भाजपा को अब हिन्दुत्व वैसाखी के बजाय बाधा लग रहा
क़मर वहीद नक़वी
बीजेपी और उससे भी ज़्यादा आगे बढ़ कर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मुसलमानों को बार-बार भरोसा भी दिला रहे हैं और न्योता भी दे रहे हैं कि विकास की यात्रा में वे बीजेपी के साथ आयें क्योंकि पार्टी और मोदी सरकार दोनों उन्हें पूरी तरह साथ लेकर चलना चाहते हैं! क्यों? इसलिए कि बीजेपी को लगता है कि मोदी के जादुई चिराग़ की बदौलत वह लम्बे समय तक भारत पर राज कर सकती है। और जो लोग अब तक सेकुलरिज़्म के नाम पर बीजेपी से परहेज़ करते रहे हैं, ‘समावेशी विकास’ की बात उनके ‘बीजेपी-विरोध’ के तर्कों को कबाड़ कर देगी! इस तरह, अगर अगले कुछ सालों में बीजेपी ‘सेकुलरिज़्म’ के पूरे मु्द्दे को ही भारतीय राजनीति के लिए ‘अर्थहीन’ बना दे, तो यह उसकी सबसे बड़ी राजनीतिक जीत होगी! ‘हिन्दुत्व’ के अपने एजेंडे को ठंडे बस्ते में रख कर बीजेपी फ़िलहाल इसी एजेंडे पर काम कर रही है!

मुसलमान? 2014 की राजनीति का सबसे बड़ा सवाल! चुनाव के पहले भी और चुनाव के बाद भी! चौदह का चुनाव कोई मामूली चुनाव नहीं था। पहली बार किसी चुनाव में आशाओं और आशंकाओं का ध्रुवीकरण हुआ। मोदी और मुसलमान! चुनाव के बाद फिर यही सवाल है। मोदी और मुसलमान! सवाल दोनों तरफ़ हैं। घनघोर। और दोनों तरफ़ क्या, राजनीति के हर मुहाने पर यह बड़ा सवाल उपस्थित है। मुसलमान? नयी सरकार और मुसलमान?

यह सवाल सिर्फ़ देश की मुसलिम आबादी के लिए ही नहीं, बल्कि भविष्य की राजनीति की दिशा के लिए भी बड़ा महत्त्वपूर्ण है। भगवा बनाम सेकुलर के दो छोरों में बँटी राजनीति अगले पाँच बरसों में क्या शक्ल लेगी, यह देखना वाक़ई दिलचस्प होगा। संघ, उसकी ‘हिन्दू राष्ट्र’ की आकाँक्षा, ‘हिन्दुत्व’ का उग्र एजेंडा ले कर चलनेवाले उसके परिवार के विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल और दुर्गा वाहिनी जैसे तमाम संगठन और राजनीतिक प्लेटफ़ार्म के तौर पर बीजेपी हमेशा से एक ख़ास क़िस्म की भगवा राजनीतिक विचारधारा के वाहक रहे हैं। उनके विरुद्ध दूसरी तरफ़ सेकुलर राजनीति रही है, जिसमें राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और जातीय पहचान से लेकर तमाम तरह की अलग-अलग विचारधाराओं वाली पार्टियाँ रही हैं। यह अलग बात है कि इनमें से कई दल अकसर ‘सेकुलर एजेंडे’ की चादर ओढ़ कर बीजेपी के साथ सत्ता बाँटते रहे हैं। लेकिन चौदह के चुनाव ने पहली बार बीजेपी को अकेले अपने बूते केन्द्र में सत्ता सौंपी है। इसलिए उसके पास अब कोई ‘सेकुलर चादर’ ओढ़ने की मजबूरी नहीं है। फिर भी बीजेपी और उससे भी ज़्यादा आगे बढ़ कर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मुसलमानों को बार-बार भरोसा भी दिला रहे हैं और न्योता भी दे रहे हैं कि विकास की यात्रा में वे बीजेपी के साथ आयें क्योंकि पार्टी और मोदी सरकार दोनों उन्हें पूरी तरह साथ लेकर चलना चाहते हैं! क्यों?

