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स्वदेशी पर प्रेरणा अंशु के सम्पादक वीरेश कुमार सिंह का अत्यंत प्रासंगिक समसामयिक-लेख

Prerna Anshu editor Veeresh Kumar Singh's most relevant contemporary article on Swadeshi

जबसे प्रधानमंत्री मोदी जी ने टीवी पर आकर राष्ट्र और राष्ट्रवासियों को सम्बोधित करते हुए उनसे आत्मनिर्भर बनने व स्वदेशी अपनाने का आहवान किया है तबसे उनके अनुयायी जिन्हें सामान्यतः भक्त कहने का चलन हो चुका है, एक बार पुनः पाजामे से बाहर आ चुके हैं। बीस लाख करोड़ के पैकेज  की भी तमाम सम्भव तौर-तरीकों से प्रशंसा-अनुशंसा की जा रही है और विपक्षियों जिनमें से ज्यादातर भक्तघोषित तौर पर या तो चमचे हैं या राष्ट्रद्रोही की

भी लानत-मलानत की जा रही है। दूसरी ओर से भी काउंटर जारी है।

इन सबके बीच मुझे अपने बचपन और किशोरावस्था के बीच का एक किस्सा बहुत याद आ रहा है। थोड़ा बहुत लिखना आता है तो सोचा कि क्यों न आप लोगों से भी उस किस्से को शेयर किया जाए!

बात उस समय की है जब भारत में नवउदारवादी नीतियों का दौर (The era of neoliberal policies in India) प्रारम्भ हुआ था। शायद 1992 के आसपास। उस समय भाजपा, आरएसएस और कई अन्य संगठनों के द्वारा इनका विरोध किया जा रहा था। डंकल प्रस्ताव पर स्वीकृति को निरस्त करने और कई अन्य मांगों के साथ ‘स्वदेशी जागरण मंच(Swadeshi Jagran Manch) नाम का संगठन बना कर देश भर में प्रदर्शन व सभाएं की जा रही थीं। छोटी-छोटी पुस्तिकाएं छाप कर बांटी जा रही थीं जिनमें से कुछ आज भी मेरे पास पुस्तकालय में सुरक्षित हैं। पापा उस समय आरएसएस व भाजपा

के सक्रिय कार्यकर्ता हुआ करते थे, इसलिए जाहिर था कि स्वदेशी जागरण का यह ज्वार हम सबकी रगों में भी दौड़ रहा था। मैं उस समय कक्षा 6 या 7 में रहा होउंगा शायद। राजनीति समझ भले ही न आती हो पर घर में लगातार राजनीतिक लोगों के आवागमन और उनकी परस्पर बातचीत को सुनकर इतना अवश्य समझ आता था कि देश किसी बड़े खतरे में है और ईस्ट इण्डिया कम्पनी जैसी सैकड़ों कम्पनियां भारत में आ चुकी हैं और देश फिर से गुलाम बनने की ओर अग्रसर है। ऐसे में देश को नई गुलामी से बचाने के लिए ‘विदेशी भगाओ-स्वदेशी अपनाओ‘ का नारा हमारा पसंदीदा नारा बन चुका था।

इसी समय दिनेशपुर में स्वदेशी आंदोलन से जुड़ी एक साध्वी का आगमन हुआ। शाम को दुर्गा मंदिर प्रांगण में उनकी सभा का कार्यक्रम था। सभा हुई। साध्वी जी ने अपनी प्रसिद्धि के अनुरूप ही अपने चिर-परिचित अंदाज में गर्मागर्म भाषण दिया। मुझे भी उनका भाषण बहुत पसंद आया। एक-एक वाक्य से शरीर में सिहरन दौड़ जाती थी। गर्म लहू नसों में दुगनी तेजी के साथ दौड़ने लगता था। बीच-बीच में भीड़ के बीच से उठते नारे और तालियाँ उत्तेजना को और अधिक बढ़ा देते थे।

खैर भाषण से कभी कुछ हुआ था जो उस दिन होता!

