दादाभाई नौरोजी की जीवनी (Biography of Dadabhai Naoroji in Hindi)

  • पारसी समाज सुधार और रहनुमाई मझदासन सभा की भूमिका
  • ‘ड्रेन थ्योरी’ : भारत के आर्थिक शोषण का उद्घाटन
  • अंतरराष्ट्रीय समाजवादी आंदोलन और दादाभाई नौरोजी
  • ब्रिटिश संसद में पहले भारतीय सदस्य

आज के समय में दादाभाई नौरोजी की प्रासंगिकता

दादाभाई नौरोजी की 200वीं जयंती पर डॉ. सुरेश खैरनार से जानिए उनके समाजवादी विचार, पारसी समाज सुधार, ‘ड्रेन थ्योरी’ और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में योगदान

भारत के आद्य समाजवादी तथा स्वतंत्रता संग्राम के पितामह दादा भाई नौरोजी की 4 सितंबर 2025 को 200 वीं जयंती पर विनम्र अभिवादन.

शायद पहले समाजवादी शीर्षक से कुछ लोगों को हैरानी हो रही होगी. इसलिए मैं विस्तार से लिखने की कोशिश कर रहा हूँ. पारसी धर्म के अनुयायी वर्तमान समय का ईरान, जिसे कभी पर्सियन साम्राज्य के नाम से जाना जाता था, वहाँ से सातवीं शताब्दी में निकले हुए लोग हैं, जिन्हें आज भारत में पारसियों के रूप में जाना जाता है. संपूर्ण विश्व में एक लाख के आसपास जनसंख्या पारसियों की है जिनमें से भारत में 75% निवास करते हैं. अन्य 25% पाकिस्तान और इंग्लैंड में हैं. और सबसे हैरानी की बात यह है कि इस धर्म की जनसंख्या बढ़ने की जगह कम हो रही है. धर्म प्रसार और मिश्र विवाह नहीं करने की वजह से इनकी संख्या कम हो रही है. इस वजह से इस वंश को जैविक समस्याओं का सामना भी करना पड़ रहा है. यह भी एक बायोलॉजिकल कारण है. इस लिए शुद्ध वंश के फासिस्ट विचारों के लोगों को भी पारसियों के ऊपर हो रहे बॉयोलॉजिकल दुष्प्रभावों को देखते हुए अपने वंशशुद्धि के दुराग्रह से मुक्त होने की आवश्यकता है.

आज से 175 वर्ष पहले ही दादा भाई नौरोजी ने समाज सुधारक के रूप में पारसी समाज के सुधार की शुरुआत अपने सहयोगियों के साथ मिलकर रहनुमाई मझदासन सभा का गठन किया था. और पारसी पंचायत के दकियानूसी रवैये के खिलाफ आवाज उठाने के लिए उन्होंने 23 साल की उम्र में ही लिटररी सायंटिफिक सोसायटी (Students' Literary and Scientific Society SLSS) की भी स्थापना की. ( 1848 ) और SLSS की तरफ से 1849 में 6 पाठशालाओं की शुरुआत स्त्रियों के शिक्षा के लिए मुंबई में की थी. इसी तरह दादा भाई नौरोजी पहले भारतीय थे, जिन्होंने सोशलिस्ट इंटरनेशनल एमस्टरडम में (1904 ) हुई कॉंन्फ्रेंस में 79 साल के उम्र में हिस्सा लिया. कुल मिलाकर 92 वर्ष के जीवन में पारसी धर्म सुधार से लेकर, भारत के स्वतंत्रता संग्राम की नींव ब्रिटिश शासन के द्वारा भारत के आर्थिक शोषण को वित्तीय अनुशासन के साथ प्रथम बार लिखित रूप में उजागर करने का ऐतिहासिक काम किया. और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रंगभेद जातिवाद के खिलाफ तथा समतावादी समाज के निर्माण के लिए की गई कोशिश आज से दो सौ वर्ष पहले करने वाले दादा भाई नौरोजी के जज़्बे को देखकर ही, इंग्लैंड के समाजवादी हेन्री हाइडमन ने उनकी 'ड्रेन थ्योरी' को दुनिया में फैलाते हुए 1881 में कार्ल मार्क्स के साथ उनकी बैठक आयोजित की थी. लेकिन किसी कारण से वह हो नहीं सकी. लेकिन कार्ल मार्क्स ने अपने साम्राज्यवाद के लेखन में भारत में चल रही ब्रिटिश साम्राज्यवादी शोषणकारी व्यवस्था को लेकर जो तार्किकता दी है, वह यूरोसेंट्रिक नजरिया के कारण औद्योगिक क्रांति के बाद सामंतवाद खत्म हो कर समाजवादी क्रांतिकारी बदलाव के लिए जमीन तैयार हो जायेगी, इसलिए वह औद्योगिकीकरण के पक्षधर रहे हैं. आज की दुनिया में शायद अबतक की सबसे विकसित, और अब तो एआई से तो मनुष्य के श्रम की जगह टेक्नोलॉजी के द्वारा सभी काम होने के आसार नजर आ रहे हैं. इससे एक नया सामाजिक तथा आर्थिक, सांस्कृतिक संकट का सामना करना पड़ सकता है. उससे पूंजीवाद खत्म होने की जगह नया पूंजीवाद निर्माण होता दिखाई दे रहा है.

