भारतीय राजनीति में डॉ. लोहिया की प्रासंगिकता और एक पीढ़ी का वैचारिक सफर

डॉ सुरेश खैरनार का यह लेख एक प्रगतिशील कार्यकर्ता की आत्मकथात्मक शैली में डॉ. राममनोहर लोहिया के विचारों, उनके सामाजिक संघर्षों, और भारतीय राजनीति में उनकी भूमिका का विश्लेषण करता है, साथ ही आज के भारत में उनकी विचारधारा की प्रासंगिकता को उजागर करता है।

सभी प्रगतिशील साथियों के नाम खुला पत्र.

भारतीय राजनीति में डॉ. राममनोहर लोहिया मुख्यतः मानव अधिकारों तथा समता और स्वतंत्रता के मूल्यों को लेकर संवेदनशील नेता दूसरा याद नहीं आता है. और इसी लिए मेरी उम्र के तेरह - चौदह साल के दौरान आचार्य श्रीपाद केलकर और इंदूताई केलकर, राष्ट्र सेवा दल के एक शाखा चालक के हैसियत से, मेरा परिचय हुआ. और उनके इस दुनिया से जाने तक और भी घनिष्ठ होता गया था. सत्तर के दशक के शुरू में डॉ. राम मनोहर लोहिया का मराठी भाषा में पहला चरित्र लेखन और छ किताबों की सीरिज (1) समाजवादाचे नवदर्शन ( 2) जन गण मन (3) ललित लेणी (4) भारतीय फाळणी चे गुन्हेगार (5) अन्तहीन यात्रा (6) इतिहास चक्र इन छ किताबों को लोहिया के जाने के दो साल के भीतर केलकर पति-पत्नी ने मराठी भाषा में अनुवाद कर के, मेरे जैसे अहिराणी मातृभाषा वाले चौदह - पंद्रह साल के विद्यार्थी के लिये बहुत महत्वपूर्ण बात थी. क्योंकि मराठी मैं स्कूल में दाखिला लेने के बाद सीखने लगा. और हिंदी - अंग्रेजी तो राष्ट्र सेवा दल के शिविरों के कारण, क्योंकि उसी उम्र में जीवन में पहली बार, दस्तानायक - शाखानायक शिविर के लिए, पूणे में जानें के कारण वहां से सिधा मध्य प्रदेश के, हरदा, पिपरिया, भोपाल, रिवा इन जगहों पर मुझे उम्र के पंद्रह साल से भी पहले राष्ट्र सेवा दल के पदाधिकारियों द्वारा जोर-जबरदस्ती से भेजा गया था. तो 'सर दिया ओखली' में वाली कहावत के अनुसार, मुख्य रूप से भोपाल मे श्रीमती सविता वाजपेयी की कृपा से 1967 - 68 से, आपातकाल की घोषणा तक, शायद ही कोई दीपावली या गर्मी की छुट्टियां होंगी जो मैंने भोपाल में राष्ट्र सेवा दल के शाखा और शिविर आयोजित करने के कारण नहीं गुजारी होंगी. और सविताजी के लायब्ररी में हिंदी के साहित्य तथा कुछ बंगाली भाषा से हिंदी में अनुवादित यशपाल, अमृतलाल नागर, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, शरतचंद्र चॅटर्जी, बिमल मित्र, बंकिम चंद्र, रवींद्रनाथ टैगोर, राही मासूम रजा, हरिशंकर परसाई, कमलेश्वर, कृश्नचंदर, अमृता प्रीतम, प्रेमचंद, रामवृक्ष बेनीपुरी, फणीश्वर नाथ रेणु और हां गुलशन नंदा भी पॉकेट बुक में एक रूपये या बहुत ज्यादा हुआ तो दो रूपये में, एक उपन्यास ममल जाता था.

तो सविताजी के घर राष्ट्र सेवा दल के काम के अलावा हिंदी साहित्य तथा पत्र, पत्रिका सविता जी के जीवन साथी श्री. बालमुकुंद भारतीजी उर्फ भाईसाहब भोपाल से नवभारत ग्रुप के अंग्रेजी एम पी क्रॉनिकल के संपादक होने के कारण उनके घर में बनारस के आज से लेकर धर्मयुग, दिनमान, सारिका तथा मध्य प्रदेश के सभी अखबार और पत्रिकाओं का अंबार लगा रहता था. और मैं एक अकालग्रस्त के जैसा उन सभी का वाचन करते हुए ही, थोड़ी बहुत हिंदी भाषा सीखने का मौका मिला. अंग्रेजी का हाल पूछिए मत. इसके लिए डॉ. राम मनोहर लोहिया का अंग्रेजी हटाओ आंदोलन को हमने अपनी अंग्रेजी न सीखने के लिए बहाने के तौर पर खूब इस्तेमाल किया है.