सभा समाप्त हुई, साध्वी और उनके साथ आई टीम का रात्रि विश्राम दिनेशपुर में ही था। सात-आठ लोगों की पूरी टीम का एक साथ कहीं पर रुक पाना सम्भव नहीं था सो उनके लिए अलग-अलग कार्यकर्ताओं के घरों में रहने का प्रबंध करा दिया गया। एक भगवा वस्त्रधारी महानुभाव का हमारे घर में रुकना तय हुआ। हालांकि उस समय हम स्वयं किराए के मकान में रहते थे, पर देशप्रेम यही तो है।

मुझे अच्छी तरह से याद है कि उस दिन साधारण से अच्छा भोजन बना था घर में। उन महानुभाव का हमारे घर में रुकना मुझे दो कारणों से अच्छा लग रहा था, एक तो यह कि एक देशभक्त की सेवा का अवसर मिल रहा था और दूसरा कि उनके कारण कुछ स्पेशल भोजन मिला था।

सुबह हुई। मम्मी ने नया तौलिया उनके लिए निकाल कर दिया पर उन्होंने यह कहते हुए मना कर दिया कि नहीx बहन जी हम अपना जरूरत का सारा सामान साथ में लेकर चलते हैं।

सुबह उठते ही उन्होंने कुछ मंत्रोच्चार के साथ अपनी दिनचर्या आरम्भ की। लैट्रीन से आने के बाद जब उन्होंने बैग से ब्रश और पेस्ट खंगाला तो पता चला कि उनका टूथपेस्ट उनके साथी के बैग में रह गया है जो उसने पिछली सुबह उधार के तौर पर माँग लिया था और उन्हें वापस लेने का ध्यान नहीं रहा। मम्मी ने घर में मौजूद बबूल पेस्ट लाकर दिया तो उन्होंने मना कर दिया बोले कि उनके दाँतों में कुछ प्रॉब्लम है इसलिए उन्हें क्लोजअप करने की आदत है। हमारे यहाँ केवल बबूल पेस्ट या डाबर का लाल दंत मंजन ही इस्तेमाल होता था। झट से उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया और कछ पैसे देकर क्लोजअप लाने के लिए बोला।

मैंने फटाफट कपड़े पहने और बाजार जाने के लिए साइकिल निकाली। उस समय नई-नई साइकिल सीखी थी हालांकि गद्दी पर बैठ कर पैर पैडल तक नहीं जाते थे इसलिए कैंची चलाता था। जो लोग नहीं जानते उनको बताना चाहुंगा कि साइकिल के हैण्डल को एक साइड से पकड़ कर दूसरे हाथ से बगल को गद्दी पर जमा कर पंजे से डंडे को पकड़ कर लटक जाना और फिर ताबड़तोड़ पैडल मारना ही कैंची चलाना होता है।

खैर अजीत लाला जी की दुकान पर आकर मैंने पैसे दिए और क्लोजअप लिया। आदतन उसमें कम्पनी का नाम पढ़ा तो लिखा था-‘हिन्दुस्तान यूनीलीवर‘। मैं अकबका गया। लाला जी को पैकेट वापस करके बोला कि ये वाला नहीं स्वदेशी वाला क्लोजअप दो।

लाला जी हंसते हुए बोले कि बेटा हमारे पास तो यही है, ले जाओ पसंद न आए तो वापस दे जाना। मैंने वह पैकेट लिया और वापस घर की ओर चल पड़ा। घर आकर उन महानुभाव को पैकेट दिखाकर पूछा कि क्या यह सही पैकेट है।

उन्होंने शाबास और न जाने क्या-क्या आशीर्वाद देते हुए वह पैकेट ले लिया और अपने नित्यकर्म से निपट कर चले गए।

उस समय मुझे ज्यादा कुछ तो समझ नहीं आया पर इतना जरूर समझ गया था कि हाथी के दाँत दिखाने के और, खाने के और होते हैं। कथनी और करनी में बहुत अंतर होता है यह मैं समझ गया था।

आज लगभग 28 साल बाद फिर से स्वदेशी के प्रति लोगों में अनुराग उमड़ता हुआ देख रहा हूँ। पर यहाँ भी कथनी और करनी का दोगलापन साफ दिखाई दे रहा है।

चाइनीज फोन का इस्तेमाल करते हुए चाइनीज सामानों के बहिष्कार का आहवान किया जा रहा है। एक ओर शत-प्रतिशत एफडीआई को मंजूरी देकर विदेशी निवेशकों को रिझाने और देश में बुलाने की कवायदें चल रही हैं तो दूसरी ओर स्वदेशी को अपनाने की बात की जा रही है।

जरा सोचिए जिस इण्टरनेट का हम इस्तेमाल कर रहे हैं क्या उसका बहिष्कार कर सकते हैं? क्या हम अरब कंट्रीज से आने वाले पेट्रोलियम का बहिष्कार कर सकते हैं? क्या यह सच नहीं है कि आज हमारे घरों में इस्तेमाल हो रही एक छोटी सी सुई से लेकर बड़ी मशीनों तक ज्यादातर वस्तुएं विदेशी कम्पनियों की बनाई हुई हैं?

