क्या दिल्ली दंगों में दिए गए फैसलों की “सज़ा” भुगत रहे थे जस्टिस मुरलीधर? — जस्टिस अभय ओका का बड़ा सवाल

क्या जस्टिस मुरलीधर को 2020 दिल्ली दंगों के दौरान लिए गए साहसिक फैसलों की सज़ा मिली? जस्टिस ओका ने उठाया न्यायपालिका की नैतिकता पर सवाल;

By :  Hastakshep
Update: 2025-08-07 05:13 GMT

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क्या दिल्ली दंगों में दिए गए फैसलों की “सज़ा” भुगत रहे थे जस्टिस मुरलीधर? — सेवानिवृत्त सुप्रीम कोर्ट जज अभय ओका का बड़ा सवाल

  • जस्टिस ओका का सवाल: क्या मुरलीधर को मिला उनके फैसलों का दंड?
  • दिल्ली दंगों में मध्यरात्रि सुनवाई और साहसिक निर्णय
  • न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाम सत्ता का हस्तक्षेप
  • न्यायिक नैतिकता और संवैधानिक शपथ की कसौटी
  • पूर्व मुख्य न्यायाधीशों की तुलना: गंभीर की टिप्पणी
  • क्या ट्रांसफर एक सज़ा बन गया है?
  • सेवानिवृत्त न्यायाधीशों के लिए पदों का प्रलोभन – एक नया संकट

क्या जस्टिस मुरलीधर को 2020 दिल्ली दंगों के दौरान लिए गए साहसिक फैसलों की सज़ा मिली? जस्टिस ओका ने उठाया न्यायपालिका की नैतिकता पर सवाल।

"न्यायपालिका में नैतिकता" पर बहस

नई दिल्ली, 7 अगस्त 2025: संवैधानिक नैतिकता, न्यायिक स्वतंत्रता और सत्ता से टकराने के जोखिमों को लेकर सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस अभय एस. ओका ने एक बड़ा सवाल खड़ा किया है। उन्होंने बुधवार को एक सार्वजनिक कार्यक्रम में पूछा — "क्या दिल्ली दंगों के दौरान साहसिक निर्णय लेने के कारण जस्टिस एस. मुरलीधर को परिणाम भुगतने पड़े?"

यह टिप्पणी एक ऐसे समय आई है जब न्यायपालिका की स्वतंत्रता (Independence of the Judiciary) और कार्यपालिका से उसकी दूरी (Distance of judiciary from executive) को लेकर देश में गहरी बहस चल रही है। इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित खबर के अनुसार कार्यक्रम का आयोजन दिल्ली में "न्यायपालिका में नैतिकता" विषय पर किया गया था, जिसमें कई सेवानिवृत्त न्यायाधीशों ने भी भाग लिया।

दिल्ली दंगों के दौरान "मध्यरात्रि पीठ" का गठन और साहसिक फैसले

अपने संबोधन में जस्टिस ओका ने 2020 के दिल्ली दंगों के दौरान गठित की गई उस "मध्यरात्रि पीठ" का ज़िक्र किया, जिसमें जस्टिस एस मुरलीधर और जस्टिस अनूप भंभानी ने दंगा पीड़ितों की तत्काल मदद के लिए आधी रात को सुनवाई की थी।

जस्टिस ओका ने कहा,

“इन न्यायाधीशों ने यह सुनिश्चित किया कि फंसे हुए लोगों को सुरक्षित निकाला जाए और इस आदेश का अनुपालन भी रिपोर्ट किया जाए। यह फैसला संविधान और न्यायिक नैतिकता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का प्रतीक था।”

जस्टिस ओका का सवाल “क्या इस फैसले की उन्हें सज़ा मिली?”

