा सकता है।
हिन्दू फासीवादी आंदोलन और एकाधिकारी पूंजी का हालिया चुनाव से पहले जो गठजोड़ कायम हुआ उसी की अभिव्यक्ति भारत के एकाधिकारी पूंजी से संचालित मीडिया में भी हुई। इस गठजोड़ के अनुरूप ही मीडिया के इस सबसे शक्तिशाली और प्रभावकारी हिस्से ने वह सब कुछ किया जो भारत की एकाधिकारी पूंजी चाहती थी। उसके चयन, उसके हित और योजनाओं को एकाधिकारी पूंजी से संचालित मीडिया ने युग का सत्य व कार्यभार बना दिया। नरेंद्र मोदी जिसे छोटी अंबानी ने राजाओं के राजा का संबोधन चुनाव पूर्व दिया था, इस चुनाव में उसे गुजरात नरसंहार के पापों से मुक्तकर मिथकीय, दैवीय स्वरूप प्रदान कर दिया गया। ‘‘नमोःनमोः’’, ‘‘हर-हर मोदी’’ जैसे पौराणिक दैवीय शक्तियों के समक्ष रखते हुए नारे गढ़े गये। एकाधिकारी घरानों के लगभग तीन-चौथाई ने मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए सब कुछ किया। 20 हजार से 30 हजार हजार करोड़ रुपये उनके चुनाव में खर्च कर दिये जाने का अनुमान है, जो एक तरह से मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए एकाधिकारी घरानों का पूंजी निवेश था। अब वे इसके ‘रिटर्न’ को पाने के लिए आस लगाये हुए हैं। गहराते आर्थिक संकट ने इस रिटर्न को मुश्किल बना दिया है और बेचारे मोदी बहुत कूदा-फांदी के बाद भी अभी तक कुछ न कर सके हैं।
एकाधिकारी पूंजी के वरदहस्त के साथ जमीनी स्तर पर मेहनत हिन्दू फासीवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने की। 2011 से ही पूरे देश में घोर हिन्दू सांप्रदायिक माहौल बनाया गया। इन वर्षों में देश के हर छोटे-बड़े शहर में हजारों की संख्या में दंगे प्रायोजित करवाये गये। एकाधिकारी पूंजी से संचालित मीडिया के एक बड़े हिस्से ने देश में सांप्रदायिक माहौल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बस उसने इस काम को बहुत सूक्ष्म और पेशेवर ढंग से अंजाम दिया। उसने हिन्दू फासीवादी आंदोलन के नेताओं को अपना मंच उपलब्ध कराया और पूर्ण कवरेज दिया। और यह प्रक्रिया अभी भी जारी है। हिन्दू फासीवादी आंदोलन के विरोध या आलोचना के खबरों का इस्तेमाल इतनी सफाई व कुशलता से किया गया कि अक्सर ही उसका परिणाम हिन्दू फासीवादी आंदोलन के प्रभाव के और विस्तार के रूप में ही हुआ।
गैर एकाधिकारी और क्षेत्रीय पूंजी से संचालित मीडिया ने अखिल भारतीय स्तर पर कुछ इलाकों (दक्षिण व पूर्वी भारत) को छोड़कर वही गति और दिशा पकड़ी जो एकाधिकारी पूंजी की थी। एकाधिकारी पूंजी की रीति-नीति का अनुसरण करने को बाध्य यह पूंजी इससे इतर कुछ और खास नहीं कर सकती थी। और फिर हिन्दू फासीवादी आंदोलन ने मध्य व पश्चिमी भारत में लम्बे समय से अपनी पकड़ पहले से ही बना रखी थी। गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में एक दशक से अधिक समय से लगातार भाजपा की सरकार रही है। राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार में एकाधिकारी पूंजी व हिन्दू फासीवादी आंदोलन की पुकार व सोशल इंजीनियरिंग की सफलता को सुनिश्चित करने में गैर एकाधिकारी पूंजी से संचालित मीडिया का कम बड़ा योगदान नहीं था।
