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सियासत में सब जायज क्यों है ? अभी हमारे पास कोई नायक नहीं है जिसे आगे चलकर लोकनायक बनाया जा सके
मैंने पिछले दिनों मध्यप्रदेश विधानसभा उपचुनाव (Madhya Pradesh Assembly by-election) में कांग्रेस के प्रत्याशी चयन को लेकर कहा था की कांग्रेस बंजर हो रही है, आज यही जुमला मै भाजपा के लिए भी इस्तेमाल करने जा रहा हूँ। भाजपा के गढ़ गुजरात में भी भाजपा बंजर नजर आने लगी है, क्योंकि उसके पास अपने प्रत्याशी नहीं हैं इसलिए यहां भी उप चुनाव के लिए कांग्रेस के पूर्व विधायक अल्पेश ठाकोर को मैदान में उतारने का फैसला किया है।
2017 में कांग्रेस के टिकट पर चुने गए ठाकोर ने भाजपा में शामिल होने के लिए विधायक के पद से इस्तीफा दे दिया था। वह अब राधनपुर से चुनाव लड़ेंगे, इसी सीट पर उन्होंने पहले जीत हासिल की थी। कांग्रेस छोड़ चुके एक और नेता धवलसिंह नरेंद्रसिंह जाला भी भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर बायद से चुनाव लड़ेंगे।
ये कैसा सबसे अलग चाल, चरित्र और चेहरा
राजनीतिक दल किसे कहाँ से चुनाव लड़ाएं, ये उनका विशेषाधिकार है लेकिन जब चाल चरित्र और चेहरे में सबसे अलग होने का दावा करने वाले दल भी नैतिकता को परे रखकर फैसले करते हैं तो हँसी आती है। अल्पेश ने 2017 में भाजपा के नेतृत्व को थोक में गालियां देकर चुनाव जीता था और अब वे ही भाजपा के लिए सबसे ज्यादा मुफीद प्रत्याशी भी हैं। जाहिर है की भाजपा के पास राघनपुर में या तो कोई प्रत्याशी है ही नहीं या फिर उनका हक मारकर ठाकोर को प्रत्याशी बनाया गया है। कोई माने या न माने लेकिन ये अनैतिक फैसला है।
भाजपा कथित रूप से अनुशासित पार्टी है इसलिए बेचारे निष्ठावान कार्यकर्ता पार्टी हाईकमान के इस फैसले के खिलाफ कुछ न कहें किन्तु इस व्यवहार को हतोत्साहित किया जाना चाहिए।
अवसरवादिता सबसे बड़ी नैतिकता बन गई
यदि आप विश्लेषण करें तो पाएंगे कि येन केन प्रकारेण सत्ता हासिल करने की होड़ अकेले किसी एक दल में नहीं अपितु सभी दलों में है। नैतिकता अब किसी भी दल का तकाजा नहीं रहा। किसी भी दल में निष्ठा के लिए अब कोई स्थान नहीं रहा। अब अवसरवादिता सबसे बड़ी जरूरत और नैतिकता है। इस नए व्यवहार की वजह से राजनीति में गिरावट का स्तर तेजी से गिरता जा रहा है। जनता के सामने भी कोई विकल्प नहीं है उसे भी इन्हीं अवसरवादियों में से किसी एक को चुनना होता है।
सभी दलों को दल-बदल क़ानून का मजाक बनाने में मजा आता है
बंजर होती राजनीति को शस्य श्यामला बनाये रखने के लिए आवश्यकता है कि राजनीतिक दलों की आचार संहिता बनाई जाये, दल-बदल कानून किसी काम के नहीं हैं क्योंकि ये क़ानून किसी भी दल के मुफीद नहीं हैं। दल-बदल क़ानून का मजाक बनाने में सभी दलों को मजा आता है। चुनाव आयोग की इसे रोकने में कोई भूमिका है नहीं और राजनीतिक नेतृत्व पहले ही नैतिकता का तर्पण कर चुका है। जरूरत इस बात कि है कि अब देश का युवा वर्ग ही इस अनैतिकता के खिलाफ मोर्चा खोले और राजनीतिक नेतृत्व को विवश करे कि वे अनैतिक फैसले लेने का दुःसाहस न कर सकें।
राजनीति में वंशवाद, जातिवाद और भाई-भतीजावाद के रहते नए और ईमानदार नेतृत्व के उभरने के अवसर बेहद न्यून हैं और इसका खमियाजा देश को ही भुगतना पड़ सकता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
जिस देश में मतदाताओं का बड़ा प्रतिशत युवाओं का हो, उस देश में बूढ़ों को फैसला करने का अधिकार देने पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। राजनीति को बंजर होने से बचने की यही पहला और आखरी विकल्प है।
अफ़सोस की बात ये है कि देश के युवा नेतृत्व को भी दिग्भ्रमित कर दिया गया है, ये वर्ग भी छद्म राष्ट्रवाद की घुट्टी पीकर नीम बेहोशी में है उसमें प्रतिकार की शक्ति और नैसर्गिक चेतना क्षीण होती जा रही है।
आज देश में हांगकांग जैसा कोई आंदोलन न तो खड़ा हो पा रहा है और न उसकी कोई संभावना है। राजनीति में शुचिता के लिए अब एक और समग्र क्रान्ति कि जरूरत है लेकिन इसके लिए अभी हमारे पास कोई नायक नहीं है जिसे आगे चलकर लोकनायक बनाया जा सके। 45 साल से बंजर राजनीति को नए खाद-पानी की जरूरत है
राकेश अचल
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
http://www.hastakshep.com/oldkashmir-will-become-indias-vietnam-war/


