डॉ. असगर अली इंजीनियर : सांप्रदायिकता के खिलाफ एक निर्भीक आवाज़ की याद
डॉ. असगर अली इंजीनियर की 10वीं पुण्यतिथि पर डॉ. सुरेश खैरनार का भावपूर्ण संस्मरण — सांप्रदायिकता के विरुद्ध संघर्ष की अमिट कहानी।

dr asghar ali engineer
डॉ. असगर अली इंजीनियर की पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि
- असगर अली इंजीनियर की स्मृति में: एक निजी अनुभव
- 6 दिसंबर 1992 और मजदूर आंदोलन की सांस्कृतिक असफलता
- भागलपुर दंगा और भारतीय राजनीति में सांप्रदायिकता की केंद्रीयता
- असगर अली इंजीनियर का सेकुलर संघर्ष और सामाजिक बहिष्कार
- एनजीओ, सेकुलरिज्म और कार्यकर्ता संस्कृति पर चिंतन
- सांप्रदायिक राजनीति की मौजूदा स्थिति और संघ का प्रभाव
- श्रद्धांजलि या संकल्प? असगर अली जी की ज्योति को जलाए रखना
डॉ. असगर अली इंजीनियर की 10वीं पुण्यतिथि पर डॉ. सुरेश खैरनार का भावपूर्ण संस्मरण — सांप्रदायिकता के विरुद्ध संघर्ष की अमिट कहानी।
1992 के 1 या 2 दिसंबर को मैं मुम्बई में भागलपुर दंगे पर बोलने के लिए एक दो दिन के लिए था. जो 24 अक्तूबर 1989 को हुआ था. और डॉक्यूमेंट्री फिल्म मेकर आनंद पटवर्धन को भागलपुर दंगे को लेकर फिल्म बनाने के लिए आग्रह करने के लिए गया था. तो उन्होंने कहा कि आज बीजेपी और शिवसेना छोड़कर अन्य सभी मजदूर नेताओं की एक बैठक 6 दिसम्बर को अयोध्या में जो कुछ होने जा रहा है. उसके खिलाफ मुम्बई में होने वाले कर्यक्रम की तैयारी की बैठक है. तुम उसमें भागलपुर दंगे पर बोलने के लिए चलो. तो मैं चला गया.
बांद्रा या पार्ले में किसी हॉल में बैठक थी. मैंने देखा बीजेपी शिवसेना छोड़कर लगभग सभी मजदूर नेता एक छत के नीचे थे. और सभा की अध्यक्षता डॉ. असगर अली इंन्जीनियर (Asghar Ali Engineer (10 March 1939 – 14 May 2013) कर रहे हैं. वैसे मैं उनके लेखन से परिचित था, लेकिन पहली बार उनको प्रत्यक्ष रूप से देखने को 1992 बाबरी विध्वंस के एक सप्ताह पहले का समय था.
तो बैठक में 6 दिसम्बर को हम लोग मुम्बई में क्या कर सकते हैं, उस पर काफी सुझाव आ रहे थे. प्रमुखतम सुझाव मानव शृँखला बनाना और दूसरा चौपटी पर या शिवाजी पार्क में जनसभा करना थे. आनंद ने असगर अली जी से कहा कि मैं भागलपुर दंगे पर बोलना चाहता हूँ. तो उन्होंने तपाक से हां कहके मुझे बोलने के लिए कहा.
तो मैंने कहा कि "स्वतंत्र भारत में दंगे कोई नई बात नहीं है. और यह बात इस सभा के अध्यक्ष से बेहतर और कोई नहीं जानता. क्योंकि उनकी जिंदगी का सबसे बड़ा काम इन दंगों के कारणों का पता लगाने में जा रहा है. और उसके ऊपर उनके कई रिपोर्ट भी छपे हैं.