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स्थानीय व छोटी पूंजी से संचालित मीडिया में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कई दशकों से परंपरागत प्रभाव रहा है। हिन्दू सवर्ण खासकर बनिये संघ को पुराने समय से पीढ़ी दर पीढ़ी कैडर उपलब्ध कराते रहे हैं। हिन्दू सवर्ण मध्यम वर्ग ने एकाधिकारी पूंजी के स्वर में स्वर मिलाने के लिए आधुनिक संचार उपकरणों इंटरनेट, फेसबुक, ट्वीटर, व्हाटसएप आदि का खूब इस्तेमाल किया। एक तरह से इन उपकरणों में हिन्दू फासीवादी आंदोलन का ही वर्चस्व हाल के वर्षों में पूरी तरह से कायम है। सांप्रदायिक दंगे भड़काने के लिए भी संघ के कार्यकर्ताओं व समर्थकों ने इन उपकरणों का खूब इस्तेमाल किया।
विदेशों में बसे भारतीय प्रवासियों की दो कोटियों अमीर अरबपतियों व मध्यम वर्ग (जिसमें भारी संख्या में पेशेवर व तकनीशियन शामिल हैं) के लोगों ने भारत के एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग की चाहत को अपनी चाहत बना लिया। वैसे भी हिन्दू फासीवादी आंदोलन ने हाल के वर्षों में इनके बीच अपनी अच्छी पकड़ बनायी है। इन लोगों ने खुले हाथ से न केवल इस आंदोलन को धन उपलब्ध कराया बल्कि वे पूर्णकालिक से लेकर अल्पकालिक स्वयंसेवक तक बन गये। आधुनिक संचार उपकरणों को इन लोगों खासकर पेशेवर मध्यम वर्ग के लोगों ने हिन्दू फासीवादी आंदोलन का भौंपू बना दिया।
हिन्दू फासीवादी आंदोलन अपने इतिहास के अब तक के सबसे स्वर्णिम युग में है। केन्द्र में उसकी पूर्ण बहुमत की सरकार है। मोदी सरकार के सामने वाजपेयी के ‘भानुमति के कुनबे’ वाली सरकार की तरह दबाव नहीं है। मोदी के कुनबे में जो आकर जुड़ा है वह उसकी ही ज्यादा मजबूरी है।
हिन्दू फासीवादी आंदोलन का व्यापक सामाजिक आधार है।
भाजपा के हालिया दावे के अनुसार वह दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी है। संघ की मजदूर शाखा भारत का सबसे बड़ा मजदूर संगठन है। सबसे अधिक संख्या वाला उसका छात्र संगठन है। ढेरों राज्यों में भाजपा की सरकार है और कई राज्यों में उसके नेतृत्व में गठबंधन की सरकार है।
एकाधिकारी पूंजी के साथ गठजोड़ और केन्द्रीय सत्ता में उसके कब्जे ने उसे बेहद सशक्त स्थिति में पहुंचा दिया है। उसने देश की हर संख्या को अपने भगवा रंग में रंग देने का अभियान छेड़ा हुआ है। इस अभियान में उसे काफी हद तक सफलता भी मिली है।
वाजपेयी सरकार के जमाने में केन्द्रीय गुप्तचर ब्यूरो (आई.बी.) को इस हद तक संघ ने अपने रंग में रंग दिया था कि सालों तक उसके अनुषंगी संगठनों द्वारा की गयी आतंकी कार्यवाहियों का खुलासा नहीं हो पाया। हिन्दू सांप्रदायिक भावनाओं से ओत-प्रोत मीडिया ने उसी धुन में नृत्य किया जिस धुन को हिन्दू फासीवादी आंदोलन के हेडक्वार्टर नागपुर में तैयार किया था। मक्का-मस्जिद, माले गांव, समझौता एक्सप्रेस जैसे बहुचर्चित मामलों के अलावा दर्जनों आतंकी हमलों में इस फासीवादी आंदोलन के कार्यकर्ताओं और समर्थकों का हाथ था परंतु गुप्तचर ब्यूरो में बैठे संघी मानसिकता के अधिकारियों व सुरक्षा बलों के षड्यंत्र के फलस्वरूप सैंकड़ों निर्दोष मुस्लिम युवक जेल में ठूंस दिये गये। असली अपराधी खुलेआम घूमते रहे, नयी योजनाएं बनाते रहे।
मोदी सरकार के गठन के बाद आज स्थिति यह है कि हिन्दू फासीवादी आंदोलन के हेडक्वार्टर की सुरक्षा भारत का केन्द्रीय अर्द्धसैनिक बल, केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सीआईएसएफ) कर रही है। संघ प्रमुख अनौपचारिक तौर पर राष्ट्र प्रमुख का दर्जा हासिल कर चुके