क्या है दादाभाई नौरोजी की ‘ड्रेन थ्योरी’ जिसने मचा दी थी हलचल

दादा भाई नौरोजी का 'धन का निकास सिद्धांत' (Drain Theory) के बारे में कहा जाता है कि इस का संकेत कार्ल मार्क्स के भारत में चल रहे ब्रिटिश साम्राज्य के उपर लिखे हुए लेखों में है. लेकिन वह यूरोसेंट्रिक है. इसलिए उसमें भारतीय धर्म संस्कृति तथा जातिवाद के बारे में कार्ल मार्क्स ( 1818-1883 ) का अध्ययन नहीं होने की वजह से अधूरा है.

बहुत संभावना है कि दादा भाई नौरोजी ने कार्ल मार्क्स के लेखों को भी पढ़ा होगा. लेकिन भारत में जन्म होने के कारण उन्होंने कुछ हद तक भारतीयता का उपयोग किया है. लेकिन उनके ही हमउम्र ज्योतिबा फुले (1827 - 1890 ) दादा भाई से सिर्फ दो साल के बाद पैदा हुए थे. लेकिन उनका भारतीय जातिवाद के खिलाफ चल रहा आंदोलन का परिणाम उनके लेखन में दिखाई नहीं दे रहा है. हो सकता है वह पारसी समाज और बंबई जैसे शहर में पले बढ़े थे. लेकिन बड़ौदा महाराज की रियासत के दीवान की हैसियत से 1874 के अगस्त में पदभार सम्हाला था. बड़ौदा महाराज का महात्मा फुले के जाति व्यवस्था के खिलाफ चल रहा प्रयास को पूरा समर्थन था. इस कारण से मुझे लगता है कि दादा भाई नौरोजी जैसे संवेदनशील व्यक्ति को हिंदुओं के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करने का मन नहीं रहने की संभावना दिखाई देती है. सबसे पहले राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर ज्यादा ध्यान देना उनकी प्राथमिकता रही होगी. हालांकि ज्योतिबा फुले जी का जातिवाद के वजह से पिछड़ा समाज की आर्थिक स्थिति को लेकर गुलामगिरी (1873) और हंटर कमिशन को लिखा हुआ निवेदन( 1882) मतलब दादा भाई नौरोजी के भारतीय गरीबी के ऊपर लिखने का समय 1876 और 1901 के दौरान का है. यह देखते हुए लगता है कि दोनों भी अपने विषयों पर लिखने तथा अपने कामों में व्यस्त थे.