हकीकत यह है कि हम सामरिक उपकरणों से लेकर दवाइयों, उर्वरकों, बहुत से खाद्य पदार्थों के लिए आज भी आयात पर पूर्णतया निर्भर हैं। ऐसे में क्या विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार हमारे लिए वैश्विक स्तर पर नई आर्थिक-राजनैतिक चुनौतियों को खड़ा नहीं करेगा?

वास्तव में यदि सरकार स्वदेशी के प्रति ईमानदार होती तो वह आयात के नियमों में ढ़ील देने के बजाय उनको और कठोर बनाती। शुल्को-प्रशुल्कों में वृद्धि करके आयात को महँगा बनाया जाता ताकि स्वदेशी वस्तुएं सस्ती होतीं और उन्हें ज्यादा से ज्यादा लोगों द्वारा खरीदा जा सकता। एक सवाल और भी है कि पिछले छह सालों में माननीय प्रधानमंत्री महोदय ने विश्व के लगभग हर छोटे से लेकर बड़े देश की यात्रा क्या स्वदेशी को प्रोत्साहन देने के लिए की है? जाहिर सी बात है कि उत्तर नहीं में मिलेगा।

आज का समाज न सिर्फ जटिल है बल्कि हमारी पारस्परिक निर्भरता भी एक-दूसरे पर बहुत अधिक बढ़ गई है। आज कोई भी देश अलग-थलग रह कर या दूसरे देशों का बहिष्कार करके आगे नहीं बढ़ सकता है। यह एक कटु सत्य है जिसे हमें स्वीकार करना चाहिए।

 वीरेश कुमार सिंह Veeresh Kumar singh सम्पादक प्रेरणा-अंशु (मासिक) दिनेशपुर, ऊधम सिंह नगर, उत्तराखंड वीरेश कुमार सिंह
सम्पादक
प्रेरणा-अंशु (मासिक)
दिनेशपुर, ऊधम सिंह नगर, उत्तराखंड

  पूँजीपति का चरित्र (Capitalist character) सभी जगह एक सा ही होता है चाहे वह देशी हो या विदेशी। मुनाफाखोरी उनका प्रमुख एजेण्डा होता है और वह आपदा में अवसर तलाश लेते हैं। कोरोना काल में आवश्यक वस्तुओं के दामों में बेतहाशा वृद्धि इस बात को सिद्ध करती है।

मैं भी स्वदेशी का पक्षधर हूँ पर स्वदेशी को राजनीति का टोटका बनाए जाने के खिलाफ हूँ। इस सम्बन्ध में गाँधी के ग्राम स्वराज के साथ मेरी पक्षधरता रहती है लेकिन वह भी आज के प्ररिप्रेक्ष्य में असम्भव सा ही जान पड़ता है।

आज आवश्यकता स्वदेशी या विदेशी पर बहस की नहीं बल्कि इस बात की है कि आम जनता का शोषण कैसे रोका जाए। गरीबों-मजदूरों-बेरोजगारों-महिलाओं-बच्चों को कैसे सम्मानजनक जिंदगी जीने के अवसर उपलब्ध कराए जाएं। निरंकुश या सत्ता के अनुकूल कार्य करने वाली पुलिसिंग को कैसे लोकतांत्रिक बनाया जाए।

हम ‘वसुधैव कुटुम्बकम्‘ की संस्कृति में विश्वास रखते हैं, सबको आत्मसात करने की हमारी विशेषता रही है न कि बहिष्कार करने की। इसे बनाए रखें और मजबूत करें।

-वीरेश कुमार सिंह

सम्पादक

प्रेरणा-अंशु (मासिक)

दिनेशपुर, ऊधम सिंह नगर, उत्तराखंड

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