आरएसएस की शताब्दी और एबीवीपी की जड़ें

कैसे गांधी हत्या के बाद आरएसएस ने एबीवीपी के रूप में नया चेहरा तैयार किया।

प्रतिबंध और पुनर्जन्म — एबीवीपी का उदय

  • 1948 में आरएसएस पर लगे प्रतिबंध के बाद छात्र संगठन के रूप में एबीवीपी की स्थापना की कहानी।

आरक्षण और सामाजिक न्याय के सवालों पर एबीवीपी की भूमिका

  • मंडल आयोग से लेकर रोहित वेमुला तक—संगठन की राजनीति ने सामाजिक न्याय को कैसे प्रभावित किया।

जेएनयू और नया प्रोपेगैंडा — पुरानी रणनीति का आधुनिक रूप

  • कैंपस राजनीति में “राष्ट्रवाद बनाम राष्ट्रविरोध” का नया नैरेटिव कैसे गढ़ा गया।

डॉ. अंबेडकर का प्रतिवाद और आरएसएस की विचारधारा

  • अंबेडकर का बौद्ध धर्म अपनाना—आरएसएस के विचार के खिलाफ ऐतिहासिक जवाब…

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) इस वर्ष अपनी शताब्दी मना रहा है। सौ साल का यह सफर केवल शाखाओं, प्रार्थनाओं और स्वयंसेवकों तक सीमित नहीं है। इस दौरान संघ ने अनेक सहयोगी संगठनों को जन्म दिया, जिनके जरिए उसने भारतीय समाज के अलग-अलग क्षेत्रों में पैठ बनाई। इनमें सबसे महत्वपूर्ण नाम है अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी), एक ऐसा छात्र संगठन जिसे आरएसएस ने युवाओं और विश्वविद्यालयों के बीच अपनी विचारधारा फैलाने के लिए तैयार किया।

एबीवीपी किसी छात्र आंदोलन से नहीं निकला था, बल्कि यह आरएसएस द्वारा बनाया गया एक फ्रंटल संगठन था। इसका गठन गांधी जी की हत्या के बाद हुआ था, जब आरएसएस सार्वजनिक गुस्से से बचने के लिए छिप रहा था।

आरएसएस की स्थापना 1925 में नागपुर में हुई थी। स्वतंत्रता संग्राम के दौर में गांधी, नेहरू, पटेल, भगत सिंह और सुभाषचंद्र बोस जैसे नेता जनांदोलनों और जेल यात्राओं के जरिये साम्राज्यवाद को चुनौती दे रहे थे, वहीं संघ ने अंग्रेज़ी सत्ता के खिलाफ प्रत्यक्ष संघर्ष में भाग नहीं लिया, बल्कि पत्र लिखकर मुखबिरी करने के काम में लिप्त रहा और अंग्रेजों का सहायक बना रहा। उसके संस्थापक और बाद के प्रमुख नेताओं ने अपने लेखन और भाषणों में मुसलमानों और ईसाइयों के प्रति अविश्वास को मुख्य विषय बनाया। इस पृष्ठभूमि में एबीवीपी का उदय समझना ज़रूरी है।

गांधी हत्या के बाद संघ की रणनीति

विभाजन के दौरान समाज में जहर घुल रहा था, जिसमें आरएसएस और मुस्लिम लीग दोनों की भूमिका थी। सरदार पटेल ने भी माना था कि इन गतिविधियों से समाज में विष फैल रहा है, जिसके कारण गांधी जी की हत्या हुई। नेहरू ने भी आरएसएस की इन गतिविधियों को देशविरोधी करार दिया था।

