भागवतजी विद्यार्थियों को जरूरत नहीं है आपकी देशभक्ति की तकरीरों की
प्रोफेसर राम पुनियानी का विश्लेषण — क्यों हमारे विद्यार्थियों को जबरन देशभक्ति सिखाने के बजाय स्वतंत्र विचार और बहस की ज़रूरत है?

Dr Ram Puniyani
विद्यार्थियों को जरूरत नहीं है देशभक्ति की तकरीरों की
- शिक्षण संस्थानों में देशभक्ति का राजनीतिक उपयोग
- राम पुनियानी का लेख विद्यार्थियों और राष्ट्रवाद पर
- जेएनयू में देशद्रोह के आरोप और राजनीतिक हस्तक्षेप
- रोहित वेमुला आत्महत्या और सरकारी दबाव
- क्या ‘भारत माता की जय’ अनिवार्य होना चाहिए
- देशभक्ति और संविधान में अंतर
- छात्र आंदोलनों पर सरकारी दमन
- भारतीय विश्वविद्यालयों में वैचारिक स्वतंत्रता
- संवैधानिक देशभक्ति बनाम राजनीतिक राष्ट्रवाद
RSS विचारधारा और शिक्षा का राजनीतिकरण
प्रोफेसर राम पुनियानी का विश्लेषण — क्यों हमारे विद्यार्थियों को जबरन देशभक्ति सिखाने के बजाय स्वतंत्र विचार और बहस की ज़रूरत है?....
शिक्षण संस्थाओं में देशभक्ति का भाव जगाने की बात, वर्तमान सरकार के सत्तासीन होने (मई 2014) के तुरंत बाद शुरू हो गई थी। सरकार द्वारा प्रतिष्ठित राष्ट्रीय शैक्षणिक संस्थानों में अनुचित हस्तक्षेप की कई घटनाएं एक के बाद एक हुईं। आईआईटी मद्रास में ‘पेरियार-अंबेडकर स्टडी सर्किल‘ पर प्रतिबंध लगाया गया। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय की दादागिरी से त्रस्त होकर आईआईटी, बाम्बे के निदेशक प्रोफेसर शेवगांवकर ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। इसी तरह के अनाधिकार हस्तक्षेप से परेशान होकर आईआईटी, बाम्बे के शासी निकाय के अध्यक्ष प्रोफेसर अनिल काकोड़कर ने भी अपना त्यागपत्र दे दिया था।
फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे का मामला भी लंबे समय तक सुर्खियों में रहा। यहां के विद्यार्थी आरएसएस-भाजपा की विचारधारा में यकीन रखने वाले बी ग्रेड फिल्म कलाकार गजेन्द्र चौहान की संस्थान के अध्यक्ष पद पर नियुक्ति का विरोध कर रहे थे। विद्यार्थियों ने आठ महीने तक हड़ताल की परंतु जब सरकार अड़ी रही और उसने उनकी मांग पर विचार तक करने से साफ इंकार कर दिया, तब, मजबूर होकर विद्यार्थियों ने अपना आंदोलन वापस ले लिया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय और पुणे के फरग्यूसन कॉलेज में भी इसी तरह का घटनाक्रम हुआ। हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय (एचसीयू) व जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के घटनाक्रम ने देश के विद्यार्थी समुदाय को गहरा धक्का पहुंचाया। इन दोनों मामलों में केंद्र सरकार, सत्ताधारी भाजपा और संघ परिवार के उसके साथियों ने राष्ट्रवाद और देशभक्ति के नारे उछाल कर इन दोनों विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों को बदनाम करने का कुत्सित अभियान चलाया।
एबीव्हीपी की एचसीयू शाखा के कहने पर स्थानीय भाजपा सांसद ने केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री को लिखित में यह शिकायत की कि विश्वविद्यालय परिसर में राष्ट्रविरोधी व जातिवादी गतिविधियां संचालित की जा रही हैं और कहा कि इन पर रोक लगाने के लिए अंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन (एएसए) के खिलाफ कार्यवाही की जानी चाहिए। एबीव्हीपी ने अपने राजनैतिक एजेंडे के अनुरूप, एएसए द्वारा विश्वविद्यालय में आयोजित कई कार्यक्रमों का विरोध किया था। इनमें शामिल थे उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर में हुई सांप्रदायिक हिंसा पर बनी फिल्म ‘‘मुजफ्फरनगर बाकी है’’ का प्रदर्शन’ और ‘‘बीफ उत्सव’’ का आयोजन। रोहित वेम्यूला ने अपनी फेसबुक वाल पर लिखा कि उन्होंने इस उत्सव में इसलिए भागीदारी की क्योंकि वे उन लोगों से अपनी एकजुटता दिखाना चाहते थे, जो बीफ का सेवन करते हैं। एएसए ने अफज़ल गुरू को मौत की सज़ा दिए जाने का भी विरोध किया। एएसए का तर्क यह था कि मौत की सज़ा अमानवीय है और किसी भी सभ्य समाज में इसके लिए कोई स्थान नहीं है।
