#BhimaKoregaonViolence : यह सिर्फ़ दलितों पर नहीं समूची आधुनिक भारतीय राष्ट्रीयता पर, सम्विधान और लोकतंत्र पर हमला है
#BhimaKoregaonViolence : यह सिर्फ़ दलितों पर नहीं समूची आधुनिक भारतीय राष्ट्रीयता पर, सम्विधान और लोकतंत्र पर हमला है
हम पेशवाई प्रतिक्रियावाद को अपनी प्रगतिशील विरासत का हिस्सा नहीं मान सकते. हरगिज नहीं
अतीत की घटनाओं को जब वर्तमान की राजनीति के हिसाब से तोड़ मरोड़ दिया जाता है तब कोरेगांव-आतंक 2018 जैसे दुस्स्वप्न पैदा होते हैं.
आप भीमा-कोरेगांव विजय 1818 की घटना को किस तरह देखते हैं?
क्या आप इसे 'आज़ादी की लड़ाई' की एक कड़ी के रूप में देखते हैं? क्या आप पेशवा बाजीराव 2 के दो हज़ार सैनिकों के कम्पनी के आठ सौ सिपाहियों की चुनौती के सामने पीछे लौटने पर मजबूर होने को भारतीय राष्ट्रीयता पर अंग्रेज़ी राज की जीत के रूप में देखते हैं और शर्मिंदा होते हैं?
अथवा आप इसे कट्टर ब्राह्मणवादी पेशवाशाही के खिलाफ़ महार चुनौती की जीत के रूप में देखते हैं? और गौरवान्वित होते हैं?
यह कुछ वैसा ही सवाल है जैसे यह कि एक भारतीय के रूप में आज आप अकबर और राणा प्रताप में से किसकी उपलब्धियों पर गर्व करते हैं, और किस पर अफ़सोस!
अकबर के खिलाफ़ राणा प्रताप का संघर्ष किसी विदेशी आक्रान्ता के खिलाफ़ भारतीय राष्ट्रीयता की लड़ाई नहीं थी. क्योंकि दोनों के ही दिमाग में दूर दूर तक भारतीय राष्ट्रीयता का कोई ख़याल नहीं था. क्योंकि दोनों को ऐसी किसी चीज के वजूद की जानकारी नहीं थी.
अकबर और राणा प्रताप के युद्ध को भारतीय राष्ट्रवाद से जोड़ने वाले असल में आज के आधुनिक भारतीय राष्ट्र को धर्म के नाम पर विभाजित करने का खेल खेलते हैं, उसे कमजोर करते हैं. वे अपनी आज की राजनीति के लिए इतिहास की तोड़मरोड़ करते हैं.
आज हमारे दिमाग में भारतीय राष्ट्रीयता का जो भी नक्शा है वह 1857 और उसके बाद लड़ी गई भारत की आज़ादी की लड़ाई से निर्मित हुआ है .
आज हम भारतीय राष्ट्रीयता की विरासत से न तो अकबर की उपलब्धियों को निकाल सकते हैं, न राणा प्रताप की, तुलनात्मक रूप से वे चाहे जितनी छोटी-बड़ी हों. एक भारतीय के रूप में हम दोनों पर गर्व करते हैं.
पेशवा बाजीराव भी भारतीय राष्ट्रीयता के लिए नहीं लड़ रहे थे. बाजीराव का झगड़ा तो बुनियादी रूप से लगान के बंटवारे के विषय में दूसरे मराठा सरदार बडौदा के गायकवाड से चल रहा था. कम्पनी ने इस झगड़े में हस्तक्षेप किया और पेशवा को गायकवाड के लगान पर अपना दावा छोड़ना पड़ा. पेशवा लगान के लिए लड़ रहे थे, राष्ट्र के लिए नहीं.
उनकी सेना का सबसे मजबूत और बड़ा धडा अरबों का था. अरबों के अलावा उनकी सेना में गोंसाई और मराठे थे. हारने के बाद उन्होंने पेंशन और घर के लिए कम्पनी के सामने आत्मसमर्पण कर दिया .इसमें कौन-सी गौरव की बात है? इसका भारतीय राष्ट्रवाद से क्या लेना देना है?
कम्पनी की टुकड़ी में महारों के अलावा कुछ मराठे, राजपूत, मुसलमान और यहूदी भी थे. अपने से तिगुनी बड़ी फ़ौज से लड़ते हुए इस टुकड़ी ने जो वीरता दिखाई, वह दुनिया भर की लड़ाइयों के इतिहास में याद किया जाता है. इस युद्ध में महारों की भूमिका सर्वाधिक प्रभावशाली थी. लेकिन यह वीरता उन्होंने भावी अंग्रेज़ी राज के लिए नहीं दिखाई थी. उनके दिलों में पेशवाशाही के दौरान हुई दलितों की भीषण अवमानना की आग जल रही थी. वे अपने आत्मसम्मान की पुनर्स्थापना के लिए लड़ रहे थे.
महारों की यह वीरता आज की हमारी भारतीय राष्ट्रीयता का गौरवशाली हिस्सा क्या सिर्फ़ इसलिए न बने कि यह पेशवाशाही के मुरीदों को पसंद नहीं? बिलाशक उनका संघर्ष हमारी आज की भारतीय राष्ट्रीयता की महान विरासत है, भले ही वे उस वक़्त कम्पनी की फ़ौज के हिस्से रहे हों.
हम पेशवाई प्रतिक्रियावाद को अपनी प्रगतिशील विरासत का हिस्सा नहीं मान सकते. हरगिज नहीं .
विजय दिवस पर हमला बोलने वालों ने सिर्फ़ दलितों पर नहीं समूची आधुनिक भारतीय राष्ट्रीयता पर, सम्विधान पर और लोकतंत्र पर हमला किया है . उनका असली मकसद भारत में पेशवाशाही को पुनरुज्जीवित करना है. हम सब को मिलकर उनके इस नापाक मिशन को नाकाम करना है . हमारी यह लड़ाई पेशवाशाही के खिलाफ़ भारतीय लोकतंत्र की लड़ाई है.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं, उनकी एफबी टाइमलाइन से साभार)
#पेशवाशाहीबनामलोकतंत्र
#आशुतोषकुमार


