क़मर वहीद नक़वी
चेन्नई छह साल से लगातार ज़िन्दगी का करिश्मा बाँट रहा है! वैसे वाक़ई बड़ा अचरज होता है! भारत में ऐसा भी शहर है, ऐसे भी डाक्टर हैं, ऐसी भी पुलिस है, ऐसे भी लोग हैं! मुम्बई की एक अनजान लड़की को नयी ज़िन्दगी सौंपने को सारा शहर एक हो जाये! और यह कमाल पिछले छह सालों से हो रहा है! पहली बार 2008 में डाक्टरों और पुलिस ने मिल कर यह ‘ग्रीन चैनल’ बनाया था और तब से अब तक इस तरीक़े से वहाँ न जाने कितनी ज़िन्दगियाँ बचायी जा चुकी हैं। लेकिन बाक़ी देश ने चेन्नई से कुछ नहीं सीखा!
चेन्नई ज़िन्दाबाद! सचमुच पहली बार लगा कि ज़िन्दाबाद किसे और क्यों कहना चाहिए! चेन्नई छह साल से लगातार ज़िन्दगी का करिश्मा बाँट रहा है! इसलिए ज़िन्दाबाद! वैसे वाक़ई बड़ा अचरज होता है! भारत में ऐसा भी शहर है, ऐसे भी डाक्टर हैं, ऐसी भी पुलिस है, ऐसे भी लोग हैं! मुम्बई की एक अनजान लड़की को नयी ज़िन्दगी सौंपने को सारा शहर एक हो जाये! डाक्टर जी-जान से जुट जायें, नाके-नाके पर पुलिस तैनात हो जाये, शहर का ट्रैफ़िक थम जाये ताकि एक धड़कता हुआ दिल सही-सलामत और जल्दी से जल्दी एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल पहुँच जाये और ट्रांसप्लांट कामयाब हो सके! वे डाक्टर, वे पुलिसवाले और ग्रामीण स्वास्थ्य नर्स का काम करने वाली एक माँ, जो अपने 27 साल के बेटे के अंग दान के लिए आगे बढ़ कर तैयार हो गयी, ये सब के सब लोग ज़िन्दगी के सुपर-डुपर हीरो हैं! और यह बात भले ही ख़बरों में अभी आयी हो, लेकिन चेन्नई में यह कमाल पिछले छह सालों से हो रहा है! जी हाँ, पिछले छह सालों से, जब भी वहाँ किसी मरीज़ को ऐसी ज़रूरत पड़ी, तो वहाँ ट्रैफ़िक को थाम कर ‘ग्रीन चैनल’ बनाया गया ताकि ट्रांस्प्लांट के लिए ज़रूरी अंग एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल तक जल्दी से जल्दी पहुँचाया जा सके। पहली बार 2008 में डाक्टरों और पुलिस ने मिल कर यह ‘ग्रीन चैनल’ बनाया था और ट्रांस्प्लांट के लिए एक दिल सिर्फ़ 14 मिनट में एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल ले जाया गया था। तब से अब तक इस तरीक़े से वहाँ न जाने कितनी ज़िन्दगियाँ बचायी जा चुकी हैं, न जाने कितने परिवारों को अनमोल ख़ुशियों का ख़ज़ाना बाँटा जा चुका है। मुम्बई की उस लड़की का परिवार इसीलिए चेन्नई आया था क्योंकि उन्हें बताया गया था कि देश में तमिलनाडु अकेला राज्य है, जहाँ ट्रांस्प्लांट के लिए दिल मिल सकने की अच्छी सम्भावना बन सकती है। और तमिलनाडु ने उन्हें निराश नहीं किया!
