सुखदेव की अनसुनी कहानी | शहीद ए आज़म की असली जीवनी डॉ. रामजीलाल की ज़ुबानी
यह क्रांतिकारी सुखदेव की जीवनी (Biography of revolutionary Sukhdev in Hindi) न सिर्फ उनके बलिदान को उजागर करती है, बल्कि उस सोच को भी सामने लाती है जो आज भी प्रासंगिक है।

biography of revolutionary sukhdev in hindi
क्या आप जानते हैं कि भगत सिंह के सबसे करीबी साथी सुखदेव थापर की असली कहानी क्या थी? इस लेख में हम लेकर आए हैं डॉ. रामजीलाल द्वारा लिखित एक अद्भुत जीवनी, जो आपको बताएगी—
- सुखदेव का क्रांतिकारी जीवन
- भगत सिंह से दोस्ती और उनका विचार-संवाद
- लाहौर षड्यंत्र केस की सच्चाई
- जेल में बिताए आखिरी दिन
- और वह विरासत जिसे इतिहास ने अनदेखा कर दिया
यह क्रांतिकारी सुखदेव की जीवनी (Biography of revolutionary Sukhdev in Hindi) न सिर्फ उनके बलिदान को उजागर करती है, बल्कि उस सोच को भी सामने लाती है जो आज भी प्रासंगिक है।
लेखक डॉ. रामजीलाल
- सुखदेव थापर कौन थे?
- भगत सिंह और सुखदेव की दोस्ती
- डॉ. रामजीलाल की कलम से: असली जीवनी
- सुखदेव की विचारधारा और वैचारिक संघर्ष
- लाहौर षड्यंत्र केस की सच्चाई
- जेल की डायरी: सुखदेव के अंतिम दिन
- शहीद सुखदेव की अनदेखी विरासत
सुखदेव थापर (15 मई 1907 – 23 मार्च 1931) एक महान स्वतंत्रता सेनानी, क्रांतिकारी, कट्टर समाजवादी, महान देशभक्त, विचारक, कुशल संगठनकर्ता, तेज तर्रार वक्ता, उत्कृष्ट वाद-विवाद कर्ता, सर्वोच्च आत्म-बलिदान कर्ता और असाधारण बुद्धिमान युवक थे. काकोरी षडयंत्र, सेंट्रल असेंबली बम षडयंत्र और सबसे बढ़कर लाहौर षडयंत्र जैसी कई क्रांतिकारी गतिविधियाँ और षडयंत्र उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर रचे थे अन्य क्रांतिकारियों की भांति सुखदेव को क्रांतिकारी सर्कल में अनेक छद्म नाम— “ग्रामीण”, “किसान”, ”गवार”, “स्वामी” और “दयाल” थे. भगत सिंह छद्म नामों – ‘बलवंत’, ’विद्रोही’, ’बीएस संधू’, ‘पंजाबी युवक’ इत्यादि का प्रयोग करते थे
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा:
15 मई 1907 को पंजाब के प्रसिद्ध शहर लुधियाना के नौघरा मोहल्ले में प्रसिद्ध क्रांतिकारी सुखदेव का जन्म (Birth of the famous revolutionary Sukhdev) श्रीमती रल्ली देवी और श्री रामलाल थापर (आर्य समाजी) के घर हुआ था. जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल और वर्तमान में ट्रिब्यून ट्रस्ट, चंडीगढ़ के अध्यक्ष, एन.एन. वोहरा (N.N. Vohra, former governor of Jammu and Kashmir and currently chairman of Tribune Trust, Chandigarh) ने मुझे लिखा कि सुखदेव ‘मेरे मामा, मेरी माँ के चचेरे भाई थे, जिनका पालन-पोषण उन्होंने किया था, क्योंकि उनकी माँ की मृत्यु बहुत जल्दी हो गई थी‘. उनके माता-पिता की मृत्यु बहुत कम उम्र में हो गई थी, इसलिए उनका पालन-पोषण उनके मामा लाला अचिंत राम थापर (एन.एन. वोहरा के नाना) की देखरेख में लायलपुर (अब पाकिस्तान में) में हुआ.