30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे द्वारा महात्मा गांधी जी की हत्या भारतीय राजनीति में निर्णायक मोड़ थी। गोडसे का हिंदू महासभा और आरएसएस दोनों से संबद्ध होना संघ के लिए संकट बन गया। अनेक समकालीन रिपोर्टों के अनुसार आरएसएस कार्यकर्ताओं ने गांधी हत्या के बाद मिठाई बांटी। यह घटना गांधी जी की धार्मिक सहिष्णुता और अहिंसा के सिद्धांतों के प्रति गहरे वैचारिक विरोध का संकेत थी।

सरदार वल्लभभाई पटेल, जो पहले आरएसएस के प्रति सहानुभूतिपूर्ण माने जाते थे, को निर्णायक कदम उठाना पड़ा। 4 फरवरी 1948 को उन्होंने आरएसएस पर प्रतिबंध लगाया। सरकार के बयान में साफ कहा गया कि “देश की स्वतंत्रता और उसके उज्ज्वल नाम को कलंकित करने वाली नफ़रत और हिंसा की ताक़तों को समाप्त करने” के लिए यह ज़रूरी है।

इस प्रतिबंध ने संघ को संगठनात्मक संकट में डाल दिया, जिससे शाखाएं चलाना मुश्किल हो गया। विचारक के.एन. गोविंदाचार्य के शब्दों में, “संघ सामान्य बैठकों को जारी रखने के लिए किसी रास्ते की तलाश में था, अधिकतर स्वयंसेवक उस समय युवा थे, इसलिए उसने एबीवीपी के नाम से बैठकें शुरू कीं।”

एबीवीपी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजकुमार भाटिया ने भी स्वीकार किया कि “गांधी हत्या के बाद लगे प्रतिबंध ने एक नए मुखौटे की ज़रूरत पैदा की।”

एबीवीपी की गतिविधियां 1948 में शुरू हुईं और 9 जुलाई 1949 को इसका रजिस्ट्रेशन हुआ। केवल दो दिन बाद, 11 जुलाई को आरएसएस पर से प्रतिबंध हटा लिया गया। इसके बाद 1950 और 1960 के दशक में यशवंतराव केलकर ने इसे राष्ट्रीय स्तर पर मज़बूत बनाया। आरंभिक वर्षों में इसे ‘शाखा के विकल्प’ के रूप में देखा गया।

विश्वविद्यालय : स्वतंत्र विचारधारा से वैचारिक कब्ज़े तक

विश्वविद्यालय स्वतंत्र विचार और बहुलतावादी बहस के केन्द्र माने जाते हैं। लेकिन हाल के वर्षों में एक नई प्रवृत्ति दिखती है, आरएसएस की विचारधारा से जुड़े लोग विश्वविद्यालयों में कुलपति, प्रोफेसर और रजिस्ट्रार जैसे प्रमुख पदों पर पहुंचाए जा रहे हैं और इनका छात्र संगठनों के बीच भी एक स्पष्ट झुकाव बनाया गया है। नेशनल बनाम एंटी-नेशनल, हिंदुत्व बनाम एंटी-हिंदुत्व और सनातन बनाम एंटी-सनातन जैसी बहसों को सुनियोजित तरीके से खड़ा किया जाता है। इन बहसों का मकसद छात्रों को असली मुद्दों फंड कटौती, बेरोजगारी, छात्र आत्महत्याएं, पेपर लीक से भटकाना है।

एबीवीपी का इतिहास (History of ABVP) दर्शाता है कि यह संगठन शुरू से ही आंदोलनों के बीच ‘रणनीतिक’ मौजूदगी बनाता है। आपातकाल के दौरान जब जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में छात्र नेता जेल में थे, तब एबीवीपी ने जेल में बंद समाजवादी नेताओं से नजदीकियां बनाईं और सरकार के खिलाफ माहौल को और तीखा करने का काम किया।