गहरे व्यंग्य में जस्टिस ओका ने कहा कि जैसे हम केशवानंद भारती मामले में तीन न्यायाधीशों के बलिदान को याद करते हैं, वैसे ही हमें यह भी सोचना चाहिए कि क्या दिल्ली दंगों के दौरान साहसिक निर्णय लेने वाले न्यायाधीशों को भी इसकी “क़ीमत चुकानी पड़ी”।

जैसा कि आप जानते हैं कि जस्टिस मुरलीधर, जो 2023 में सेवानिवृत्त हुए और अब एक वकील के रूप में प्रैक्टिस कर रहे हैं, को उस पीठ में शामिल होने और दिल्ली पुलिस की निष्क्रियता पर सवाल उठाने के कुछ ही दिनों बाद दिल्ली हाई कोर्ट से पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट स्थानान्तरित कर दिया गया था।

न्यायाधीश संविधान से बंधे होते हैं, सत्ता से नहीं

जस्टिस ओका ने अपने भाषण में न्यायिक नैतिकता को लेकर एक स्पष्ट रेखा खींचते हुए कहा :

“न्यायाधीश न तो परंपराओं से बंधे होते हैं और न ही नेताओं की भावनाओं से। वे सिर्फ संविधान और अपनी शपथ से बंधे होते हैं।”

जस्टिस कैलाश गंभीर का सवाल: गणेश पूजा में प्रधानमंत्री?

कार्यक्रम में ही एक अन्य वक्ता, दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व जज कैलाश गंभीर ने दो मुख्य न्यायाधीशों की तुलना की। उन्होंने कहा कि एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश (संभावित रूप से उनका इशारा डी वाई चंद्रचूड़ की तरफ था) ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने आवास पर गणेश पूजा के लिए आमंत्रित कर संविधान में शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन किया, जबकि दूसरे (एम एन वेंकटचलैया) ने प्रधानमंत्री राजीव गांधी से मुलाकात करने से इंकार कर दिया था जब उनका प्रमोशन चल रहा था।

जजों के न्यायिक पतन पर चिंता : सेवानिवृत्त होने के बाद की नौकरियों का प्रलोभन

जस्टिस गंभीर ने अपने संबोधन में कुछ हालिया “न्यायिक अनियमितताओं” का भी उल्लेख किया।

उन्होंने कहा कि आज न्यायपालिका सिर्फ आर्थिक भ्रष्टाचार से नहीं, बल्कि "सेवानिवृत्ति के बाद की नौकरी के लालच" से भी प्रभावित हो रही है।

उन्होंने उदाहरणस्वरूप न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा (जिनके आवास से नकदी बरामद हुई थी) और जस्टिस शेखर यादव (जिन्होंने सांप्रदायिक टिप्पणी की थी) का नाम लिया। उन्होंने कहा कि वित्तीय भ्रष्टाचार के अलावा, न्यायपालिका पर न्यायाधीशों के "सेवानिवृत्ति के बाद की नौकरियों के प्रलोभन" के कारण भी हमले हो रहे हैं।

न्यायिक स्वतंत्रता बनाम सत्ता का हस्तक्षेप: बहस अभी ज़िंदा है

यह कार्यक्रम न केवल बीते फैसलों की याद दिलाता है, बल्कि मौजूदा न्यायिक माहौल पर भी गंभीर सवाल खड़े करता है कि—

  • क्या सत्ताधारी सरकार को असहज करने वाले निर्णयों का खामियाजा न्यायाधीशों को भुगतना पड़ता है?
  • क्या न्यायिक नैतिकता अब सत्ता की सहूलियत का विषय बन गई है?

जस्टिस ओका का यह सवाल — "क्या जस्टिस मुरलीधर को उनके फैसलों की सज़ा मिली?" — सिर्फ एक न्यायाधीश के ट्रांसफर पर टिप्पणी नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र और न्यायपालिका के मूलभूत संतुलन की ओर एक गंभीर इशारा है। यह सवाल सिर्फ अतीत की चर्चा नहीं, बल्कि भविष्य की न्यायिक स्वतंत्रता की गारंटी भी देता है।

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