दीमापुर की घटना को सही ठहराने वाले भी उतने ही दोषी हैं, जितने उसे अंजाम देने वाले?
खतरनाक यह है कि इस हत्या को उस एक वर्ग का मुखर या मौन समर्थन मिला है, जो उच्च शिक्षित है, शिक्षक है, राजनीति, मीडिया और शासन प्रशासन में है। आप नेता कुमार विश्वास का यह कहना कि मसर्रत आलम जैसे देशद्रोहियों को गोली मार देनी चाहिए यही इंगित करता है कि पढ़े-लिखे तबके में भी कहीं न कहीं एक तालिबान छुपा बैठा है, जो अनायास ही बाहर आ जाता है।
पिछले दिनों नगालैंड के दीमापुर में जिस तरह से एक दुष्कर्म के आरोपी की भीड़ ने जेल से निकालकर हत्या की है, वह हमें सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर किसी भी इंसान में यह बर्बरता कहां छुपी होती है? खतरनाक यह है कि इस हत्या को उस एक वर्ग का मुखर या मौन समर्थन मिला है, जो उच्च शिक्षित है, शिक्षक है, राजनीति, मीडिया और शासन प्रशासन में है। आप नेता कुमार विश्वास का यह कहना कि मसर्रत आलम जैसे देशद्रोहियों को गोली मार देनी चाहिए यही इंगित करता है कि पढ़े-लिखे तबके में भी कहीं न कहीं एक तालिबान छुपा बैठा है, जो अनायास ही बाहर आ जाता है। यही तालिबान मानसिकता आॅनर किलिंग कराती है और महिलाओं के लिए नए-नए फरमान जारी करती है। इससे समझा जा सकता है कि शिक्षक, मीडियाकर्मी और शासन प्रशासन में बैठे लोगों का एक वर्ग किस तरह से समाज को अराजकता की ओर धकेलने का काम कर रहा है। इस मानसिकता का कोई शिक्षक अपने छात्रों को क्या शिक्षा दे रहा होगा, इसे भी समझा जा सकता है और कोई पुलिस अधिकारी कैसे अपने मातहतों में जहर भरता होगा, इसे भी समझना मुश्किल नहीं है।
जब कोई विदेशी फिल्मकार भारत में होने वाली आॅनर किलिंग, सांप्रदायिक दंगों और निर्भया दुष्कर्म को आधार बनाकर कोई वृत्तचित्र बनाता है, तो यही वर्ग उसका सबसे ज्यादा विरोध करता है। तब उसे उसमें देश का अपमान नजर आने लगता है। एक जर्मन प्रोफेसर भारतीय छात्र को इसलिए इंटर्नशिप देने से इंकार कर देता है, क्योंकि उसे लगता है कि भारत दुष्कर्मियों का देश है। इस तरह की छवि हो सकता है कि वे फिल्मकार बनाते हों, जो दुष्कर्म पर फिल्में बनाता है। लेकिन उन्हें मौका कौन देता है? कल अगर दीमापुर हत्याकांड पर कोई वृत्तचित्र बनने लगा तो इसमें फिल्मकार की गलती नहीं होगी, उस मानसिकता की होगी, जो उसे सही ठहरा रही है। दीमापुर की तस्वीरें दिखाती हैं कि जब भीड़ आरोपी को जेल से बाहर निकालकर उसे पीटते हुए ले जा रही थी, तो पुलिस तमाशबीन बनी हुई थी। जब एक अराजक भीड़ को पुलिस-प्रशासन का मूक समर्थन हासिल हो जाए, तो वह कुछ भी कर सकती है।
इस तरह की हत्याओं को धार्मिक या जाति से जोड़कर उसे जायज ठहराने की प्रवृत्ति की नींव 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पड़ी थी। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद स्वर्गीय राजीव गांधी ने सिखों के खिलाफ हुई हिंसा को यह कहकर जायज ठहराने की कोशिश की थी कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है, तो धरती कांपती ही है। इसके बावजूद इंदिरा गांधी के हत्यारों को उस तर्ज पर गोली से नहीं उड़ा दिया गया था, जिस तरह की मांग आजकल चल रही है। भारत में हिटलरशाही या नादिरशाही निजाम नहीं है। एक लोकतांत्रिक देश है और एक लोकतांत्रिक देश के कुछ तकाजे होते हैं, जिन्हें पूरा किया जाता है। राजीव गांधी के हत्यारों को भी अपने बचाव और अपना पक्ष रखने का मौका दिया गया था। इसी तरह मुंबई हमले के आरोपी अजमल कसाब, जो पाकिस्तानी था, पर भी भारत के कानून के तहत मुकदमा चलाकर फांसी दी गई थी।