कार्ल मार्क्स - ज्योतिबा फुले - दादा भाई नौरोजी फ्रेडरिक एंगल्स (1820 - 1895) चारों महानुभावों का कार्य काल काफी आसपास का होने के बावजूद उस समय के सूचना संचार के साधनों के अभाव के वजह से शायद एक दूसरे के साथ विचार और अपने कार्यों की जानकारी मिलती हुई दिखाई नहीं दे रही है.

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के समय दादाभाई 32 साल की उम्र के थे. और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के समय (1885) 60 साल की उम्र के थे. और उसके बाद काँग्रेस के तीन बार (1886-87 , 1893-94, 1906 -7) अध्यक्ष रहे. उसके पहले वह 1874 बड़ौदा राज के दीवान भी रहे हैं. मुंबई के एल्फिन्स्टन कॉलेज से 1845 में वह पहले भारतीय थे, जिन्होंने ग्रेजुएट की शिक्षा प्राप्त करने के बाद, उसी कॉलेज में पहले प्रोफेसर (1854) नियुक्त हुए थे. 92 साल की जीवनयात्रा में, पारसी धार्मिक परिवार में पैदा होने की वजह से शुरुआती शिक्षा पारसी धार्मिक स्कूल के बाद, अंग्रेजी स्कूल और बाद में स्नातकोत्तर महाविद्यालयीन शिक्षा एल्फिन्स्टन कॉलेज से प्राप्त की. व्यापार तथा वित्तीय लेनदेन का ज्ञान जन्म से ही अपने परिवार मे घुट्टी जैसा मिला था. पहली भारतीय कंपनी कामा एंड कंपनी में नौकरी के बाद खुद की ही कपास की कंपनी दादा भाई नौरोजी कंपनी के नाम से इंग्लैंड में शुरू की थी. और इसी कारण उन्होंने अंग्रेजी राज में भारत के आर्थिक शोषण कैसे हो रहा है ? इसे उजागर करने का काम किया. उसी दौरान उन्होंने गुजराती भाषा में रास्त गोफ्तार (THE TRUTH TELLER ) शीर्षक से एक अखबार भी शुरू किया था. और पारसी समाज के अंदर समाज सुधार करने के लिए रहनुमाई मझदासन सभा की स्थापना भी की थी.

(1851) मतलब दादा भाई नौरोजी के प्रदीर्घ जीवन की यात्रा का समय अपने समाज की सुधार से लेकर भारत को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति दिलाने के लिए जद्दोजहद करने की यात्रा रही है.

1757 कि प्लासी की लड़ाई की जीत के उपरांत भारत में अंग्रेजी राज की शुरुआत होने के बाद, लॉर्ड क्लाइव नवाब सिराजउद्दौला की राजधानी मुर्शिदाबाद की संपन्नता देखकर बहुत प्रभावित हुआ था. और मुर्शिदाबाद के कुछ लोग लंदन के लोगों से भी ज्यादा संपन्न स्थिति में देखकर, अंग्रेजों ने सबसे पहले उसके कारणों की खोज करने के बाद ( 1787 ) पाया था. ढाका से इंग्लैंड को 3 लाख पौंड का कपड़ा भेजा गया था. जो 1817 में अंग्रेजी सत्ता कायम होने के बाद बेतहाशा टैरिफ लगाने से लगभग इंग्लैंड को भेजना असंभव हो गया. और भारतीय कपास को इंग्लैंड ले जाकर इंग्लैंड की कपड़ा मिलों से कपडा बनाकर नाममात्र टैरिफ की वजह से सस्ते दाम पर भारत के बाजार में बेचने की शुरुआत की. यह देखकर वर्तमान समय में डोनाल्ड ट्रंप के तरफ से शुरू किया गया टैरिफ युद्ध की शुरुआत दो सौ साल पहले से शुरू करने का इतिहास दिखाई दे रहा है.

