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हिंदुत्व राजनीति के अलावा एक सामंती स्थाई बंदोबस्त है, जो नस्ली घृणा का शुद्धतावाद है और समानता और न्याय के विरुद्ध है
मैं साहित्य और संस्कृति को तभी जनपक्षधर मानूंगा जब वे सामाजिक यथार्थ, समता और न्याय की कसौटियों पर खरा उतरे। पितृसत्ता के सवर्ण वर्चस्ववाद के तहत लिखे साहित्य को मैं संघ की विचारधारा की तरह प्रतिगामी और प्रतिक्रियावादी मानता रहूंगा…
कृषि संकट भारतीय अर्थव्यवस्था का असल संकट है। जो सामाजिक और सांस्कृतिक संकट भी है। इसके विविध आयामों पर साहित्य और कला माध्यमों में क्या रचा जा रहा है, इसकी जांच पड़ताल अनिवार्य है।
मैं साहित्य और संस्कृति को व्याकरण, वर्तनी, भाषा, शैली, कला, दक्षता के नजरिये से नहीं देखता। इस लिहाज से तो हमारी लोकसंस्कृति और बोलियों की, अनार्य सभ्यताओं की सारी विरासत खारिज हो जाती है और इसी वजह से साहित्य और कला माध्यमों में बहुजनों का कोई चहरा नहीं है।
सत्ता की राजनीति अपहरण की निरंतरता है। हड़प्पा मोहनजोदड़ो से लेकर टोटेम तक का हिंदुत्वकरण हुआ है। अनार्यशिव देवादितेव हैं। काली चंडी है। इसका ताजा उदाहरण जाति उन्मूलन के सबसे बड़े प्रवक्ता बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर का संघ परिवार का विष्णु भगवान बन जाना है।
हम जनता की संस्कृति और परंपरा को बचा नहीं सकते तो वह बाजार और सत्ता की हो जायेगी। सत्ता हर किसी का मूल्यंकन अपने हितों के मुताबिक करती है। यही सत्ता की राजनीति है। हम सत्ता की राजनीति में शामिल होकर जनविरोधी संस्कृति और साहित्य के दक्ष कलाकारों और कारीगरों का महिमामंडन नहीं कर सकते, बल्कि उन पवित्र प्रतिमाओं को भंग करने की जरtरत है।
बंगाल के अकाल में जो इप्टा की राष्ट्रीय भूमिका बनी थी, जैसे सोमनाथ होड़ और चित्तप्रसाद ने अकाल को चित्रकला के मार्फत राष्ट्रीय मुद्दा बनाने में कामयाबी हासिल की थी। जैसे इप्टा से जुड़े संगीतकारों, गायकों और रंगकर्मियों ने आम जनता के हकहकूक की आवाज उठायी थी,हाल में सत्तर के दशक में समांतर सिनेमा में जिस तरह सामजाजिक यथार्थ के विविध आयाम, कृषि संकट, अस्पृश्यता, पितृसत्ता और सामंती तामझाम का बहुआयामी चित्रण किया था, 1991 के से लेकर मुक्तबाजारी हिंदुत्व के आलम में साहित्य और कला माध्यम में उसतरह का कुछ हुआ हो , तो उनको समाने लाने की जरुरत है।
अगर वैसा नहीं हुआ है तो माफियाई फर्जीवाड़ा की गिरोहबंदी के तहत हम जनपक्षधरता के छद्म और आयातित उपभोक्तावादी बाजारु साहित्यिक सांस्कृतिक प्रवृत्तियों को सिर्फ इस वजह से महिमामंडित नहीं कर सकते कि वे गोलवलकर और सावरकर से प्रेरित नहीं है।
हिंदुत्व की राजनीति के अलावा हिंदुत्व एक सामंती स्थाई बंदोबस्त है, जो नस्ली घृणा का शुद्धतावाद है और समानता और न्याय के विरुद्ध है।जीवन की स्वतंत्रता के विरुद्ध पितृसत्ता के इस दर्शन को महिमामंडित करके हम बहुसंख्य जनगण के पक्ष में रचनाधर्मिता की बात नहीं कर सकते।
मैं साहित्य और संस्कृति को तभी जनपक्षधर मानूंगा जब वे सामाजिक यथार्थ,समता और न्याय की कसौटियों पर खरा उतरे।पितृसत्ता के सवर्ण वर्चस्ववाद के तहत लिखे साहित्य को मैं संघ की विचारधारा की तरह प्रतिगामी और प्रतिक्रियावादी मानता रहूंगा।
मजदूर झा ने फेसबुक वाल पर लिखा हैः
वंदना राग की कहानी-: 'देवा रे देवा' अभी अभी पढने को मिला.
