हिमालय पर्वत माला और तराई क्षेत्र को बचाओ
हिमालय पर्वत माला और तराई क्षेत्र को बचाओ
नई दिल्ली। दिल्ली में 23-24 सितंबर को पर्यावरण समस्या से सरोकार रखने वाले वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों, अर्थशास्त्रियों, सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ताओं से समस्या पर गहराई से विचार-विमर्श करने के लिए दो दिवसीय विचार-विमर्श सत्र आयोजित किया जा रहा है।
आयोजकों सौम्या दत्ता व के.एन. रामचंद्रन ने कहा कि जून 2013 की उत्तराखण्ड त्रासदी पर विश्व बैंक, ए.डी.बी. और दूसरी एजेंसियों ने अपने अध्ययन में सूचित किया कि हजारों लोगों की मृत्यु, लगभग 6000 लापता लोग जो मृतक में शामिल हैं क्योंकि उन्हें कभी ढूँढा नहीं जा सका, 4200 प्रभावित गाँव, 3200 पूरी तरह तबाह घर, पुनर्निर्माण के लिए 3964 करोड़ रुपए की ऊँची कीमत (जो बहुत कम करके आँकी गयी है) इस त्रासदी के भयावह परिणाम हैं। लेकिन एक साल गुजरने के बाद भी राहत कार्य न के बराबर है। पुनर्वास और पुनर्निर्माण की स्थिति आज भी बहुत खराब है। अनेक संगठनों ने इस साल हालात का जायजा लेकर सूचित किया कि प्रभावित लोग आज भी बहुत बुरी स्थिति में हैं। ज़्यादातर सड़कें अभी भी क्षतिग्रस्त हैं और पहाड़ी इलाके रोजमर्रा की बारिश में कटाव के चलते खतरनाक बन गये हैं। पिछले तीन-चार दशकों में चिपकों आंदोलन की शुरुआत से लेकर कई आंदोलन हो चुके हैं। ये आंदोलन राज्य के विकास के नाम पर जारी भारी तादाद में जंगलों के कटान, खड़ी पहाड़ी पर सड़कों का बेहिसाब निर्माण, बड़ी बिजली परियोजनाओं के लिए पहाड़ों में विस्फोट करके सुरंग निर्माण, हर साल इस क्षेत्र में आने वाले लगभग तीन करोड़ पर्यटकों के झुंड के लिए ढेर सारे व्यावसायिक भवनों के निर्माण के विरोध में गंभीर चेतावनियाँ हैं। जबकि ये विध्वंसक विकास नवउदारवादी नीतियों के आने के बाद और तेज हो गये हैं। विशाल हिमालय, तराई क्षेत्र और जम्मू काश्मीर से लेकर उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तरी बंगाल, असम और अरुणाञ्चल तक हफ्तों में नियमित बाढ़ों के द्वारा बहुत बड़े क्षेत्र का विनाश, विशाल भूस्खलन, गांवों का विध्वंस आदि बड़े स्तर पर ज़िंदगियों की तबाही और हर साल बहुत अधिक संपत्ति के विनाश का कारण बने हुए हैं। वैश्विक स्तर पर ‘जलवायु परिवर्तन’ ने इसे और अधिक बिगाड़ दिया है। इन सबसे निश्चिंत भारत, नेपाल, भूटान और बांग्ला देश की एक के बाद एक आने वाली सरकारें अपनी ‘विकास की नीतियों’ के पारिस्थितिकीय पहलू को ध्यान में रखे बिना कमजोर हिमालय क्षेत्र में विनाश को निमंत्रण दे रही हैं। इन मामलों में प्रगतिशील ताकतों को गंभीर हस्तक्षेप करने की जरूरत है।