शुरू मे अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से भारत में व्यापार करने के लिए ही आए थे. और इसी बात पर दादा भाई नौरोजी ने महात्मा गाँधी के जन्म से एक वर्ष पहले 1870 में ईस्ट इंडिया एसोसिएशन की स्थापना लंदन में करने के बाद उसके बैनर से कॅक्सटन हॉल की सभा में वित्तीय अनुशासन के साथ अंग्रेज भारत के सत्ताधारी बनने के बाद भारत की संपत्ति उस समय मुख्यतः कृषि, खनिकर्म और वनोपजों तथा नमक उत्पादन पर लगान से जमा की गई संपत्ति को लेकर, दर्जनों सरकारी रेकॉर्ड्स को खंगालने के बाद तैयार की हुई जानकारी विश्व पटल पर रखने का पहला प्रयास किया.

भारतीय आजादी के आंदोलन का वित्तीय आधार पर की जाने वाली शोषणकारी व्यवस्था की बौद्धिक बहस की नींव डालने का ऐतिहासिक काम दादाभाई ने किया, जो बाद में त्रिनिदाद, इंडोनेशिया तथा घाना जैसे देशों के स्वतंत्रता संग्राम के लिए भी काम में आई.

अंग्रेज नोकरशाहों तथा सैनिकों की तनख्वाह तथा विभिन्न प्रकार के भत्तों के माध्यम से पैसे और भारत का कृषि तथा धातु और नैसर्गिक संपत्ति का दोहन इंग्लैंड में ले जाना इस प्रक्रिया को दादा भाई नौरोजी ने ड्रेन ऑफ वेल्थ थेअरी को उजागर करने के लिए ( Poverty of India ) 1876 अंग्रेजी राज के शुरुआती दौर के 20 साल में ही भारत की दरिद्रता तथा सूखे (famine) की शुरुआत को उजागर करने की कोशिश की. और उसके बाद उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत में ही भारत की गरीबी और भारत में अंग्रेजी राज ( Poverty and Un British Rule in India) शीर्षक की किताब 1901 में लिख. इस तरह से अंग्रेजी राज की भारत में चल रहे बेतहाशा लूट को तथ्यों को आधार पर उजागर करने की शुरुआत अंग्रेजों के ही रेवेन्यू तथा आर्थिक लेनदेन के आकड़ों के आधार पर ही, इन किताबों को लिखा. इसलिए दादा भाई नौरोजी को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का पितामह बोला जाता है. क्योंकि अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ भारत में आने वाली पीढी के मन में असंतोष पैदा करने के लिए दादा भाई, रमेश चंद्र दत्त, तथा गोपाल कृष्ण गोखले ने भी दादा भाई नौरोजी की ड्रेन थेयरी में भारत की संपत्ति को इंग्लैंड में ले जाने की प्रक्रिया का समर्थन करते हुए भारत के स्वतंत्रता संग्राम को मजबूती प्रदान करने का काम किया. दादा भाई नौरोजी ने ड्रैन थेयरी उपमा देने की वजह से उसमें के आकड़ों के बारे में जरूर विवाद रहा है? लेकिन भारत से इंग्लैंड में बेतहाशा संपत्ति अलग - अलग माध्यम से ले जा रहे हैं, यह तथ्य यूरोपीय समाजवादी और अमेरिकी प्रगतिशील विचारकों को भी प्रभावित किया, जो उपनिवेशवाद के आर्थिक शोषणकारी व्यवस्था के बारे में सोच रहे थे.

यही बात ब्रिटिश जनता के भी सामने रखने में दादा भाई नौरोजी कामयाब होने के वजह से ही 1892 में लंदन के फिल्सबरी संसदीय क्षेत्र से ब्रिटिश संसद में चुनकर जाने वाले पहले भारतीय सदस्य थे. और संसद के एक - एक क्षण का उपयोग भारतीय हितों का ध्यान रखते हुए उपयोग किया था.

92 वर्ष के जीवन का सबसे बड़ा समय अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ देश और दुनिया में अलख जगाने वाले दादा भाई नौरोजी के जन्म की दो सौ साल की द्विशताब्दि के अवसर पर विनम्र अभिवादन.

डॉ. सुरेश खैरनार,

3 सितंबर 2025, नागपुर.