पत्रकारिता के ज़हरखुरानों से सावधान!!!
पत्रकारिता के ज़हरखुरानों से सावधान!!!

अभिषेक श्रीवास्तव (Abhishek Shrivastava), जनपक्षधर, यायावरी प्रवृत्ति के वरिष्ठ पत्रकार हैं। उनकी शिक्षा दीक्षा आईआईएमसी में हुई है
अभिषेक श्रीवास्तव
एक दिलचस्प चीज़ देखने में आ रही है। वो ये, कि अधिकतर लोग डरे हुए हैं। डर के मारे वे ज़हर बुझे तीर दूसरों डरे हुओं की ओर उछाल रहे हैं। सबसे ज्यादा डरे हुए लोग दूसरों की ओर उछाले गए उड़ते तीर अपने पश्चिम में लिए ले रहे हैं। यह ज़हरीला माहौल गली-कूचों में नए तीरंदाज़ों को पैदा कर रहा है। फर्ज़ ये कि चौतरफ़ा तीर उड़ रहे हैं और मुसलसल ज़हर फैल रिया है। एमजे अकबर को यह कतई पसंद नहीं आ रहा होगा। उन्होंने एक बार लिखा था कि व्यंग्य को एक निशाने की ज़रूरत तो होती ही है, लेकिन तीर ज़हर बुझा नहीं होना चाहिए।
एमजे अकबर ने हमेशा अपने लिखे में इस बात का ख़याल रखा।
एमजे अकबर पर्सनल नहीं हुए। कभी नहीं। बाकी, लोग तो कहीं न कहीं जाते ही हैं। अकबर भी चले गए। कुछ हो भी गए। उनका फ़ैसला था, हमें क्या? इसकी अगर उन्होंने कुछ कीमत चुकाई हो, तो अपनी बला से। हर सवारी को अपने सामान की सुरक्षा स्वयं करनी होती है। वे सुरक्षा कर पाए या नहीं, यह अलग बात है लेकिन अपना सामान किसी के अगोरने को छोड़कर तो गए नहीं कि उन्हें उलाहना दी जाए। हां, सत्ता की चौखट पर जाकर उनकी हंसी, उनका विट ज़रूर सो गया, जिसका मैं जबरदस्त मुरीद हूं।
सत्ता की दहलीज पर नदारद हंसी
सितंबर 2012 में एमजे ने इंडिया टुडे में एक बेहतरीन पीस लिखा था, "Laughter lost at the gate of power" यानी "सत्ता की दहलीज पर नदारद हंसी"। वह लेख 'पत्रकार' एमजे अकबर का खुद पर लिखा मर्सिया था। जैसे अपना एक स्मृति-शेष। उसमें उन्होंने एक किस्से का जि़क्र किया था: बग़दाद की अब्बासिद सल्तनत के सबसे ताकतवर सुल्तान हारुन अल रशीद का एक मशहूर दरबारी था लुकमान।
किस्सा है कि एक बार वह हाथ में जलता हुआ लट्ठ लेकर भाग रहा था। पूछा तो लुकमान ने बताया कि वह दोज़ख में जा रहा है। हारुन ने पूछा कि दोज़ख में तो वैसे भी बहुत सी आग है, वहां आग लेकर क्यों जाना। "ग़लत"! लुकमान ने जवाब दिया- "हम में से हर कोई अपनी-अपनी आग लेकर ही नरक जाता है।"
अकबर के पास ऐसे बेशुमार किस्से थे जिन्हें वे सही मौके पर इस्तेमाल करते थे।
अकबर इसी लेख में आगे लिखते हैं कि लुकमान या बीरबल जैसे लोकप्रिय पात्रों के बारे जो किस्से हम सुनते रहे हैं उनमें कई सच्चे तो कई गढ़े हुए होते हैं, लेकिन ये सब एक ही बात की ताकीद करते हैं कि बादशाहों की बादशाहत के पार भी एक ताकत है। वह ताकत है व्यंग्य की, लतीफ़ों की ताकत।
अफ़सोस, कि अकबर पर तीर चलाने वाले अव्वल तो उनके पाए बराबर डेढ़ हर्फ़ लिखने की सलाहियत नहीं रखते, दूसरे वे हास्यबोध के मामले में घोर दरिद्र हैं। दिक्कत यह नहीं है कि सत्ता की दहलीज पर पहुंचकर अकबर के भीतर का बीरबल सो गया। असल दिक्कत उन्हें लेकर है जो सलाहियत में अकबर जैसे भी न हो सके और बीरबल तो वे कभी थे ही नहीं कि सत्ता पर तंज़ कसते।
दोज़ख को छोड़िए, वहां काफ़ी आग है। आस-पड़ोस की चिंता करिए। यहां आग न लगने पाए।
ये जो पत्रकारिता के हकीम लुकमान हाथ में जलते हुए लट्ठ लेकर एक-दूसरे के पीछे दौड़ रहे हैं, कहीं ये एक नया दोज़ख न रच डालें। इनके झांसे में आने से बचिए। ज़हरखुरानों से सावधान!!!
Web Title: Beware of the poisonous people of journalism!!!