इसके बाद, मंत्रालय के दबाव में, कुलपति ने वेम्यूला को छात्रावास से निष्कासित कर दिया और उनकी शिष्यवृत्ति बंद कर दी। इसी ने उन्हें आत्महत्या की ओर धकेला। जेएनयू के मामले में सुनियोजित तरीके से देशभक्ति का मुद्दा उठाया गया। जेएनयू छात्रसंघ द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में कुछ नकाबपोशों ने जबरन प्रवेश कर भारत-विरोधी नारे लगाए। कन्हैया कुमार और उनके दो साथी नारे लगाने वालों में शामिल नहीं थे। यह दिलचस्प है कि पुलिस अब तक उन लोगों का पता नहीं लगा पाई है जिन्होंने ये निंदनीय नारे लगाए थे। उलटे, पुलिस ने कन्हैया कुमार, अनिरबान भट्टाचार्य और उमर खालिद को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। कुछ टीवी चैनलों में एक ऐसा वीडियो बार-बार दिखाया गया जो नकली था। बाद में यह स्पष्ट हो गया कि जिन छात्र नेताओं को गिरफ्तार किया गया था, उनका भारत-विरोधी नारेबाजी से कोई लेनादेना नहीं था। जिस कार्यक्रम में ये नारे लगाए गए थे, वह अफज़ल गुरू की बरसी पर आयोजित किया गया था। इस मसले पर भाजपा के दोगलेपन के बारे में जितना कहा जाए, उतना कम है। भाजपा ने काफी प्रयास कर कश्मीर में पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बनाई है। पीडीपी, अफज़ल गुरू को शहीद मानती है और यह भी मानती है कि उसके साथ न्याय नहीं हुआ। यह स्पष्ट है कि भाजपा, जेएनयू मामले को एक भावनात्मक रंग देने पर आमादा है।
हम सब यह जानते हैं कि जिस तरह के नारे जेएनयू में लगाए गए, वैसे नारे कश्मीर में आम हैं। इसी तरह के अलगाववादी नारे उत्तरपूर्वी राज्यों में भी कई समूहों और संगठनों द्वारा लगाए जाते रहे हैं। जहां तक भारत से अलग होने की मांग का संबंध है, ऐसी ही मांग तमिलनाडु के डीएमके नेता सीएन अन्नादुराई ने भी उठाई थी। वे हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देश पर लादे जाने के खिलाफ थे। कुल मिलाकर, दुनिया के कई हिस्सों में अलग-अलग देशों में स्वायत्तता या देश से अलग होने की मांगे उठाई जाती रही हैं और इन मुद्दों पर आंदोलन भी चलते रहे हैं। परंतु कभी भी उन्हें राष्ट्रद्रोह नहीं बताया गया। कई समूह और राजनैतिक संगठन, सत्ताधारी पार्टी और उसकी सरकार की कटु निंदा करते आए हैं। परंतु यह राष्ट्रद्रोह नहीं है। यह तो एक प्रजातांत्रिक अधिकार है।
भारत में भी कई समूह और संगठन, समय-समय पर स्वायत्तता और अलग देश की मांग करते रहे हैं। किसी भी देश - विशेषकर भारत जैसे विशाल देश - में अलग-अलग तरह की राजनैतिक प्रवृत्तियां होती हैं और उनमें समय के साथ परिवर्तन भी होता है। सवाल यह है कि हम इस तरह के असंतोष का कैसे मुकाबला करें? युवा और विद्यार्थी, हर तरह के विचारों और विचारधाराओं पर बहस और चर्चा करते हैं। आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन और कई अन्य विद्यार्थी संगठनों ने ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध खुलकर आंदोलन किए परंतु उन्हें राष्ट्रवादियों द्वारा देशभक्ति का लेक्चर नहीं पिलाया गया था। स्वाधीनता संग्राम में जिन देशभक्तों ने प्रमुख भूमिका निभाई थी, उनमें से अधिकांश गांधी के अनुयायी थे और उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन से प्रेरणा ग्रहण की थी।