मंडल आयोग की सिफारिशों के खिलाफ इसका आक्रामक अभियान भी इसी पैटर्न का हिस्सा था।

एबीवीपी ने संविधान द्वारा प्रदत्त सामाजिक न्याय को “एंटी-मेरिट” बताकर विरोध किया। दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र राजीव गोस्वामी द्वारा आत्मदाह का प्रयास इस विरोध का प्रतीक बन गया। बाद के वर्षों में ओबीसी आरक्षण लागू करने, जेएनयू में आरक्षण नीति पर विवाद, और विश्वविद्यालयों में पिछड़े वर्गों के प्रतिनिधित्व पर हमले ये सब उदाहरण दिखाते हैं कि संगठन ने अक्सर सामाजिक न्याय के एजेंडे को कमजोर करने की कोशिश की।

जब लाखों लोग भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन (Anti-Corruption Movement) में शामिल हुए, तब एबीवीपी ने उसे व्यवस्थित रूप से परजीवी की तरह अपने पक्ष में करने की कोशिश की। मुख्य आंदोलन पर नियंत्रण न कर पाने की स्थिति में उसने प्रतिद्वंदी यूथ अगेंस्ट करप्शन (Youth Against Corruption) जैसे समूह बनाए।

दलित-पिछड़ा विरोध और वैचारिक द्वंद्व

एबीवीपी की कार्यप्रणाली यह दर्शाती है कि यह संगठन दलितों और पिछड़ों के खिलाफ लगातार मोर्चाबंदी करता रहा है। जब अर्जुन सिंह ने विश्वविद्यालयों में पिछड़ों को आरक्षण दिया, तब एबीवीपी ने पूरे देश में आंदोलन छेड़ा। जेएनयू में ओबीसी आरक्षण न लागू हो, यूथ अगेंस्ट करप्शन (एबीवीपी के सहयोगी) ने अकादमिक बिल्डिंग के बाहर झाड़ू लगाकर विरोध दर्ज कराया।

रोहित वेमुला की आत्महत्या (Rohit Vemula's suicide) के बाद भी एबीवीपी ने ऐसी गतिविधियां कीं जिससे बहस मुद्दे से हटकर राष्ट्रवाद बनाम राष्ट्रविरोध के फ्रेम में चली गई।

जेएनयू के एक इवेंट की डॉक्टर्ड वीडियो और उनके बाद देश भर में चले अभियानों ने यह धारणा बनाई कि सरकार से सवाल करने वाले राष्ट्रविरोधी हैं।

पिछले कुछ वर्षों में एबीवीपी ने अपना तरीका बदला है। अब वह छात्रवृत्ति, हॉस्टल मरम्मत, प्लेसमेंट जैसी “व्यावहारिक” गतिविधियों के जरिए छात्रों को जोड़ता है। यह सुनने में मददगार लगता है, लेकिन यही जाल है, तत्काल समस्याओं को हल करने का दावा करते हुए यह व्यापक नीतिगत सवालों से छात्रों को दूर रखता है।

यह “सेवा” धीरे-धीरे सांस्कृतिक कार्यक्रमों और वैचारिक संदेशों में बदल जाती है, जिनमें प्रणालीगत समस्याओं को बाहरी “खतरों” के रूप में प्रस्तुत किया जाता है और छात्र धीरे-धीरे यह मानने लगते हैं कि व्यवस्था में परिवर्तन की मांग करना ही देशद्रोह है।

सामाजिक वैज्ञानिकों और इतिहासकारों का मानना है कि युवा स्वाभाविक रूप से सरकार विरोधी होते हैं, वे ‘स्टेटस को’ (status quo)/ यथास्थिति को चुनौती देते हैं और अपने अधिकारों की बात करते हैं। फिर भी आज, भीषण बेरोजगारी, पेपर लीक और छात्रों की आत्महत्याओं के बावजूद बड़े पैमाने पर छात्र सड़क पर नहीं उतर रहे हैं। इसका एक बड़ा कारण आरएसएस और एबीवीपी की वह रणनीति, जो युवाओं की ऊर्जा को मुद्दों से हटाकर सांस्कृतिक-राष्ट्रवादी बहसों में खपाती है।