मुख्य बात मेरे जीवन में डॉ. राम मनोहर लोहिया को मिलने का मौका कभी नहीं आया. क्योंकि अक्तूबर की 12 तारीख को 1967 के दिन, दिल्ली के विलिंग्टन हॉस्पिटल में, वर्तमान में डॉ. राम मनोहर लोहिया अस्पताल में प्रोस्टेट के ऑपरेशन में गड़बड़ी होने के कारण उनकी मृत्यु हो गई थी. तब मैं सिर्फ चौदह साल का था. मेरे अपने गांव से बुआ के गांव हाईस्कूल की पढ़ाई करने के लिए शिंदखेडा 1965 में और वहीं से पूणे के राष्ट्र सेवा दल के प्रथम दस्तानायक - शाखानायक शिविर के लिए शायद 1966-67 के गर्मी की छुट्टियों में. हाँ ठीक उसी समय पुणे के जिन लोगों के साथ परिचय हुआ उनमें केळकर पति-पत्नी थे. और उन्होंने जो डॉ. राम मनोहर लोहिया के बारे में और बाद में मराठी में अनुवाद किया हुआ छ किताबों का खजाना दिया. जिसे मैंने तुरंत पढ़ तो लिया. लेकिन काफी कुछ पल्ले नहीं पड़ा था. पंद्रह साल के भीतर शायद मंद बुद्धि का होने का परिणाम होगा. और अभी भी काफी लोगों को डॉ. लोहिया के बारे में इस तरह के चिकित्सा वाले लेख के कारण मेरे बुद्धि पर तरस आ रहा होगा. किसी को मेरा लोहिया द्वेष दिखाई पड़ सकता है. किसी को मेरे कांग्रेसी होने का संशय आ सकता है. क्योंकि अंध भक्त सिर्फ आरएसएस के ही होते हैं, यह अपर्याप्त है अंध भक्तों की भरमार यत्र - तत्र - सर्वत्र होती है, जिन्हें अपनी श्रद्धाओं की आलोचना बहुत नागवार गुजरती है. भले ही डॉ. लोहिया की ही क्यों ना हो. और मैं ठहरा तुकाराम महाराज के जैसे, मेरा मुझसे ही विवाद चलाने वाला (आपुलाची वाद आपुल्याशी). आपातकाल में जेल से रिहा होने के बाद अपने पुश्तैनी घर पर गया तो आपातकाल को लेकर पिताजी से घनघोर विवाद हो गया. क्योंकि वह कांग्रेस के निष्ठावान सदस्य होने के कारण आपातकाल के पक्ष में अपने तर्क दे रहे थे. और मैंने उन्हें भी इंदिरा गांधी के अंध भक्त कहा है.

डॉ. राम मनोहर लोहिया के उर्वशियम सत्याग्रह के बारे में पचास साल के भीतर पैदा हुए लोगों को पता नहीं होगा कि संपूर्ण उत्तर-पूर्वी राज्यों में जाने के लिए आजादी के बाद भी परमिट लगता था. जिसे देखकर डॉ. राम मनोहर लोहिया ने उर्वशियम सत्याग्रह आंदोलन करने की वजह से ही, आज हम आप आसानी से उत्तर पूर्व राज्यों में बगैर किसी रोक टोक के जा पा रहे हैं. डॉ. राम मनोहर लोहिया भारत की राजनीति के पहले प्रतिभावान राजनेता हैं. जिन्होंने महात्मा गाँधी जी के सत्याग्रह का सिविलनाफरनामी में विस्तार किया.