लेकिन आज यह नौबत आप लोगों पर क्यों आ पडी ? कि इतने समय से 6 दिसम्बर को मुम्बई में क्या करेंगे ? इस चर्चा में जा रहा है. आप सभी के मजदूर आंदोलन की उम्र मेरी उम्र से ज्यादा है. लेकिन मजदूर आंदोलन में बोनस, पगार बढ़ोत्तरी, जैसी आर्थिक मांगों के अलावा और उनकी कुछ और सुविधाओं के आगे आप लोगों के कुछ और काम उनके साथ ना करने के कारण, आज आप लोग मुम्बई में 6 दिसम्बर को प्रतीकात्मक रूप से कुछ भी कार्यक्रम कर लीजिये. लेकिन अयोघ्या में जो भी कुछ होगा वह ना भूतो ना भविष्यति होगा.
क्योकि मैं भागलपुर से मुम्बई आते समय सभी जाती हुई ट्रेनों के यात्रियों में सभी के कपाल पर मंदिर वहीं बनायेंगे के कपड़ों की पट्टियां बांधकर जाते हुए, और उनके लिए सभी रेल्वे स्टेशनों पर खिचड़ी, चाय समोसे, पानी इत्यादि का इन्तजाम कर रहे, लोगों को देखा हूँ. और सबसे हैरानी की बात शायद आपके यूनियन के भी रेल कर्मचारी होंगे, जो रेल पटरी पर गिट्टी डालने के लिए या किसी रख रखाव के लिए खड़े थे और नारे लगा रहे थे कि "मंदिर वहीं बनाकर आना और कामयाब होकर आना".
जहां तक मेरा निरीक्षण है, उन कार सेवकों में आपकी अपनी यूनियन के लोग भी शामिल थे. क्योंकि जिंदगी भर आप लोगों ने मजदूरों के आर्थिक सवालों पर जद्दो-जहद की है. लेकिन उनका सांस्कृतिक पक्ष बिल्कुल दुर्लक्षीत होने के कारण, आज वह मंदिर के आन्दोलन में शामिल हुए. और यह स्थिति मैं कम अधिक प्रमाण में पूरे देश में ही देख रहा हूँ कि आस्था के सवाल पर हमारे सभी के यूनियन, दल, विभिन्न क्षेत्रों के संगठन और अपने परिवार भी इससे अछूते नहीं हैं. हम अपने दिल को बहलाने के लिए प्रतीकात्मक रूप का कोई भी कार्यक्रम कहीं भी कर लें, लेकिन सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया गत कुछ वर्षों से भयानक रूप से हो चुकी है. भागलपुर उसका उदाहरण है. आजादी के बाद काफी दंगे हुए लेकिन सभी गली मोहल्ले तक सीमित रहे. लेकिन यह भागलपुर का दंगा है, जो लगभग पूरे भागलपुर कमिशनरी के इलाके में फैला था. और जिसमें चुन-चुन कर मुसलमानों के आजीविका के साधन लूम्स, जिनसे वे रेशम का कपडा बुनते थे, हजारों की संख्या में सब जलाकर नष्ट कर दिए गए. और 300 से अधिक गावों में यह करतूत पारंपारिक हथियारों से, हजारों की संख्या में भीड़ ने किया. 3000 से अधिक लोगों की जाने ले ली गई. और उसमें सौ सव्वा सौ छोड़कर सभी के सभी मुसलमान हैं. मेरी समझ में नहीं आता है कि पीढ़ी दर पीढ़ी सैकड़ों सालों से एक साथ मिलकर काम करने वाले, खाने पीने वाले और रहने वाले इस तरह एक दूसरे की जान कैसे ले सकते हैं ? यानी आजादी के अर्धशतक पूरा करने के बावजूद यह जहर लोगों के दिलों में कहीं ना कहीं किसी कोने में छुपा रहता है. और वो कभी शिला पूजा के समय, या किसी भी प्रकार के धार्मिक आयोजन में जुलूस, गणपति, दुर्गा, काली, ईद, मोहर्रम, या किसी पर्व के अवसर पर और सालभर में गाय, सूअर और कई ऐसे मौके-बेमौके कुछ ना कुछ तो हो ही रहा है.
हम लोगों के आम जीवन से संबंधित सवालों को लेकर आज 50-60 सालों से काम कर रहे हैं, लेकिन कभी पता किया कि सांप्रदायिक, जातीय, महिलाओं के प्रति हमारा अपना कैड़र क्या सोचते हैं ? भागलपुर उसका मैंनिफैस्टेशंन है.