यह ‘क्यों’ ही सबसे बड़ा सवाल है! बीजेपी के लिए भी, मोदी के लिए भी, मुसलमानों के लिए भी, तमाम दूसरे ‘सेकुलर’ राजनीतिक दलों के लिए भी और भविष्य की राजनीति के लिए भी! अब तक कभी नरम, कभी गरम ‘हिन्दुत्व’ की बैसाखियों पर चलती रही बीजेपी को 2014 की सफलता के बाद अब राजनीति में अपने लिए ‘भारत विजय’ का एक सुनहरा अवसर दिख रहा है। उसके पास मोदी जैसा एक जादुई चिराग़ है, जिसका जादू फ़िलहाल पूरे शबाब पर है! इसलिए बीजेपी को लगता है कि ‘हिन्दुत्व’ अब बैसाखी के बजाय बाधा ही है। देश का नया क्रेज़ है विकास! इसलिए विकास के वशीकरण मंत्र की मोहिनी से वह अब तक ‘अविजित’ रही जनता को भी मुग्ध कर सकती है। दूसरी और, काँग्रेस समेत तमाम दूसरे दलों की मौजूदा लस्त-पस्त हालत को देख कर भी बीजेपी को लगता है कि अगले दो-तीन बरस उसके लिए बड़े सुभीते के हैं और वह मज़े से बेरोक-टोक देश के तमाम दूसरे राज्यों में अपना फैलाव कर सकती है, अपनी जड़ें मज़बूत कर सकती है और लम्बे समय तक भारत पर राज कर सकती है। इसलिए ‘समावेशी विकास’ की बात बीजेपी की स्वाकार्यता को और बढ़ायेगी और जो लोग अब तक सेकुलरिज़्म के नाम पर बीजेपी से परहेज़ करते रहे हैं, उनके ‘बीजेपी-विरोध’ के तर्कों को कबाड़ कर देगी! इस तरह, अगर अगले कुछ सालों में बीजेपी ‘सेकुलरिज़्म’ के पूरे मु्द्दे को ही भारतीय राजनीति के लिए ‘अर्थहीन’ बना दे, तो यह उसकी सबसे बड़ी राजनीतिक जीत होगी! ‘हिन्दुत्व’ के अपने एजेंडे को ठंडे बस्ते में रख कर बीजेपी फ़िलहाल इसी एजेंडे पर काम कर रही है! लेकिन बीजेपी के सामने संकट यह है कि वह अपने ‘हिन्दुत्ववादी वोट बैंक’ को कैसे सम्भाले? अपने राजनीतिक फ़ायदे के लिए तात्कालिक तौर पर मुसलमानों की तरफ़ बढ़ना उसकी मजबूरी है, लेकिन अपने ‘हिन्दुत्ववादी समर्थकों’ को वह किसी क़ीमत पर खोना नहीं चाहेगी। इसलिए वह सम्भल-सम्भल कर बहुत आहिस्ता-आहिस्ता क़दम रख रही है। पुणे की ताज़ा हिंसा के मामले में बीजेपी की यह दुविधा खुल कर सामने आयी भी!

दूसरी तरफ़, मोदी भी जानते हैं कि समय और संयोग ने उन्हें जहाँ पहुँचा दिया है, वहाँ से आगे का रास्ता कम से कम एक मामले में तो ‘गुजरात माडल’ से नहीं ही तय किया जा सकता! ‘हिन्दू हृदय सम्राट’ और ‘विकास पुरुष’ के मिले-जुले गुजरात के ‘मोदी माडल’ के बजाय उन्हें फ़िलहाल अभी तो एक ऐसा चमकदार, जगमग अखिल भारतीय ‘मोदी माडल’ गढ़ना है, जिसकी चकाचौंध में 2002 दिखना बन्द हो जाय! इसलिए 16 मई के बाद मोदी बिलकुल ही बदले हुए मोदी नजर आ रहे हैं! भाषा, तेवर, अन्दाज़ सभी कुछ नया-नया-सा है, ऐसा जो बरबस मन मोह ले और शशि थरूर से भी अपना क़सीदा पढ़वा ले। मोदी जानते हैं कि दिल्ली के सिंहासन पर बैठने के शुरुआती दिनों में किस-किस बात के लिए उनकी स्क्रूटनी होगी, इसलिए वह उन तमाम बाणों को भोथरा कर देना चाहते हैं जो उन पर चलाये जा सकते थे। वह बड़े जतन से अपनी एक ऐसी छवि गढ़ रहे हैं, जो उनके सारे विरोधियों को, उनके विरोध के हर मोरचे को फुस्स पटाख़ा साबित कर दे! इसीलिए, जब मौक़ा मिलता है, वह इस बात को दोहराना नहीं भूलते कि विकास के उनके सपने में मुसलमान भी उतने ही शामिल हैं, जितने बाक़ी और लोग। और अब ख़बरें हैं कि मोदी और बीजेपी इस रणनीति पर काम कर रहे हैं कि मुसलमानों के साथ संवादहीनता कैसे तोड़ी जाये, आपसी समझ बनाने-बढ़ाने के लिए क्या किया जाये और आशंकाओं की खाइयों को कैसे पाटा जाय! मुसलिम बुद्धिजीवियों, मौलानाओं और मुसलिम समाज के तमाम दूसरे प्रभावशाली लोगों के साथ सम्पर्क का नया सिलसिला पार्टी ने बाक़ायदा शुरू कर दिया है!