वैसे ही अभी भारत सरकार ने जातिगत जनगणना की घोषणा की है. यह डॉ. राममनोहर लोहिया के अगड़े पिछड़े सिद्धांतों को सौ में पावे पिछडा साठ, के दर्शन की वजह से पिछड़ी जातियों के उत्थान के लिए दिया हुआ मंत्र के इर्द गिर्द भारत की वर्तमान राजनीति आ गई है. और विरोधी दलों के नेताओं द्वारा लगातार जातिगत जनगणना करने की मांग की वजह से भाजपा को अपनी इच्छा के विरोध में आने वाले बिहार बंगाल और बाद में उत्तर प्रदेश के विधानसभा के चुनाव को देखते हुए मजबूरी में यह निर्णय लेना पड़ा है. भले ही फिलहाल धार्मिक ध्रुवीकरण के चलते कुछ पिछड़े वर्गों के लोगों को सांप्रदायिकता की लहर में कर लेने में आर एस एस को कामयाबी हासिल हुई है. इस वास्तविकता को भी स्वीकार करना चाहिए.

डॉ राममनोहर लोहिया ने भूमिहीनों के लिए जबरनजोत, योनि शुचिता का सिद्धांत के अनुसार समस्त महिलाओं की मुक्ति का संदेश. और द्रौपदी - सीता, सावित्री जैसे लोककथाओं की नाईकायों का नये सिरे से परिचय कराने का इतिहास दत्त कार्य किया है. उसी तरह रामायण मेला चित्रकूट में, आयोजित करने की कृति कामयाब होती, तो पाखंडियों के हाथ राम आज नहीं लगे होते. वहीं बात राम, कृष्ण, शिव की शायद भारत की राजनीति और समाजनीति में इतने महत्वपूर्ण योगदान देने वाले, महान दार्शनिक की ओर से संघ की कुटिलता समझने में कहां चूक हुई है ?

मधु लिमये की जन्मशताब्दी के उपलक्ष्य में मराठी में 'धर्मांधता' शीर्षक की किताब में लिखा है कि "आर एस एस का एकचालकानुवर्त तथा फासिस्ट और ( नॉन अटॉनॉमस कॅरेक्टर ) कठपुतली के जैसा एकचालकानुवर्त स्वरूप समझने में सरदार पटेल, डॉ. राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण जी की चूक हुई है. और उसी किताब में लिखा है कि तत्कालीन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख श्री. बालासाहब देवरस जयप्रकाश नारायण को मिलने के लिए आए थे तो जयप्रकाशजी ने उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भंग करने के लिए कहा तो बालासाहब देवरस ने भौहें-चढ़ाते हुए जयप्रकाजी की सूचना को ठुकरा दिया.

  1. 1967 तक गांधी हत्या के कारण, 30 जनवरी 1948 को सिर्फ उन्नीस साल ही तो हो रहे थे. उसके बावजूद डॉ. राम मनोहर लोहिया से संघ का असली रूप समझने में कहीं चूक - भूल अवश्य हुई है. काश 13, 14, 15 मार्च 1948 सेवाग्राम वर्धा, महाराष्ट्र की, महात्मा गाँधी जी के हत्या के बाद हुईं बैठक में, डॉ. राम मनोहर लोहिया शामिल हुए होते. क्योंकि उस बैठक के इतिवृत्त के ऊपर पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल श्री. गोपाल कृष्ण गांधी ने '
    बापू अब नहीं रहे आगे क्या
    ?' इस शीर्षक से एक किताब संपादित की है. और उस किताब की प्रस्तावना में ही गोपाल गांधी ने लिखा है "कि काश इस बैठक में डॉ. राम मनोहर लोहिया शामिल होते." उस बैठक में शामिल सभी साथियों ने, जिसमें जवाहरलाल नेहरू, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, मौलाना आजाद, आचार्य कृपलानी, तुकडोजी महाराज, आचार्य विनोबा भावे, आचार्य दादा धर्माधिकारी, जयप्रकाश नारायण इत्यादि मान्यवर उपस्थित थे. उस सभा में आचार्य विनोबा भावे ने कहा कि "मैं भले ही जात छोडकर बैठा हूँ. लेकिन यह भूल नहीं सकता कि बापू की हत्या करने वाले की, और मेरी जाति एक है. और वह जिस संगठन का स्वयंसेवक था वह संगठन महाराष्ट्र के ब्राह्मणों ने स्थापित किया है. और उसका हर सिपहसलारों में से, भले ही वह पेशावर, ढाका या क्वेट्टा मद्रास में काम करता होगा, वह महाराष्ट्र का ब्राह्मण ही है. और इस संगठन का मुखिया (गोलवलकर) का भाषण अभी - अभी हाल ही में, मैंने किसी अखबार में पढ़ा है उसमें उन्होंने कहा कि "हमारे आदर्श अर्जुन हैं. युद्ध भूमि में जैसे ही सामने नाते - रिश्तेदारों को देखते हुए वह घबराहट में श्रीकृष्ण को बोले कि मैं अपने ही नाते - रिश्तों के लोगों पर कैसे वार कर सकता हूँ ? तो श्रीकृष्ण ने कहा कि तुम अपने नाते - रिश्तेदारों का उचित सम्मान करते हुए उन्हें प्रणाम करो और फिर उनकी हत्या करो". आचार्य विनोबा भावे कहते हैं "कि गीता का भक्त तो मैं भी हूँ. लेकिन बेचारी गीता उसका एक अर्थ मैं करता हूँ. और दूसरा अर्थ इन लोगों ने किया है." यह सिर्फ दंगे फसाद करने वाले गुंडों की जमात नहीं है, यह फिलासफरो की जमात है. धर्मग्रंथों का अपने ढंग से अर्थ लगाकर, लोगों को भड़काने का काम करने वाले फासिस्ट लोग हैं. और इनका मुकाबला सिर्फ गांधी के अनुयायियों द्वारा नहीं होगा. इस में सोशलिस्ट भी शामिल होने चाहिए, और जो अपने आप को इंसान समझते हैं, उन सभी को इन फासिस्ट लोगों का मुकाबला करने के लिए इकट्ठा करने का प्रयास करना चाहिए. यह बात आज से 77 साल पहले आचार्य विनोबा भावे ने कही थी.