सबसे चिंता की बात हमारा समाज बंट चुका है. और यह भागलपुर दंगे की विदारकता को देखते हुए मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं, कि हमारे देश में आने वाले कम- से - कम 50 साल की राजनीति का केंद्रबिंदु सिर्फ और सिर्फ सांप्रदायिकता की राजनीति रहेगी। हम आप कितना भी जल जंगल जमीन, रोजगार के मुद्दों से लेकर महंगाई, विस्थापन, और आर्थिक सवालों को लेकर काम करते रहेंगे, लेकिन हमारी भारतीय राजनीति सिर्फ और सिर्फ सांप्रदायिकता के इर्दगिर्द सिमट कर रह गयी है.
6 दिसंबर 1992 के दिन तथाकथित कारसेवकों द्वारा मस्जिद धराशायी करने के बाद, देश भर में दंगे हुए थे. और लार्सन ,& टुब्रो और पोर्ट ट्रस्ट ऑफ इंडिया के मुंम्बई की मॅनेजमेंट ने अपने गेट पर 7 दिसम्बर 1992 के दिन एक नोटिस जारी किया था, कि "मायनॉरिटी कम्युनिटी का कोई भी मजदूर अगर काम पर आना चाहता है. तो वह अपने जोखिम पर काम पर आयेगा मैंनेजमेंट उसकी जिम्मेदारी नहीं लेंगी." और कोई मजदूर यूनियन उसके लिए आगे नहीं आई थी. यह मेरी बात बोलने के एक हफ्ते के अंदर की बात है." मतलब हमारे मजदूर आंदोलन का आत्मविश्वास समाप्त हो गया है.
यही स्थिति दलित, आदिवासियों और बहुजन समाज की भी हो चुकी है. यह बात मैं लगातार कह रहा हूँ लिख रहा हूँ. और अब तो स्थिति और भी भयावह है. आज गत 11 वर्षों से इस देश में अघोषित हिन्दू राष्ट्र हो चुका है और गुरु गोलवलकर के फतवे के अनुसार मायनॉरिटी कम्यूनिटी के लोगों को हिंन्दुओं की सदाशयता पर अपना जीवन यापन करना होगा. मतलब सेकंड़ ग्रेड सिटीजन, जो जर्मनी में यहूदियों के साथ हिटलर ने आज से 100 साल पहले किया था, और हिटलर संघ परिवार का आदर्श है. उसी के कदम पर चलने की शिक्षा संघ अपने अनुयाइयों को गत सौ वर्षों से दे रहे हैं. और उसी का परिणाम नरेंद्र मोदी, अमित शाह, आदित्यनाथ, विजय शाह जैसे लोग आज देश पर राज कर रहे हैं.
सभा के बाद असगर अली ने मुझे गले लगा कर कहा कि "अरे भाई इतने दिन कहां थे ?" हमारी मुलाकात काफी देर बाद हो रही है." वो मुझे अपने घर ले गये और खाना खिलाने के बाद मुझे स्टेशन छोड़ने आये. तब से लेकर 25 साल हम लोग लगातार संपर्क में रहे. ऑल इंडिया सेक्युलर फोरम की स्थापना किये. और मैं खुद उसका एक संयोजक और महाराष्ट्र, बंगाल, बिहार, दिल्ली और गुजरात प्रदेश में इसकी इकाइयां बनाने में सहायकों में से एक रहा हूँ. उन बीस सालों में शायद ही कोई ऐसी घटना जो देश दुनिया में हुई हो और सबेरे - सबेरे उनका फोन नहीं आया हो ? आज गत 10 वर्षों से मैं उन्हें मिस कर रहा हूँ. क्योंकि अभी एंटी कम्युनल काम मे ज्यादातर प्रोफेशनल लोगों ने कब्जा कर लिया है. और उनका प्रोजेक्ट ओरिएन्टिड काम होता है. एकदम सरकारी नौकरी के जैसा कॉमरेड शब्द इस्तेमाल तो करते हैं, लेकिन कॉमरेड शब्द का मीनिंग कहीं नहीं दिखता है.