देश ने 1984 का एक्शन रिप्ले एक बार फिर 2002 में गुजरात में देखा था। जब गोधरा में ट्रेन में आग लगने के बाद कारसेवकों की मौत पर इसी तरह से बदला लिया गया था, जैसे इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों से लिया गया था। तब भी हत्याओं को क्रिया की प्रतिक्रिया बताकर जायज कहा गया था। आज भी यह कुतर्क दिया जाता है कि यदि गोधरा नहीं होता तो हत्याएं नहीं होतीं। सवाल बहुत तल्ख है, लेकिन किया जाना चाहिए कि यदि गुजरात की हत्याओं का बदला भी इसी तरह लिया जाए तो क्या वह सही होगा? 1984 और 2002 में भी उन्मादी भीड़ को भी शासन-प्रशासन का ऐसा ही मूक समर्थन हासिल था, जैसा दीमापुर में देखा गया। अगर ‘बड़ा पेड़ गिरने पर धरती कांपती है’ और ‘क्रिया की प्रतिक्रिया’ का सिद्धांत सही है, तो फिर देश में अदालतों की जरूरत ही क्या है। हर आदमी, जाति और समुदाय अपना ‘बदला’ लेने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए। क्या ऐसे ही ‘जंगलराज’ की कल्पना कर रहे हैं हमारे कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी?
यह ठीक है कि देश में न्याय व्यवस्था लचर है। लाखों मुकदमे लंबित हैं। जल्दी से न्याय नहीं मिल पाता। देश के प्रधानमंत्री के हत्यारों को भी सजा दिलाने में बीस-बीस साल लग जाते हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अदालतें खत्म कर दी जाएं और लोगों को अपना इंसाफ करने के लिए खुला छोड़ दिया जाए। यह भी ठीक है कि कुछ रसूखदार लोग न्याय को भी प्रभावित करने में कामयाब हो जाते हैं। 1984 के दंगों के आरोपी हों, या गुजरात दंगों के, उन्होंने भी कानून की खामियों का खूब फायदा उठाया है और आज जमानत पर बाहर हैं। ऐसा भी नहीं है कि सभी लोग कानून को प्रभावित कर देते हैं। बाहुबली डीपी यादव के बेटे नीतिश कटारा हत्याकांड में और खुद उन्हें नरेंद्र भाटी हत्याकांड में सुनाई गई उम्र कैद की सजा इसका सबूत है कि कोई भी कानून से ऊपर नहीं है। दीमापुर हत्याकांड के आरोपियों पर भी मुकदमा चलेगा। कब तक चलेगा, कुछ नहीं मालूम। हो सकता है कि सबूतों के ‘अभाव’ में वे छूट जाएं, लेकिन कानूनी प्रक्रिया तो पूरी होगी ही। क्या यह भी कम सजा है कि एक आदमी लंबे तक कानून प्रक्रिया भुगते? न्याय व्यवस्था कितनी भी लचर हो, लेकिन हमें देश के संविधान और उसके कानून पर भरोसा तो करना ही पड़ेगा।
देश में नई सरकार आई है, जिससे लोगों को बहुत उम्मीदें हैं। वह पुराने कानूनों को खत्म करने की बात कर रही है। हमारी न्याय व्यवस्था में बहुत कानून ऐसे होंगे, जो न्याय में विलंब करने में भूमिका निभाते होंगे। उनमें भी सुधार किया जाना चाहिए। जजों की भी कमी है, जिसे पूरा किया जाना चाहिए। तारीख पे तारीख का सिलसिला बंद होना चाहिए। अदालतों में वादियों को लूटने के लिए जो गठजोड़ बना हुआ है, उसे भी खत्म करने की जरूरत है। न्याय में विलंब भी लोगों में नकारात्मकता का भाव पैदा करता है। इसलिए एक वर्ग फौरन जस्टिस करने के जुनून में कानून अपने हाथों में ले लेता है। इसे बदलने की जरूरत है। लेकिन ऐसा करने वालों का समर्थन बंद होना चाहिए। दीमापुर की घटना को सही ठहराने वाले भी उतने ही दोषी हैं, जितने उसे अंजाम देने वाले?
सलीम अख्तर सिद्दीकी

सलीम अख्तर सिद्दीकी देश के अनेक समाचार-पत्रों में सामायिक मुद्दों पर लेख लिखते हैं। आजकल दैनिक जनवाणी में कार्यरत हैं।