डॉ. राम मनोहर लोहिया जैसे मानवाधिकारों को लेकर इतने संवेदनशील आदमी, जो 1929 को अपनी पढ़ाई करने के लिए पहले इंग्लैंड में और इंग्लैंड रास नहीं आया तो जर्मनी में, वह भी हिटलर के उदयकाल के दौरान डॉ. लोहिया लगभग बीस साल की उम्र के थे. मतलब एकदम अपने जीवन के महत्वपूर्ण मोड़ पर.

1930-33 और हिटलर ने जर्मनी की सत्ता पर आने वाली तारीख है 30 जनवरी 1933 लोहिया को जर्मनी में नाजी प्रचार करने के लिए कहा गया था. लेकिन लोहिया ने कहा कि "कोई भी जर्मनी के बाहर का आदमी वंशश्रेष्ठता का तत्वज्ञान जिसमें है, वह बात कैसे मान सकता है ? जिस तत्व- ज्ञान में वैश्विकता वा समानता का अभाव हो. और आप लोग नॉर्डिक वंश को प्रथम स्थान पर मानते हो अॅग्लो सॅक्सन दुसरे नंबर पर फ्रेंच, इटालियन, स्पॅनिश, लॅटिनोको तिसरे स्थान पर, और चीनी, जापानियों को, चौथे स्थान पर. और नीग्रो, हिंदू और अन्य वर्ग संकर वाले लोगों को सब से कनिष्ठ मानते हो. ऐसे नाजी सिद्धांत को कोई भी मानवतावादी आदमी कैसे मान सकता है ?"इसलिये उन्होंने नाजी प्रचार करने के लिए साफ-साफ मना कर दिया था.

1932 के प्रारंभ में उन्होंने अपने अर्थशास्त्र में डाक्टरेट प्राप्त की है. उनका विषय 'नमक कानून और सत्याग्रह' यह प्रबंध जर्मन भाषा में लिखा था. 1931 के आखिर में गाइड ने कहा कि "अब तुम जितना जल्द जर्मनी से जा सकते हो तुम चले जाओ" क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि "डॉ. राम मनोहर लोहिया हिटलर के सत्ता में आने के बाद किसी आफत में फंस जाएं. और इसलिए उन्होंने डॉ. राम मनोहर लोहिया के लिये परीक्षा की तारीखों में रद्दोबदल कर के उनके डॉक्टरेट के डिग्री के लिए विशेष रूप से उन्हें जल्द से जल्द जर्मनी के बाहर जाने के लिए विशेष प्रावधान किया था. और उनके कारण डॉ. राम मनोहर लोहिया 1933 के शुरू में ही भारत में आ चुके थे

भारत में हिटलर और मुसोलिनी को आदर्श मानकर ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने 1925 में अपनी नींव डाली थी. और उन्हीं की तरफ से 30 जनवरी 1948 के दिन, महात्मा गाँधी जी की हत्या की गई थी. जिसका डॉ. राम मनोहर लोहिया को सबसे ज्यादा भावनिक तथा मानसिक धक्का बैठा था. एक तरह से वह अपने जीवन में पहली बार अपने आप को अनाथ महसूस किये हैं.