तो रोशनियाँ तो हैं हमारे आसपास! अकसर टिमटिमा कर झलक भी दिखला जाती हैं! लेकिन उनकी तरफ़ देखने में दिलचस्पी किसे है, फ़ुरसत किसे है? परवाह भी किसे है? ऐसे कामों से न धनयोग बनता है और न राजयोग! न नोट हो, न वोट! तो फिर सरकार हो, नेता हो, बाबू हो, साहब हो, सेठ हो, कौन खाली-पीली फोकट में टैम खराब करे! वरना चेन्नई कोई जंगल तो है नहीं कि मोर नाचे और किसी को पता न चले! वह महानगर है। छह साल से ‘ग्रीन चैनल’ की रोशनी चमका रहा है, लेकिन नक़लचियों के उस्ताद इस देश में किसी और महानगर ने चेन्नई की नक़ल नहीं की! कभी-कभी बड़ी हैरानी होती है। ऐसा कैसे कि पूरा सिस्टम, पूरा तंत्र, मानस, सोच, सब कुछ ऐसा हो जाये कि जो साफ़-साफ़ दिख रहा हो कि बकवास है, झूठ है, फ़रेब है, रत्ती भर भी सही नहीं है, जिससे न उनका भला होगा और न देश का, लोग उस पर उद्वेलित हो उठें, लड़ मरें और सचमुच जो बात उनके असली काम की हो, जिससे उनका और देश का जीवन बेहतर बनता हो, ज़िन्दगियाँ सँवरती हों, उससे मुँह फेर कर बैठे रहें!
विडम्बना देखिए कि उसी चेन्नई के एक अस्पताल में महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख की जान इसलिए नहीं बचायी जा पाती कि लीवर ट्रांस्प्लांट के लिए कोई ‘डोनर’ नहीं मिल सका! लेकिन एक पूर्व मुख्यमंत्री की मौत भी राजकाज वालों को जगा नहीं सकी कि देखो अपने देश में अंग प्रत्यारोपण कितनी बड़ी और कितनी गम्भीर समस्या है और इस पर ज़रूर कुछ किया जाना चाहिए।
अंग-प्रत्यारोपण पर बरसों से हमारे यहाँ बहस चल रही है! वैसे तो जैसे ही अंग प्रत्यारोपण की बात आती है, बस रैकेट ही रैकेट और स्कैंडल ही स्कैंडल मन में कौंधने लगते हैं। पत्रकार स्काट कार्नी में अपनी चर्चित किताब ‘द रेड मार्केट’ में भारत सहित तमाम देशों में फैले ऐसे काले कारोबार का ज़बर्दस्त भंडाफोड़ किया है। लेकिन ‘कैडावर’ यानी मृत शरीर से मिले अंगों को प्रत्यारोपित करने में तो वैसे रैकेट या स्कैंडल की गुंजाइश नहीं, फिर भी बीस साल पहले इस बारे में क़ानून बनने के बाद से अब तक हम कुछ ख़ास नहीं कर पाये हैं। ‘कैडावर’ प्रत्यारोपण उन मामलों में होता है, जब व्यक्ति ‘ब्रेन डेड’ हो जाता है, यानी सिर में चोट या ब्रेन हैमरेज या ऐसे ही किसी कारण से जब मस्तिष्क पूरी तरह काम करना बन्द कर दे और उसे ‘मृत’ घोषित कर दिया जाये, ऐसे में अगर व्यक्ति के परिवार वाले अंग दान के लिए तैयार हो जायें तो एक शरीर से क़रीब पचास लोगों को जीवनदान मिल सकता है! ‘ब्रेन डेड’ शरीर के 37 अंग और तमाम ऊतक प्रत्यारोपण के काम आ सकते हैं!