लेकिन सवाल यह है कि संघ और हिन्दुत्ववादी राजनीति के साथ मुसलमानों के जो अब तक के अनुभव रहे हैं, उनसे आशंकाओं की जो खाइयाँ उपजी और गहरी हुई हैं, उन्हें क्या केवल विकास में सहभागी बना कर पाटा जा सकता है? इससे इनकार नहीं कि मुसलमानों के लिए ग़रीबी और पिछड़ापन एक बेहद चिन्तनीय और बड़ा मुद्दा है, लेकिन इससे भी बड़ा मुद्दा भावनात्मक सम्मान का है। मुसलमानों के बारे में जैसी भ्रान्तियाँ फैलायी जाती हैं, जिस प्रकार बात-बात पर उनकी निष्ठा और देशभक्ति को कटघरे में खड़ा किया जाता है, उसे दूर करना सबसे पहली और ज़रूरी शर्त है। संघ परिवार के तमाम संगठनों के प्रशिक्षण शिविरों में मुसलमानों के ख़िलाफ़ कार्यकर्ताओं के दिमाग़ में जिस तरह ज़हर घोला जाता है, और जिसके तमाम सबूत बार-बार सामने आ चुके हैं, उसे पूरी तरह बन्द किये बग़ैर मुसलमानों के बारे में संघ परिवार के लोगों में ‘अच्छी धारणा’ कैसे पनपेगी? मुसलमान लड़के और हिन्दू लड़की के बीच एक सामान्य प्रेम विवाह को ‘लव जिहाद’ घोषित करते रहने से दोनों समुदायों में नज़दीक़ी कैसे आयेगी?

अगला मुद्दा है आतंकवाद का। सबको मालूम है कि आतंकवाद की जड़ कहाँ है और कैसे सीमापार के कुछ कुख्यात संगठन कुछ मुसलमान युवकों को बरगला कर आतंकवाद की ग़र्त में झोंक कर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। कोशिश होनी चाहिए कि सरकार और मुसलिम समाज मिल कर एकजुट अभियान चलायें कि मुसलिम युवक आतंकवाद के झाँसे में न आने पायें। दूसरी बात यह कि सरकार को देखना चाहिए कि आतंकवाद के नाम पर पुलिस निर्दोष लोगों को न फँसाये, फ़र्ज़ी एन्काउंटर न हों और हर मुसलमान को शक की नज़र से न देखा जाय। अमित शाह जैसे लोगों के आज़मगढ़नुमा बयान ऐसी ही ग़लत समझ का नतीजा हैं।

मुसलमानों का विकास ज़रूरी है, लेकिन उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है कि मुसलमानों के बारे में सही समझ विकसित हो। आज का मुसलमान किसी भी आम भारतीय की तरह भारतीय है, और उसकी भारतीयता किसी से किसी भी मामले में कम नहीं। संघ परिवार को यह बात अच्छी तरह समझनी होगी। मुसलमान भी मोदी और बीजेपी को नये सिरे से देख-परख रहे हैं। वह मोदी के न्योते को भी तौल रहे हैं और उसके निहितार्थ समझने की कोशिश कर रहे हैं कि यह वास्तव में दिल बदलने की शुरुआत है या ‘हिन्दुत्व’ को कुछ दिन तक ‘स्थगित’ रख कर राजनीतिक साम्राज्य के विस्तार की रणनीति?

(लोकमत समाचार, 14 जून 2014)

क़मर वहीद नक़वी। वरिष्ठ पत्रकार व हिंदी टेलीविजन पत्रकारिता के जनक में से एक हैं। हिंदी को गढ़ने में अखबारों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सही अर्थों में कहा जाए तो आधुनिक हिंदी को अखबारों ने ही गढ़ा (यह दीगर बात है कि वही अखबार अब हिंदी की चिंदियां बिखेर रहे हैं), और यह भी उतना ही सत्य है कि हिंदी टेलीविजन पत्रकारिता को भाषा की तमीज़ सिखाने का काम क़मर वहीद नक़वी ने किया है। उनका दिया गया वाक्य – यह थीं खबरें आज तक इंतजार कीजिए कल तक – निजी टीवी पत्रकारिता का सर्वाधिक पसंदीदा नारा रहा। रविवार, चौथी दुनिया, नवभारत टाइम्स और आज तक जैसे संस्थानों में शीर्ष पदों पर रहे नक़वी साहब इंडिया टीवी में भी संपादकीय निदेशक रहे हैं। नागपुर से प्रकाशित लोकमत समाचार में हर हफ्ते उनका साप्ताहिक कॉलम राग देश प्रकाशित होता है।

#RaagDesh, #qwnaqvi, #Modi, #Musalman, #BJP, #RSS