मेरे लिए यह एक अनबुझी पहेली है "कि इतने विलक्षण प्रतिभा के धनी, इतने संवेदनशील और सुसंस्कृत जाति-धर्म, लिंग - रंग, अमीर - गरीबी सभी तरह के गैर बराबरी के खिलाफ आदमी ने अपने उम्र के 20 - 23 साल के दौरान, हिटलर - मुसोलीनी जैसे फासिस्टों को यूरोपीय देशों में, उभरते हुए देखने के बावजूद और उनके वंशश्रेष्ठत्व की बात की मुखालफत की है. वह भी जर्मनी में रहते हुए. बिल्कुल भारत में डॉ. हेडगेवार, डॉ. बी जे मुंजे, परांजपे, घटाटे जैसे चंद मराठी ब्राह्मणों ने 1 अगस्त 1920 को लोकमान्य टिलक की मृत्यु के बाद और महात्मा गांधी जैसे सर्वसमावेशी आदमी को, कांग्रेस का नेतृत्व में देखने के बाद नागपुर के महाल के मोहीते वाडा में एक फासिस्ट संगठन की स्थापना की है. जिसका नाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है. और स्थापना से लेकर अब तक, 100 साल के इतिहास में फासिस्टों की तर्ज पर, अल्पसंख्यक समुदायों को घृणा के पात्र बनाकर, उन्हें दोयम दर्जे के नागरिक बनाने के लिए लगातार प्रचार प्रसार करने वाले संगठन का धोखा डॉ. राम मनोहर लोहिया जैसे प्रतिभाशाली, संवेदनशील नेता के नजर में नहीं आया होगा, यह मेरे लिए एक पहेली है.

हालांकि डॉ. राम मनोहर लोहिया की 'हिंदू बनाम हिंदू' नाम की पुस्तक में "पांच हजार वर्ष से कट्टरपंथी हिंदू धर्म और उदारपंथी हिंदू धर्म के इतिहास के क्रम में चले आ रहे संघर्ष का वर्णन" शायद ही कोई और व्यक्ति या समूह ने कहा होगा. इतना महत्वपूर्ण तथ्य डॉ. राम मनोहर लोहिया ने लिखने के बावजूद. घोर सांप्रदायिक तथा जातीयवाद के समर्थक, जनसंघ और उसके मातृ संगठन आर एस एस के साथ, साठ से सत्तर के दशक में भारत में प्रथम बार, गैरकांग्रेसी सिद्धांत के कारण, जिसका मधु लिमये और जॉर्ज फर्नाडिस ने 1963 के कलकत्ता के सोशलिस्ट पार्टी के, अधिवेशन में विरोध करने के बावजूद. डॉ. राम मनोहर लोहिया की कौन-सी मजबूरी रही है ? जिस कारण उन्होने जनसंघ जैसे पूंजीवाद के समर्थक, जमींदार, राजे रजवाड़ों तथा घोर जाति-धर्म के आधार पर, राजनीति करने वाले दल के साथ समझौता करने की कोशिश का समर्थन तब भी और आज भी कोई लोहिया का अंधभक्त करते हैं, तो मुझे लगता है कि अंध भक्त होना सिर्फ किसी धार्मिक पंथों की बपौती नहीं है राजनीतिक क्षेत्र में भी इसकी भरमार है और वह कम-अधिक - प्रमाण में सभी दलों में दिखाई देती है. और वही गलती जयप्रकाश नारायण ने बिहार आंदोलन और उसके बाद जनता पार्टी के गठन के समय आपातकाल जारी था. और श्रीमती इंदिरा गांधी ने एन जी गोरे और एस एम जोशी को गिरफ्तार नहीं किया था. इस कारण मैं 1976 के अक्तुबर में जेल जाने के पहले तक विदर्भ में इन दोनों नेताओं के साथ मुझे घूमने-फिरनं का सौभाग्य प्राप्त हुआ है. उस समय और मैं पकडे जाने के बाद एस एम जोशी के साथ लगातार संपर्क में रहा हूँ. वह अमरावती जेल में मुझसे मिलने के लिए आकर जनता पार्टी के गठन के बारे में उन्होने कहा. तो मैंने कहा कि जनसंघ एक हिंदूत्ववादी और पूंजीवादी, सेठ - साहुकारों तथा राजेरजवाडे और जमींदारों की मुक्त अर्थव्यवस्था की हिमायती पार्टी है. उसके साथ समाजवादी पार्टी की कौन सी वैचारिक नजदीकी हो सकती है ? चाहो तो चुनावी गठबंधन हो सकता है. लेकिन एक पार्टी मुझे लगता है कि समाजवादी पार्टी ऐसे पार्टी में बहुत ही घाटे में रहेगी. क्योंकि जनसंघ आर एस एस की राजनीतिक इकाई है. और जब तक उसका आर एस एस के साथ संबंध बना रहेगा वह समस्त जनता पार्टी को डॉमिनेट करेंगे. इस लिए व्यावहारिक रूप से जनसंघ के साथ तालमेल करते हुए चुनाव के लिए गठबंधन कर सकते हैं. लेकिन एक पार्टी, बहुत ही आत्मघाती निर्णय होगा.