पिछले कुछेक वर्षों में स्त्री रचनाकारों की रचनात्मकता के केंद्र में स्त्री-समस्याओं से इत्तर अन्य विषयों पर रचनाएँ अधिक मात्रा में देखने को नहीं मिलती है. हालांकि ‘स्त्री-समस्याओं से इत्तर’ कहना भी एक सीमा के बाद जायज नहीं है बावजूद इसके यह कहा जा सकता है कि किसान-समस्या या मजदूरों की समस्या या राजनैतिक संकटों से सम्बंधित विषयों पर बहुत कम लिखा जा रहा है.
90 के दशक में यदि देखा जाए तो यह समस्या उस हद तक नहीं है. प्रभा खेतान की-‘तालाबंदी’, मैत्रेयी पुष्पा की कहानी- ‘जमीन अपनी’, मृणाल पांडे की कहानी- ‘हिर्दा मेयो का मंझला’, नमिता सिंह की- ‘जंगल गाथा’, प्रतिभा राय की कहानी-‘ट्रॉलीवाली’ जैसी मजबूत कहानियाँ हैं जो समाज के विविध आयामों को रेखांकित करती है. इस आधार पर देखा जाए तो हाल-फिलहाल में वंदना राग की कहानी – ‘देवा रे देवा’ इस रिक्तता को पूर्ण करती है.
‘देवा रे देवा’ पढ़ते वक्त किसान परिवार की त्रासदी का संवेदनात्मक चित्र जहन में उभरने लगता है. महाराष्ट्र के किसान-आत्महत्या तथा किसानी से जुड़ी समस्याएं किसान परिवार को किस स्तर तक खोखला कर देती है इसका सटीक वर्णन इस कहानी में देखा जा सकता है. इस कहानी की सबसे मजबूत कड़ी है- ‘किसान परिवार का उसकी वास्तविक संवेदनाओं के साथ उसका वर्णन’. जिस वक़्त सारा देश किसान समस्याओं पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ा महसूस कर रहा हो वह समय रचनात्मकता के केंद्र में भी इन विषयों के लिए आवश्यक हो जाता है. यह सिर्फ़ साहित्यिक हस्तक्षेप का ही समय नहीं हो जाता है बल्कि रचनाकारों के मूल्याङ्कन का भी एक जरुरी और अहम् भाग होता है इसलिए महिला रचनाकारों के लिए भी यह जरुरी हो जाता है कि इन गंभीर और जटिल विषयों को बहस के केंद्र में लाने में अपनी भूमिका तय करें.
‘देवा रे देवा’ कहानी इस भूमिका को मजबूती के साथ पेश करती है साथ ही कहानी की मजबूत बात यह है कि कहानी खत्म होकर भी खत्म नहीं होती. ऐसा लगता है जैसे गायब होते किसान की खोज कहानी से निकलकर पाठक की दुनिया में होने लगती है. यही वह मजबूत पक्ष है जो पाठक के सामने अनगिनत अनसुलझे प्रश्न करती है जहाँ से पाठक जनता बनने की प्रक्रिया में आगे बढ़ता है. इस कहानी की मेरे समझ में यही सार्थकता भी है.
फिलहाल इतना ही. (कहानी हिन्दी समय पर उपलब्ध है, आप सब जरुर पढ़ें).