14 अक्टूबर 1956 को डॉ अंबेडकर का बौद्ध धर्म में धर्मांतरण एक सशक्त प्रतिवृत्तांत प्रस्तुत करता है, उन्होंने हिंदू सामाजिक व्यवस्था को स्पष्ट रूप से अस्वीकार किया और बौद्ध धर्म को अपनाया, जो उस विचारधारा पर सीधे प्रहार के समान था जिसका प्रतिनिधित्व आरएसएस करता है। इस धर्मांतरण में शामिल 4 लाख दलितों ने उस व्यवस्था को सामूहिक रूप से ठुकराया, जिसे आरएसएस बनाए रखना चाहता था।

जब आरएसएस अपनी स्थापना का उत्सव मना रहा है, यह याद रखना आवश्यक है कि इसी काल में अंबेडकर ने हिंदू परंपरावाद को ऐतिहासिक रूप से ठुकराकर बौद्ध धर्म अपनाया जो वास्तविक समानता का मार्ग प्रस्तुत करता है और मूल रूप से आरएसएस की विचारधारा के विपरीत है।

जेएनयू और हालिया प्रॉपगैंडा : पुराने पैटर्न का नया रूप

जेएनयू में हुई घटना इसका ताजा उदाहरण है। एबीवीपी ने शरजील इमाम और उमर खालिद जैसे छात्रों के पुतले दहन किए, जबकि पुतला दहन तो बेरोजगारी, वोट चोरी, छात्रों की आत्महत्या, किसानों की आत्महत्या जैसे मुद्दों का होना चाहिए था। इसके बजाय, जो बात गाँधी हत्या के बाद जवाहरलाल नेहरू ने आरएसएस की गतिविधियों को लेकर (देश विरोधी) कही थी, आज वही बातें उल्टे एक फेक प्रोपेगंडा के तहत नेहरू के नाम से जुड़े संस्थान पर दोहराई जा रही हैं।

आरएसएस अपनी शताब्दी वर्ष मना रहा है, और एबीवीपी जो कि आरएसएस का “बगल बच्चा” संगठन है, अन्य लोगों को जो प्रगतिशील सोच के हैं, उन्हें ही राष्ट्रविरोधी ठहरा रहा है।

अन्य विश्वविद्यालयों की ओर देखें तो इलाहाबाद से लेकर बीएचयू, हैदराबाद यूनिवर्सिटी, जामिया और जेएनयू होते हुए डीयू तक, हमें एक ही पैटर्न दिखाई देता है। एबीवीपी कैसे कैंपसों में जानबूझकर नेशनल बनाम एंटी-नेशनल, हिंदुत्व बनाम एंटी-हिंदुत्व, और सनातन बनाम एंटी-सनातन जैसी बहसें खड़ी करता है, जो कि आरएसएस के मुखौटे के तौर पर काम करता है। इन बहसों का उद्देश्य आम छात्रों, प्रगतिशील प्रोफेसरों और शिक्षकों को निशाना बनाना है, जो नेशन बिल्डिंग के लिए काम करते हैं और सरकार से सवाल करते हैं।

सवाल यह है कि जब देश में भयंकर बेरोजगारी, सामाजिक विषमता गहरी हो रही हो, छात्रों के आत्महत्या की दर, विश्वविद्यालयों के फंड कट्स और दलित-पिछड़ा वर्ग के छात्रों के प्रतिनिधित्व की बात होनी चाहिए, तब ये संगठन ऐसी साजिशें क्यों करते हैं? यह साफ तौर पर दिखाता है कि इनकी रणनीति छात्रों को गुमराह करना और असली मुद्दों से ध्यान भटकाना है।

अखिलेश यादव

लेखक जेएनयू से सेंटर फॉर हिस्टॉरिकल स्टडीज के रिसर्च स्कॉलर है और इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व उपाध्यक्ष है।