एस एम जोशी ने कहा कि "मैं तुम्हें मिलने के पहले दिल्ली के तिहाड़ जेल में जॉर्ज फर्नाडिस के साथ मिलकर आ रहा हूँ. और जॉर्ज की भी राय काफी हद तक तुमसे मिलती - जुलती है." तो मैंने कहा कि जॉर्ज फर्नाडिस पार्टी के अध्यक्ष हैं. और मेरे से बड़े हैं. मैं जेल में बंद हुआ तब तेईस साल की उम्र का था. और एस एम जोशी ने कहा कि "मैं दिल्ली से आने के रास्ते में नरसिंहगढ की जेल में मधु लिमये जी से भी मुलाकात कर उनके भी खयाल तुम्हारे और जॉर्ज जैसे ही हैं. लेकिन जयप्रकाश की जिद है कि "अगर एक पार्टी नहीं बनी तो मैं अपने घर से बाहर नहीं निकलने वाला".

एस एम जोशी बोले कि "अगर जयप्रकाश चुनाव प्रचार में नहीं आये तो इंदिरा गाँधी जीत जायेगी." इस विचित्र स्थिति में जनता पार्टी बनी. लेकिन मैं इसमें शामिल नहीं हुआ. मुझे तो महाराष्ट्र जनता पार्टी के महासचिव बनाने की योजना को मैंने ठुकराया. तथा लोकसभा के सीटों के बंटवारे के समय अमरावती लोकसभा मतदाता संघ से एस एम जोशी ने मेरे नाम का आग्रह किया. और आश्चर्य की बात मुझे जनसंघ के लोगों का सिर्फ समर्थन ही नहीं वह मेरे चुनाव के नॉमिनेशन से लेकर चुनाव का खर्चा उठाने के लिए भी तैयार थे. लेकिन मुझे जनता पार्टी ही नहीं टोटल वर्तमान संसदीय पद्धति को लेकर ही रिजर्व्हेशन है. इस विषय पर फिर कभी लिखूंगा.

