अंग्रेजों भारत छोड़ो और कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका (British Quit India Movement and Role of Communist Party) चंचलजी लिखते हैं : “विषयांतर है, उस पीढ़ी के लिए जो आजादी के बाद भारतीय राजनीति के इतिहास से अनभिज्ञ हैं। यह गलती उस पीढ़ी की नहीं है, इतिहासकारों की है, जिन्होंने 47 के बाद के इतिहास पर चुप्पी साध ली। इसका जो एक कारण था कि सारे इतिहासकार साम्यवादी थे और भारत की आजादी की लड़ाई में साम्यवादी और संघी दोनों ही अंग्रेजो के साथ थे और भारत विभाजन के पक्षधर भी।“

मैं अपनी बात उनके इस पर्यवेक्षण तक सीमित रखना चाहता हूं कि भारत की आजादी की लड़ाई में साम्यवादी और संघी दोनों ही अंग्रेजो के साथ थे।

चंचलजी को शायद पता होगा कि 1925 में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के बाद से यह पार्टी कांग्रेस के अंदर ही काम करती थी और भारत की पूर्ण आज़ादी की मांग कांग्रेस के अंदर कम्युनिस्टों ने तब उठाई थी, जब गांधीजी सहित कांग्रेस का नेतृत्व इसके लिये तैयार नहीं था।

क्या इसका मतलब यह निकाला जाया कि वे आज़ादी के खिलाफ़ थे ?

कतई नहीं। यह रणनीति के सवाल पर एक विवाद था। कम्युनिस्टों के इस स्पष्ट व प्रखर रुख़ की वजह से ब्रिटिश शासन का दमनचक्र उन पर ख़ास ताकत के साथ चलाया गया – कानपुर व मेरठ षडयंत्र केस इसके सिर्फ़ दो नमूने हैं। रणनीति के सवाल पर ही ऐसा एक विवाद 1942 में सामने आया।

द्वितीय विश्वयुद्ध (second World War) के बीचोबीच कांग्रेस कार्यसमिति ने भारत छोड़ो के नारे के साथ एक नये आंदोलन का आवाहन किया। इस आंदोलन की रूपरेखा के बारे में कार्यसमिति में कोई स्पष्ट धारणा नहीं थी। साथ ही, कार्यसमिति में मतभेद के बावजूद गांधीजी के अड़ जाने की वजह से यह प्रस्ताव पारित हुआ था।

इससे पहले कि रूपरेखा बनती, 24 घंटों के अंदर कार्यसमिति के सदस्यों सहित सारे प्रमुख कांग्रेसी नेता गिरफ़्तार कर लिये गये और पूरा आंदोलन किसी संगठित केंद्रीय नेतृत्व के बिना आग की तरह सारे देश में फैल गया। इसकी अगली पांत में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेतागण थे, जिनमें से बहुतेरे बाद में कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गये।

कम्युनिस्ट पार्टी, कांग्रेस नेतृत्व की इस राय से सहमत थी कि भारत की जनता से पूछे बिना भारत को युद्ध में शामिल करना ग़लत है और उसका विरोध किया जाना चाहिये। लेकिन रणनीतिक दृष्टि से कम्युनिस्ट पार्टी उस दौर में भारत छोड़ो के नारे के साथ सहमत नहीं थी, क्योंकि पार्टी का मानना था कि इसकी वजह से ब्रिटिश सरकार के कमज़ोर होने से फ़ासीवादी खेमे को मदद मिलेगी, जिसे सिर्फ़ कम्युनिस्ट ही नहीं, बल्कि कांग्रेस नेतृत्व भी विश्वव्यापी स्तर पर सबसे बड़ा खतरा मान रहा था।

इससे पहले भी कांग्रेस के अंदर नरम व गरम दल के नेताओं, या उसके बाद भी अनेक बुनियादी सवालों पर मतभेद हुए हैं, पार्टी में विभाजन भी हुए, स्वराज पार्टी का उद्भव उसकी एक मिसाल है।

अनेक सवालों पर गांधीजी खुद आंदोलन शुरू करने के खिलाफ़ रहे हैं। दस-दस साल के अंतर पर तीन महत्वपूर्ण आंदोलनों के बीच के समय में अंग्रेज़ों के विरोध के बदले वह रचनात्मक कार्यक्रमों पर ज़ोर देते रहे। ऐसे सभी सवालों पर कभी किसी को आज़ादी के आंदोलन में अंग्रेज़ों का साथ देने वाला नहीं कहा गया। कम्युनिस्टों के बारे में ऐसा कहा गया, और ऐसा कहने वाले चंचलजी पहले व्यक्ति नहीं हैं।

मुझे लगता है कि सिर्फ़ संघी ही नहीं, बल्कि एक व्यापक राजनीतिक परिदृश्य की ओर से कम्युनिस्टों को देशद्रोही कहना एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। ...और सिर्फ़ भारत में ही नहीं, सारी दुनिया में ऐसे दृष्टिकोण के साथ कम्युनिस्टों को देशद्रोही कहा जाता रहा है।

यूरोप में समाजवादी आंदोलन में फूट (Split in socialist movement in Europe) के बाद कम्युनिस्ट पार्टियों का जन्म भी ऐसे सवालों से हुआ था। सोशल डेमोक्रेट हर देश में युद्ध व हथियारों की खरीद के लिये ऋण के सरकारी निर्णयों का समर्थन कर रहे थे, जबकि कम्युनिस्टों का रुख़ था कि हर देश में उसका विरोध किया जाय और हर देश में उन्हें देशद्रोही कहा गया। साथ ही इस सवाल के साथ राष्ट्र और इतिहास की समझ के सवाल भी जुड़े हुए हैं। उस पर अलग से बात की जाएगी।

उज्ज्वल भट्टाचार्या

<उज्ज्वल भट्टाचार्या , लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक चिंतक हैं, उन्होंने लंबा समय रेडियो बर्लिन एवं डायचे वैले में गुजारा है। वह हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।>