दोनों आयोजकों ने कहा कि 16वीं लोकसभा चुनावों के दौरान बाढ़ और भूस्खलन से हर साल उजड़ने वाले इस क्षेत्र के चिन्तित लोगों द्वारा उठाए गये सवालों में एक यह था कि उन्हें इन संकटों से कौन बचाएगा और इसके लिए ये ताक़तें क्या उपाय करेंगी? मुख्य धारा की किसी भी राजनीतिक पार्टी ने जिसमें वे भी शामिल हैं जो गंगा की सफाई पर बयान जारी करती हैं, बेहतर राहत कार्यों से परे कोई समाधान देने का वादा नहीं किया। लेकिन हिमालय और तराई क्षेत्र में विकास की एकांगी नीतियों के चलते पारिस्थितिकीय विनाश के परिणाम इतने गंभीर हैं कि कभी पूरे न होने वाले मात्र बचाव के खोखले वादों, जिसका उत्तराखंड गवाह है, के बजाय पूरे क्षेत्र में समझदारीपूर्ण बड़े स्तर के अध्ययन और मूलभूत उपचारात्मक कामों की तत्काल जरूरत है। अनेक स्वतंत्र एजेंसियों, एन.जी.ओ. आदि द्वारा किए गये अध्ययन दिखते हैं कि परिस्थितिकीय विनाश के चलते पैदा हुई समस्याएँ बेहद गंभीर हैं। भूविज्ञानियों ने चेतावनी दी है कि उत्तराखंड की हजारों मेगावाट बिजली उत्पादन की योजना इस क्षेत्र के कमजोर पारिस्थितिकीय और भूकम्प की अनुकूलता को अनदेखा करती है। 2013 की विनाशकारी बाढ़ इन महात्वाकांक्षी ‘विकास परियोजनाओं’ से बिगड़ गयी थी। लेकिन हिमालय की पर्वत मालाओं के कमजोर और विकास करने की प्रकृति को ध्यान में रखे बिना राज्य अभी भी और अधिक बिजली परियोजना और बिल्डिंग और सड़क निर्माण की योजनाओं की ओर आगे बढ़ रहा है। दूसरे क्षेत्रों में भी यही हो रहा है, यह उन सरकारों द्वारा भी किया जा रहा है जो इन विभीषिकाओं के बारे में ज्यादा मुखर हैं और इनसे ज्यादा सरोकार रखती हैं। इस संदर्भ में हमें याद रखना चाहिए कि बाढ़ हर साल उत्तर भारतीय राज्यों जैसे बिहार, बंगाल, असम, नेपाल और बांग्ला देश के तराई क्षेत्र में दक्षिण की ओर बहने वाली कई नदियों की घाटियों में तबाही मचाती हैं और हिमालय क्षेत्र में भूस्खलन के कारण विनाशलीला बहुत विशाल होती है। वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों, इलाके के प्रभावित लोगों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को शामिल करके इस सवाल को समग्रता में उठाने की जरूरत है। पिछले साल उत्तराखंड बाढ़ के बाद किए गए ताजा राहत और पुनर्वास कार्य से पता चलता है कि केंद्र और राज्य सरकारें और उनके द्वारा पोषित एन.जी.ओ. ने इस समस्या की जड़ में जाने और इसका सामना करने के लिए समग्र प्रस्ताव लाने में रुचि नहीं लिया।
इस सवाल पर सरकारी और गैर सरकारी एजेंसियों, विश्वविद्यालयों और आई.आई.टी. द्वारा और व्यक्तिगत स्तर पर कई अध्ययन किए गए। लेकिन इन मामलों में पश्चिमी घाटों पर प्रोफेसर गाडगिल की रिपोर्ट की तरह एक ऐसे व्यापक अध्ययन की कमी है जो समस्या का पूरा परिप्रेक्ष्य बताए, हिमालय और तराई क्षेत्र की सुरक्षा के कामों को दिशा दे, लोगों के हितों की रक्षा करे और यह भी बताए कि कैसे मानवकेन्द्रित तरीके से पहाड़ों के उचित स्थायी विकास को संचालित किया जाये। इन संवेदनशील क्षेत्रों में यह सवाल नयी बिजली परियोजनाएं और दूसरे विनाशकारी विकास कार्य शुरू करने के लिए नये प्रधानमंत्री की भूटान और नेपाल यात्रा के संदर्भ में और महत्त्वपूर्ण हो गया है। क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों का जनोन्मुख विकास के मानकों के हिसाब से किस स्तर और किस्म की बिजली परियोजनाएं ली जानी चाहिए और कैसे जल और नदी का संरक्षण किया जाये आदि के गम्भीर अध्ययन की जरूरत है। समस्या से सरोकार रखने वाले वैज्ञानिकों के समूह, पारिस्थितिकीविदों और सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ताओं द्वारा इस क्षेत्र की समस्याओं के समाधान के लिए एक बड़े स्तर के परिप्रेक्ष्य तक पहुँचने की दिशा में गम्भीर विचार-विमर्श की एक पूरी प्रक्रिया की जरूरत है।
कई अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन उपलब्ध हैं जो इस बारे में जीवंत तस्वीर मुहैया कराते हैं कि विकसित और विकासशील देशों में कारपोरेट शासन की ऐसी नीतियों का अनुसरण किया जा रहा है जिसके तहत पर्यावरण के विरुद्ध शत्रुतापूर्ण विस्तार के साथ अत्यधिक धन की लालसा में निर्बाध लूट जारी है जो वैश्विक स्तर पर ‘ग्लोबल वार्मिंग’ और ‘जलवायु परिवर्तन’ के लिए जिम्मेदार हैं। ये बदलाव हिमालय में समस्या को और बिगाड़ रहे हैं, विशेष रूप से जब उत्तराखंड और आस-पास के इलाके में भारी-भरकम तथाकथित विकास परियोजनाएं संचालित की जा रही हैं। हिमालय के ग्लेशियरों का पिघलना और इनका परिणाम एक ऐसी ही समस्या है जो इन परियोजनाओं से पैदा होती हैं। यह बताया गया कि ग्लेशियरों के पिघलने से हिमाचल प्रदेश की पहाड़ियों में छोटी झीलें बन रही हैं जिसने घाटी में रहने वाली जनता पर संकट थोप दिया है। दूसरा अध्ययन बताता है कि जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय से निकलने वाली एशिया की पाँच बड़ी नदियों में कम से कम 2050 तक जल स्तर बढ़ जाएगा। ऐसी स्थिति में मौजूदा नवउदारवादी विकास के परिप्रेक्ष्य को सरसरी तौर पर खारिज करने और इसे मानवकेन्द्रित विकास के मानक से बदलने के लिए तत्काल उपायों की जरूरत है। इन समस्याओं के बारे में एक व्यापक अध्ययन की अत्यधिक आवश्यकता है।
सौम्या दत्ता व के.एन. रामचंद्रन ने कहा कि इसी परिप्रेक्ष्य के साथ हम समस्या से सरोकार रखने वाले सभी वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों, सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ताओं और समूहों से अपील है कि वे दिल्ली में 23-24 सितंबर को समस्या पर गहराई से विचार-विमर्श करने के लिए दो दिवसीय विचार-विमर्श सत्र में भागीदारी करें। बढ़ते जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में हिमालय और तराई क्षेत्र द्वारा सामना की जाने वाली चुनौतियों के व्यापक विश्लेषण की तैयारी को उन्नत करने के लिए सहयोग दें और पर्यावरण हितैषी मानवकेन्द्रित विकास के मानक को पेश करने के लिए इस कार्यक्रम में शामिल हों। सभा स्थल के बारे में बाद में सूचित किया जाएगा। उन्होंने बताया कि जो सामाजिक कार्यकर्ता इस सत्र में शिरकत करने के इच्छुक हैं वे [email protected] ईमेल पर तुरंत जवाब दें।
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