असगर अली इंजीनियर की बात अलग थी. वो अपने विषय में महारत हासिल कर चुके थे. और उन्होंने भी एनजीओ बनाकर अपने काम को अंजाम दिया. पर उसमें एक अपनापन था. सही मायनों में कॉमरेड थे. मेरे तो व्यक्तिगत मित्र थे. छोटा बेटा रोड अक्सीडेट में जाने के बाद तुरंत आने वाले लोगों में से एक थे. मुझे हार्ट अटैक हुआ तुरंत अस्पताल में पहुँच गए थे. सार्वजनिक जीवन में एक कार्यकर्ता के लिए यह संबल का काम करता है, जो अब नहीं रहा. एकदम बयूरोक्रेसी जैसा व्यवहार होते जा रहा है. और परिवर्तन के संगठन में यह स्थिति ने भी काफी नुकसान किया है. और हमारे सेक्युलर आंदोलन मद्धिम पड़ने में यह भी एक कारण है, कि कार्यकर्ता नौकर और एनजीओ चलाने वाले मालिक सरकार. भारत के ज्यादातर एनजीओ की यही कहानी है.
खैर अब तो इस सरकार ने आधे से भी ज्यादा एनजीओ को रद्द कर दिया है. और सिर्फ संघ परिवार के एनजीओ को प्रश्रय दे रहे हैं. यह चिंता की बात है.
लेकिन इस बहाने एनजीओ को अन्तर्मुखी होकर सोचकर अपने आप को सुधारने की जरुरत है. उनमें से कुछ लोग फ्रॉड भी थे. और हिसाब किताब में काफी गड़बड़ियां थीं. उम्मीद करता हूँ कि वे अपने आप को सुधारने की कोशिश करेंगे. 50 साल के सार्वजनिक जीवन में असगर अली जैसे बिरले एनजीओ देखने में आये.
असगर अली शियाओं के इस्माइली दाऊदी बोहरा समाज में पैदा हुए थे. उनके भी अब्बा उनको धर्म का काम करने के लिए तैयार करना चाहते थे. लेकिन वो इंदौर में इन्जीनियरिंग की पढ़ाई के लिए गये. तो उनके रूम पार्टनर मार्क्सवाद के अभ्यासक थे. तो उन्होंने मुझे बताया था कि वह किताबें मैंने एक छुट्टियाँ में घर ना जाते हुए अपने होस्टल में रहते हुए सब पढ़ ली. इन्जीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की तो मुम्बई कोर्पोरेशन में 20 साल नौकरी की. और उसी के साथ वे टाईम्स ऑफ इंडिया और विभिन्न अखब़ारों में लिखा करते थे. जो मैं बराबर पढ़ा करता था. 1992 के पहले ही से मैं उनके लेखन से उनके नाम से परिचित था.
और सबसे बड़ी बात हमीद दलवाई के (दलवाई सुन्नी मुसलमान थे) जैसे वो भी दाऊदी बोहरा समाज के सुधारक के रूप में जान जोखिम में डालकर काम किये हैं. सैयदना साहब जो दाऊदी बोहरा समाज के सर्वोच्च हैं, जो धर्म गुरू भी है, उनको जन्म, शादी, मृत्त्यु के समय भी पैसे देने पड़ते हैं. और अपनी कमाई का तीन या चार पर्सेंट हर बोहरा सदस्य को देना पड़ता है. सैयदना साहब की दौलत का क्या कहने. विदोशों से लेकर देश भर के महत्वपूर्ण शहरों में राज महल जैसे मकान और अन्य ऐशोआराम की चीजें और बेशुमार दौलत के मालिक हैं.
आजादी के बाद भारत के संविधान के रहते हुए यह खाप पंचायतों के तर्ज पर कितने सालों से चला आ रहा है ? जिसको असगर अली साहब ने सवाल उठाया तो उन्हें पहले, समझाया फिर नहीं माने तो डराया, धमकाया, हमले करवाये और आखिरी बात उनको सामाजिक बहिष्कार मरते दम तक सहन करना पड़ा था.
उनकी पत्नी के निधन के बाद उनके दफन को लेकर और 10 साल पहले उनके खुद के दफन पर काफी हंगामा हुआ, आखिर सुन्नी दफन भूमि पर उन्हें दफन करना पड़ा.