मधू लिमये तो 1980 के बाद ही निष्क्रिय हो गये थे. लेकिन जॉर्ज फर्नाडिस ने समता पार्टी का गठन कर के, और उसके पहले संसद में मुरारजी देसाई के तरफसे धुंवाधार बोलकर तुरंत ही कुछ समय बाद जो पलटी मारी वह उनके संसदीय राजनीति के पतन की शुरुआत थी. और उसके बाद एन डी ए के अध्यक्ष बनने के बाद, ओरीसा के मनोहरपुकुर कंधमाल के फादर ग्रॅहम स्टेन्स और उनके दोनों बच्चों की जलाने की घटना को क्लीन चिट देने से लेकर गुजरात के दंगों का ट्रेलर था. और गुजरात दंगों को लेकर लोकसभा में जॉर्ज फर्नाडिस के तुलना में किसी भी बीजेपी या हिंदुत्ववादियों की हिम्मत नहीं थी. जितनी जॉर्ज फर्नाडिस ने कहा कि "कौन से दंगों में बलात्कार नहीं हुए ?" और खुद रक्षामंत्री पदपर रहने के बावजूद नरेंद्र मोदी ने 27 फेब्रुवारी 2002 के दिन ही भारतीय सेना को गुजरात के दंगों को रोकने के लिए पत्र देकर अपनी खानापूर्ति की. लेकिन 24 घंटो तक सेना को अहमदाबाद एअरपोर्ट के बाहर नहीं निकलने दिया. और इस बात के प्रत्यक्षदर्शियों में हमारे देश के रक्षा मंत्री खुद ही गुजरात में मौजूद थे. मुझे लगता है कि अगर जॉर्ज फर्नाडिस आज जीवित होते तो उनके इस गुनाह की सजा अवश्य दी जाने चाहिए थी. नरेंद्र मोदी दो नंबर पर आते हैं. और वह साफ-साफ आर एस एस और उसके राजनीतिक इकाई बीजेपी के मुख्यमंत्री थे. और गुजरात दंगों के कारण ही उनकी चालीस इंच की छाती छप्पन इंची होकर उन्होंने प्रधानमंत्री तक का सफर तय किया है. उसके लिए समय - समय पर जॉर्ज फर्नाडिस, नितिश कुमार, रामविलास पासवान, और भी छोटे मोटे डॉ. राम मनोहर लोहिया के नाम लेने वाले लोगों ने मिलकर नरेंद्र मोदी बीजेपी और सबसे महत्वपूर्ण संघ का काम बढ़ाने के लिए विशेष रूप से मदद की है. शिवसेना में भी साठ के दशक में सब से पहले समाजवादी पार्टी के लोग शामिल हुए और पहले विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करने वाले वामनराव महाडिक ने ही इनिंग सुरू की है. और आज भी दोनों तीनों शिवसेना के प्रमुख नेता ठाकरे छोड़ कर समाजवादी पार्टी के पुराने मित्र हैं. भारत की राजनीति में जो लोग सिधे - सिधे हिंदूत्व का कार्ड लेकर काम कर रहे हैं. वह सही गलत होंगे. लेकिन खुलकर सांप्रदायिक राजनीति कर रहे हैं. लेकिन समाजवादी जॉर्ज फर्नाडिस से लेकर गली मुहल्ले तक जो लोग आज सांप्रदायिक राजनीति में हावी है. उनमें समाजवादी लोगों के शामिल होने की बात देखकर मै हैरत में पड़ गया हूँ.

आज 100 सालों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ लगातार नफरत फैलाने का प्रचार प्रसार अपनी शाखाओं में कर रहा है. कांग्रेस की स्थापना के समय से ही पंडित मदन मोहन मालवीय हो या लाला लाजपत राय, गोविंद वल्लभ पंत या पंडित कमलापति त्रिपाठी या उमाशंकर दीक्षित या नरसिंह राव. और दर्जनों नेता संघी मानसिकता के शिकार हैं. आपातकाल में संसद के डिबेट में हिस्सा लेते हुए समाजवादी पार्टी के राज्यसभा के सदस्य श्री. एन जी गोरे का अप्रकाशित भाषण है. सेंसरशिप के कारण जिसे हम लोगों ने सायक्लोस्टाईल करके बांटने की कोशिश की है. उसमें संघ की बंदी के बारे में गोरे साहब ने श्रीमती गांधी को पूछा है "कि नागपुर से चलने वाले संघ पर तो आपने पाबंदी लगा दी है. लेकिन आपके साथ बैठे हुए कमलापति, उमाशंकर, और सामने वाले बेंच पर बैठे हुए कितने लोग भी संघी मानसिकता के है ! उनका क्या करोगे ?"

