आर्टिकल 200–201 पर सुप्रीम कोर्ट की ऐतिहासिक राय: राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियों, समयसीमा और जवाबदेही को लेकर बड़ा स्पष्टीकरण

सुप्रीम कोर्ट ने आर्टिकल 200 और 201 पर राष्ट्रपति के प्रेसिडेंशियल रेफरेंस में स्पष्ट किया कि गवर्नर व राष्ट्रपति के लिए न्यायिक समयसीमा तय नहीं की जा सकती, लेकिन अनिश्चित देरी पर सीमित हस्तक्षेप संभव है। प्रेसिडेंशियल रेफरेंस, 14 सवालों और फैसले का पूरा विश्लेषण;

By :  Hastakshep
Update: 2025-11-20 09:49 GMT

Supreme court of India

प्रेसिडेंशियल रेफरेंस पर सुप्रीम कोर्ट की सलाह—राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए ‘ज्यूडिशियल टाइमलाइन’ नहीं; संवैधानिक विवेक पर गहराई से महत्वपूर्ण टिप्पणी

नई दिल्ली, 20 नवंबर 2025. भारतीय संविधान की उन पंक्तियों पर सुप्रीम कोर्ट ने आज एक बार फिर रोशनी डाली है, जिनके बीच लंबे समय से राजनीतिक बहसों का शोर अटका हुआ था। राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए प्रेसिडेंशियल रेफरेंस का जवाब देते हुए, पांच जजों की संविधान पीठ ने साफ कर दिया कि राज्यपाल और राष्ट्रपति के फैसलों पर न्यायालय समयसीमा तय नहीं कर सकता—लेकिन अनिश्चित देरी भी संविधान की भावना के अनुरूप नहीं है। तमिलनाडु से उठी ये बहस अब पूरे देश की शासन-व्यवस्था के लिए मार्गदर्शक टिप्पणी बन गई है, जहां अदालत ने अधिकारों, दायित्वों और विवेक—तीनों का संतुलन एक बार फिर परिभाषित कर दिया है।

सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के आर्टिकल 200 और 201 के तहत राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा बिलों को मंजूरी देने की टाइमलाइन से जुड़े 14 सवालों पर प्रेसिडेंशियल रेफरेंस पर अपनी राय दे दी है। यह फैसला चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया बीआर गवई, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस एएस चंदुरकर वाली 5 जजों की बेंच ने सुनाया। 10 दिन की सुनवाई के बाद 11 सितंबर को फैसला सुरक्षित रख लिया गया था।

जानिए क्या है मामला ?

संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 के तहत विधेयकों को मंजूरी देने के लिए राष्ट्रपति या राज्यपाल के लिए कोई विशिष्ट समय सीमा निर्धारित नहीं की गई थी, जिसके कारण अक्सर विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोके रखा जाता था। हालांकि, हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसलों में इस पर समय सीमा तय करने की कोशिश की है। तमिलनाडु सरकार बनाम राज्यपाल मामले में अप्रैल 2025 के एक ऐतिहासिक फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार कुछ समय सीमाएं निर्धारित कीं, जिसके बाद राष्ट्रपति ने इस मुद्दे पर स्पष्टता के लिए एक प्रेसिडेंशियल रेफरेंस (अनुच्छेद 143 के तहत) भेजा।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित समय सीमा (अप्रैल 2025 का फैसला) :

राज्यपाल के लिए: यदि राज्यपाल किसी विधेयक पर अपनी सहमति रोकते हैं या उसे पुनर्विचार के लिए वापस करते हैं, तो उन्हें यह कार्रवाई अधिकतम तीन महीने के भीतर करनी होगी।

पुनर्विचार के बाद: यदि राज्य विधानसभा पुनर्विचार के बाद विधेयक को फिर से पारित करके भेजती है, तो राज्यपाल को एक महीने के भीतर विधेयक को मंजूरी देनी होगी।

राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित विधेयक: यदि राज्यपाल विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित करते हैं, तो राष्ट्रपति को इस पर तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा।

प्रेसिडेंशियल रेफरेंस और 14 सवाल :

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद, राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू ने मई 2025 में संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत सर्वोच्च न्यायालय से सलाह मांगी, जिसमें 14 प्रश्न शामिल थे। मुख्य प्रश्न इस बात पर केंद्रित थे कि क्या जज राष्ट्रपति के लिए टाइम लिमिट तय कर सकते हैं, जब उन्हें राज्य विधानसभाओं द्वारा पास किए गए बिलों पर कार्रवाई करनी हो।

केंद्र सरकार ने अपने लिखित जवाब में कहा कि राष्ट्रपति या राज्यपालों को राज्य के बिलों को मंज़ूरी देने या वापस करने के लिए तय डेडलाइन का पालन करने के लिए मजबूर करने से सरकार की एक ब्रांच को वे अधिकार मिल जाएँगे जो उसे संविधान में नहीं दिए गए हैं। उसने कहा कि इससे “संवैधानिक अव्यवस्था” पैदा हो सकती है।

विवाद की शुरुआत :

यह मामला तमिलनाडु सरकार की एक अर्जी से शुरू हुआ, जिसमें गवर्नर आरएन रवि के तमिलनाडु फिजिकल एजुकेशन एंड स्पोर्ट्स यूनिवर्सिटी (अमेंडमेंट) बिल, 2025 को खुद मंजूरी देने के बजाय प्रेसिडेंट को भेजने के फैसले को चुनौती दी गई थी।

सुप्रीम कोर्ट के आदेश का सारांश :

1. राज्यपाल के संवैधानिक विकल्प : गवर्नर के पास 3 संवैधानिक विकल्प हैं: मंजूरी देना, राष्ट्रपति के लिए बिल को आरक्षित करना, या बिल को रोकना और असेंबली को वापस करना।

2. राज्यपाल का विवेक : गवर्नर इन तीन विकल्पों का इस्तेमाल करते समय अपनी समझ का इस्तेमाल करते हैं।

3. कार्यों का न्यायसंगत न होना : राज्यपाल या राष्ट्रपति के कार्यों का निर्वहन न्यायसंगत नहीं है। कोर्ट मेरिट में नहीं जा सकता। लेकिन लंबे समय तक, बिना किसी वजह के, या अनिश्चित देरी होने पर, कोर्ट सीमित विवेक जारी कर सकता है। राष्ट्रपति के साथ भी ऐसा ही है।

4. न्यायिक समीक्षा पर रोक : न्यायिक समीक्षा पर पूरी तरह रोक है। लेकिन लंबे समय तक कार्रवाई न करने की स्थिति में संवैधानिक कोर्ट अपने संवैधानिक पद का इस्तेमाल कर सकता है।

5. समयसीमा तय करना : गवर्नर या राष्ट्रपति के लिए न्यायिक रूप से समयसीमा तय करना सही नहीं है।

6. राष्ट्रपति द्वारा सलाह : जब भी गवर्नर राष्ट्रपति के लिए बिल आरक्षित करते हैं, तो राष्ट्रपति को आर्टिकल 143 के तहत सलाह नहीं लेनी चाहिए।

7. बिल के स्टेज पर फैसला : बिल के स्टेज पर राष्ट्रपति और राज्यपाल का फैसला न्यायसंगत नहीं है।

8. शक्तियों में बदलाव : राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियों को आर्टिकल 142 का इस्तेमाल करके बदला नहीं जा सकता। डीम्ड असेंट का कोई सवाल ही नहीं उठता।

9. राज्यपाल की मंजूरी : राज्यपाल की मंजूरी को कोर्ट नहीं बदल सकता।

CJI ने साफ किया कि यह राय एकमत है।

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