अपने जीते जी तो कई बार कठमुल्लों ने उन पर जानलेवा हमले किए. एक बार तो भोपाल से मुंम्बई के विमान को इन्दौर एयरपोर्ट पर काफी समय रुकना पड़ा. और एक हार्ट पेशेन्ट को जितनी जल्दी हो सके मुम्बई पहुंचने की जरूरत थी, लेकिन विमान रुका है. और कुछ कारण पता नहीं चल रहा था. तो एक सज्जन अपने सिक्क्यूरिटी के साथ इन्दौर से चढ़े. तो बाकी पैसेंजर गुस्सा होकर विमान कंपनी वालों को अपनी आपत्ति जताने लगे जिसमें एक नाम असगर अली का भी था.
बाकी किसी को कुछ नहीं कहा, लेकिन उस खास मेहमान के रक्षा गार्डों ने असगर अली जी को उसी चलती हुई फ्लाईट में लातों, मुक्कों से मारना शुरू कर दिया. और मुम्बई एयरपोर्ट पर उतरने के तुरंत बाद उनके साथ फुटबाल के गेंद जैसा लातों से मारते हुए बाहर लाये वे सैयदना के अंगरक्षक थे.
और यह सब सैयदना साहब के सामने हो रहा था. अब मामला वहीं खत्म नहीं हुआ. उसी दिन शाम को उनके शांताक्रुज के मकान में घुसकर उनके टी वी, कम्प्यूटर और उनकी देश दुनिया भर से इकट्ठा की हुई किताबें, जिसमें 37 विभिन्न देशों की कुरान की बहुत रेयर कॉपियां तक तहस-नहस कर दिया. लेकिन इस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई है.
दुसरे दिन मंत्रालय में असगर अली के ऊपर हुए हमले को लेकर एक डेलिगेशन जा रहा था. तो उनके पहले ही राज पुरोहित नाम के बीजेपी के विधायक के नेतृत्व में सैयदना के लोग मंत्री महोदय से मिलकर वापस आ रहे थे. और आज तक उस हमले को लेकर कुछ भी नहीं हुआ जिन्ना-सावरकर की दोस्ती याद आ रही है.
हिन्दु-मुसलमान कठमुल्लापन किस तरह एक साथ मिलकर काम करता है ? यह उसकी मिसाल है. सैयदना साहब से बाल ठाकरे और वर्तमान प्रधान-मंत्री भी खुद मिलने वाले लोगों में शामिल हैं. प्रधान-मंत्री महोदय इंदौर के अंदर एक बहुत बड़ा दाऊदी जमात के कार्यक्रम में अपनी हाजिरी तो लगाई, लेकिन पब्लिकली इस्लामिक टोपियाँ नकारने मे माहिर प्रधान-मंत्री ने इंदौर के कर्यक्रम में बोहरा टोपी पहनी है. और वक्फ बिल को सपोर्ट करने के लिए, कुछ शिया समुदाय के लोगों को प्रधानमंत्री श्री. नरेंद्र मोदी जी को मिलने का फोटो अखबारों में देखा हूँ. और कश्मीर के डल लेक का कुछ हिस्सों का पानी कम होने के कारण उस जमीन पर शियाओं को विशेष रूप से केंद्र सरकार ने सुविधा देकर होमस्टे का व्यवसाय करने हेतू बसाया जा रहा है.
असगर अली साहब की जिंदगी के आखिरी समय का पूरा हिस्सा संप्रदायिक कठमुल्लापन के खिलाफ गया है. और इसमें बहिष्कार जैसी घृणित बात से लेकर जानलेवा हमले के बाद भी वो अपने काम में आखिरी सांस तक लगे रहे. और उनका शुरु किया हुआ ऑल इंडिया सेकुलर फोरम, जो उनके जाने के बाद लगभग ठप्प चल रहा है, मेरी उनके प्रति 25 साल के सांम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई में जो भी कॉमरेडशिप रही है, तो मुझे लगता है कि उनके पुण्य तिथि या जयंती पर उन्हें सही श्रद्धांजलि उनकी जलाई ज्योति को बचाने के लिए और उसकी लौ और बड़ा करना ही होगी.
डॉ. सुरेश खैरनार,
15 मई 2025, नागपुर.