उस समय भी कई युवा और विद्यार्थी, मुस्लिम लीग व हिंदू महासभा-आरएसएस की सांप्रदायिक विचारधारा से प्रभावित थे और ऐसे विद्यार्थियों ने कभी राष्ट्रनिर्माण और स्वाधीनता संग्राम के संघर्ष में भाग नहीं लिया। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को 1942 में इसलिए गिरफ्तार किया गया था क्योंकि वे गांधीजी से प्रेरित विद्यार्थियों के एक प्रदर्शन को देख रहे थे। वाजपेयी ने अधिकारियों को एक पत्र लिखकर कहा कि उनका राष्ट्रीय आंदोलन से कोई लेनादेना नहीं है और वे तो एक तमाशबीन की हैसियत से प्रदर्शनस्थल पर मौजूद थे। उन्हें दो दिन के अंदर जेल से रिहा कर दिया गया था।
विश्वविद्यालयों और अन्य शैक्षणिक संस्थानों में विद्यार्थियों को देशभक्ति की घुट्टी पिलाए जाने की आवश्यकता नहीं है। उनकी शिक्षा और उनका समाज उन्हें स्वमेव देशभक्त बनाता है। जिस तरह की देशभक्ति के पाठ संघ परिवार द्वारा पढ़ाए जा रहे हैं, उनकी न तो कोई ज़रूरत है और ना ही उपयोगिता। जैसा कि जेएनयू व एचसीयू के घटनाक्रम से स्पष्ट है, देशभक्ति के नाम पर समाज को बांटा जा रहा है। देशभक्ति को ‘‘भारत माता की जय’’ के नारे से भी जोड़ दिया गया है। पहले आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत ने यह आह्वान किया कि युवाओं को यह नारा लगाना सिखाया जाना चाहिए। इसके बाद, असादुद्दीन ओवैसी ने जो प्रतिक्रिया व्यक्त की, उससे यह स्पष्ट है कि ये दोनों ही नेता इस मुद्दे को भावनात्मक स्वरूप देकर देश को बांटना चाहते हैं। आरएसएस इस मुद्दे पर अत्यंत आक्रामक है। जैसा कि जेहोवा विटनेस के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय के निर्णय से स्पष्ट है, संवैधानिक स्थिति यह है कि सभी नागरिकों को राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान करना चाहिए परंतु किसी गीत का गायन या किसी नारे का लगाया जाना आवश्यक व अनिवार्य नहीं बनाया जा सकता।
देशभक्ति का एक अर्थ है हमारे देश के संविधान और उसके कानूनों का पालन करना। सरकार की आलोचना की तुलना देशद्रोह से नहीं की जा सकती। लोगों पर नारे लादने के वर्तमान प्रयासों का देशभक्ति से कोई संबंध नहीं है। इस अभियान के राजनैतिक उद्देश्य हैं। हमें भागवत, देवेन्द्र फडनवीस और बाबा रामदेव जैसे विघटनकारी तत्वों से सावधान रहना चाहिए जो अनावश्यक मुद्दे उठा कर देश में तनाव फैलाने में जुटे हुए हैं। बाबा रामदेव का वक्तव्य तो अत्यंत डरावना है। अंग्रेज़ी में एक कहावत है ‘‘पेट्रोयट्रिज्म इज द लास्ट रिफ्यूज ऑफ इस्कांड्रेल्स’’ (देशभक्ति लुच्चों की आखिरी पनाहगाह है)। भारत में भी छद्म राष्ट्रवादियों ने अपने राजनैतिक लक्ष्यों को पूरा करने के लिए देशभक्ति की शरण ले ली है।
हमारे शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को देशभक्ति पर तकरीरों की ज़रूरत नहीं है। वहां स्वतंत्र बहस व आलोचना का वातावरण विकसित किया जाना चाहिए - एक ऐसा वातावरण, जिसमें असहमतियों के स्वरों को दबाया न जाए। वहां भारतीय राष्ट्रवाद और मानवतावाद के मूल्यों को बढ़ावा दिए जाने की ज़रूरत है। भारत माता की जय कहने और राष्ट्रीय ध्वज फहराने से ही कोई देशभक्त नहीं हो जाता।
-राम पुनियानी
(मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)
15 अप्रैल, 2016