और यही कारण है कि 2002 के गुजरात के दंगों के बाद कांग्रेस ने दस साल सत्ता में वापसी की थी. उसने गुजरात दंगों के तफ्तीश के नाम पर लीपापोती की है. नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट देने वाले रघुरामन गुजरात के टाटा समूह के, नानो प्रोजेक्ट के पेड सलाहकार रहते हुए. उन्हें एस आई टी का प्रमुख बनाने की वजह क्या है ? आज वह सायप्रस में एंबेसेडर है. नरेंद्र मोदी के खिलाफ कार्रवाई करने की जगह, उन्हें बेस्ट मुख्यमंत्री का राजीव गांधी पुरस्कार से सम्मानित किया गया. और हमेशा ही अल्पसंख्यक समुदायों के तरफ से खड़े रहने की जगह तथाकथित बहुसंख्यक आबादी के नाराज होने के डर से, अल्पसंख्यक समुदाय को जल्लादों के हवाले कर दिया गया. और जिस कारण 2014 में बीजेपी सत्ता में आने के बाद, नब्बे साल पहले के जर्मनी के तर्ज पर मॉब लिंचिग में सैकड़ों अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों को जान से मारने की कार्यवाही हुईं हैं. तब एक भी उदाहरण नहीं हैं. जिसमें कोई नफरत छोड़ो - भारत जोड़ो वाले दौड़कर गया होगा. एक तरह से अल्पसंख्यक समुदायों को बेसहारा छोड़ दिया गया है. उत्तर प्रदेश के अंदर जिस तरह से पुलिस मामूली सी बातों पर बुलडोजर चलाने से लेकर उठा कर ले जाते हैं. तो उन्हें रोकने के लिए कौन जा रहा है ?

मेरी समझ से तो संसदीय राजनीति के चक्कर में बहुसंख्यक आबादी को नाराज करने के डर से अल्पसंख्यक समुदायों को बेसहारा छोड़ दिया है. एक तरह से संघ के सौ साल के धार्मिक ध्रुवीकरण के कारण, आज सभी संसदीय क्षेत्र के फिर वह कम्युनिस्ट पार्टी के हो या समाजवादी पार्टी के और कांग्रेस की 140 साल की यात्रा में 1915 से 1948, तक 33 साल का, महात्मा गाँधी जी के समय को छोड़कर, सभी दौर पॉप्युलर पॉलिटिक्स का होने के कारण, उनके विश्वसनीयता पर बहुत बड़ा प्रश्न है. उनकी आपसी लड़ाई में वह और मिट्टी पलीत कर ले रहे हैं. और हमारे साथियों को आज अचानक नफरत छोड़ो - भारत जोड़ो की याद आई है.

24 अक्तूबर 1989 को भागलपुर दंगे के बाद से, मैं लगातार 35 साल से अधिक समय से कह रहा हूँ "कि भारतीय राजनीति का केंद्र बिंदु आने वाले पचास साल की राजनीति सिर्फ और सिर्फ सांप्रदायिकता के इर्द-गिर्द ही रहेगा. लेकिन किसी को बांध के विरोध में समय नहीं मिल रहा है. और किसी को अन्य तात्कालिक सवालों पर चल रहे आंदोलन लेकिन उन्हीं आंदोलन के लोग आराम से हिंदू - मुसलमानों में बंट गए हैं. वही हाल तथाकथित संगठित मजदूर आंदोलन, तथा हमारे अपने घर - परिवारों में सांप्रदायिकता का जहर फैल चुका है. एक प्रतीकात्मक नफरत छोड़ो - भारत जोड़ो से क्या होगा ?

1985-86 के दौरान बाबा आमटे ने पहले कन्याकुमारी से कश्मीर और दूसरी ओझवाल से ओखा संपूर्ण भारत को क्रॉस करने वाली साईकिल यात्रा सैकड़ों युवाओं को लेकर की थी. और वहीं से "'सवाल आस्था का है कानून का नहीं है" जैसे नारे पहले शाहबानो के खिलाफ, मुस्लिम समुदाय के कुछ कट्टरपंथी लोगों ने शुरूआत की थी. और उसी नारे को कट्टरपंथी हिंदुत्ववादियों ने, हाईजैक करते हुए रथयात्राओं के द्वारा, "मंदिर वहीं बनाएंगे" और "सवाल आस्था का है कानून का नहीं" जैसे नारे देते हुए भागलपुर, गुजरात के दंगों की राजनीति करते हुए, आजादी के पचहत्तर साल के भीतर हमारे संविधान की ऐसी तैसी करते हुए, सत्ता में तीसरी बार आने वाली घटना समस्त आजादी के आंदोलन से निकले हुए मुल्लों का अपमान है. हिटलर भी 30 जनवरी 1933 के दिन चुनाव के माध्यम से ही सत्ता पर काबिज किया था. और वर्तमान भारत की सरकार चुनाव में खुलकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने के बाद ही तीसरी बार सत्ता में आई है.

डॉ. सुरेश खैरनार,

2 मई, 2025, नागपुर.