लेकिन हमारे आँकड़े बड़े डरावने हैं। सवा अरब की आबादी वाले इस देश में 2012 में कुल 196 ‘ब्रेन डेड’ व्यक्तियों के परिवारों ने अंग दान की रज़ामन्दी दी, जिससे 530 अंग प्रत्यारोपण के लिए मिले। ज़रा देखिए। हमारे यहाँ हर एक करोड़ की आबादी में केवल 1.8 (यानी औसत 2 से भी कम) शरीर ‘कैडावर दान’ के लिए मिल पाते हैं, उधर अमेरिका में यह आँकड़ा प्रति करोड़ 260 और स्पेन में 400 है! जबकि हमारे यहाँ हर साल औसतन ‘ब्रेन डेथ’ के क़रीब एक लाख मामले होते हैं। यानी क़रीब एक लाख ‘ब्रेन डेड’ शरीरों में से कुल दो ही अंग दान के लिए मिल पाते हैं! ऐसा नहीं है कि लोग यहाँ ‘अंग दान’ के लिए तैयार नहीं होते! डाक्टरों का अनुभव है कि चाहे ‘ब्रेन डेड’ व्यक्ति का परिवार ग़रीब हो या अमीर, पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़, लेकिन अगर उसे ढंग से समझाया जाये तो 65% लोग इसके लिए तैयार हो जाते हैं। लेकिन क़ानूनी जटिलताएँ, अस्पतालों में ज़रूरी इंफ़्रास्ट्रक्चर का अभाव, जनता में जागरूकता की कमी, धार्मिक आस्थाएँ और अन्धविश्वास, ये सारे बहुत-से कारण है, जिससे ‘कैडावर प्रत्यारोपण’ की गति नहीं बढ़ पा रही है और हर साल लाखों लोग जीवन पाने से वंचित रह जाते हैं। अब पहले सरकार जागे, फिर लोगों को जगाये, तब बात कुछ बने। लेकिन सरकार जागेगी क्या? और अगर जाग गयी या जगती हुई दिखी भी तो बात अकसर ख़ानापूरी के आगे, काग़ज़ी अभियानों में पैसे की बरबादी के आगे बढ़ नहीं पाती। वैसा जज़्बा कहीं दिखता नहीं कि लगे सरकार और उसका तंत्र सचमुच गम्भीरता से किसी मिशन में जुटा हो। इसलिए ऐसे मुद्दे कभी राष्ट्र निर्माण की सामूहिक चेतना का हिस्सा नहीं बन पाते। देश की सबसे बड़ी समस्या यही है!
तो क्या हम, लोग, सरकार चेन्नई से कुछ सीखेंगे और इसे आगे बढ़ायेंगे? या फिर कल अख़बार के ‘रद्दी’ हो जाने के साथ ही यह बात भी ‘रद्दी’ हो जायेगी? और जैसी कि आदत है, लोग मुँह ढाँप कर सो जायेंगे किसी अगली ख़बर के आने तक?
(लोकमत समाचार, 21 जून 2014)
क़मर वहीद नक़वी। वरिष्ठ पत्रकार व हिंदी टेलीविजन पत्रकारिता के जनक में से एक हैं। हिंदी को गढ़ने में अखबारों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सही अर्थों में कहा जाए तो आधुनिक हिंदी को अखबारों ने ही गढ़ा (यह दीगर बात है कि वही अखबार अब हिंदी की चिंदियां बिखेर रहे हैं), और यह भी उतना ही सत्य है कि हिंदी टेलीविजन पत्रकारिता को भाषा की तमीज़ सिखाने का काम क़मर वहीद नक़वी ने किया है। उनका दिया गया वाक्य – यह थीं खबरें आज तक इंतजार कीजिए कल तक – निजी टीवी पत्रकारिता का सर्वाधिक पसंदीदा नारा रहा। रविवार, चौथी दुनिया, नवभारत टाइम्स और आज तक जैसे संस्थानों में शीर्ष पदों पर रहे नक़वी साहब इंडिया टीवी में भी संपादकीय निदेशक रहे हैं। नागपुर से प्रकाशित लोकमत समाचार में हर हफ्ते उनका साप्ताहिक कॉलम राग देश प्रकाशित होता है।
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