सुखदेव ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा श्री सनातन धर्म स्कूल, लायलपुर (अब पाकिस्तान) में प्राप्त की और उच्च अध्ययन के लिए उन्होंने नेशनल कॉलेज, लाहौर में प्रवेश लिया.
(*भारत सरकार के इंडियन कल्चर पोर्टल पर सुखदेव का जन्म स्थान नौघरा गांव लुधियाना दर्शाया गया है. इसकी जगह नौघरा मोहल्ला, लुधियाना लिखकर भूल सुधार किया जाना चाहिए. (*)
सुखदेव के चिंतन और व्यक्तित्व पर प्रभाव
प्रत्येक व्यक्ति के चिंतन और व्यवहार पर समकालीन सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षणिक, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्थितियों का गहरा प्रभाव पड़ता है. सुखदेव के प्रारम्भिक काल में ही उनके माता-पिता की मृत्यु हो गई थी. और उनका पालन-पोषण उनके लाला अचिंत राम ने किया, जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य व ब्रिटिश सामाज्यवाद के धुंरधर विरोधी थे. आर्य समाज और सिविल सोसायटी के अग्रणीय कार्यकर्ता होने कारण वह किसान आंदोलनों, “अछूतों” के सामाजिक सुधार और हिंदू-मुस्लिम एकता के अभियानों में सक्रिय भाग लेते थे. लाला अचिंत राम एक धैर्यवान,साहसी, प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी थे. सुखदेव की आयु केवल 12 वर्ष की थी जब अराजक और क्रांतिकारी अपराध अधिनियम ( The Anarchical and Revolutionary Crimes Act ) रॉलेट एक्ट (The Rowlatt Act) के विरुद्ध पंजाब में आंदोलन में सक्रिय भाग लेने के कारण उनको गिरफ्तार कर लिया. इसके पश्चात सन् 1921 में असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण दोबारा फिर गिरफ्तार कर लिया गया और जेल में डाल दिया गया. एन.एन.वोहरा के अनुसार स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के कारण लाला अचिंत राम 19 वर्ष जेल रहे. इस घरेलू परिवेश का सुखदेव के मन पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा.
सुखदेव पर जलियांवाला बाग सुनियोजित नरसंहार (13 अप्रैल 1919) का प्रभाव
विश्व प्रथम विश्व युद्ध (सन् 1914 – सन् 1918) के समय अंग्रेजी सरकार का यह कहना था ‘युद्ध स्वतंत्रता के लिए लड़ा जा रहा है’. विश्व युद्ध के दौरान जनता से बलपूर्वक युद्ध का चंदा इकट्ठा करना, अभूतपूर्व महंगाई, बेरोजगारी, भुखमरी, जनता पर कर्ज, महामारी, असंतुलित मानसून, आर्थिक मंदी का दौर, गदर पार्टी के क्रांतिकारी आंदोलन का पंजाबी युवाओं पर निरंतर बढ़ता हुआ प्रभाव एवं तुर्की में पैन इस्लामिक मूवमेंट के कारण भारतीय जनता में भी असंतोष की भावना चरम सीमा पर थी.
सरकार ने असंतोष को दबाने के लिए अराजक एवं आपराधिक अधिनियम 1919 (रौल्ट एक्ट) लागू किया. इन काले कानूनों के विरुद्ध ‘नो अपील, नो दलील, नो वकील‘ का नारा हिंदुस्तान में फैल गया.
इन कानूनों का पंजाब में विरोध हुआ. 13 अप्रैल पंजाब में वैशाखी के दिन के रूप में मनाया जाता है. परिणाम स्वरूप 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग में वैशाखी मनाने और रौल्ट एक्ट का विरोध करने के लिए के लिए लगभग 20,000 लोग शांतिपूर्ण सभा कर रहे थे. इस शांतिपूर्ण समारोह पर सुनियोजित योजना के आधार पर भारतीयों को सबक सिखाने तथा दबाने के लिए ब्रिगेडियर जनरल रेजीनाल्ड (एडवर्ड डायर) सैनिकों की टुकड़ी के साथ शाम 5 बजकर 15 मिनट पर सभा स्थल पर गए और बिना चेतावनी दिए गोली चलाने के आदेश दिए. सैनिक टुकड़ी ने लगभग 1650 गोलियां फायर की तथा फायरिंग गोलियां समाप्त होने तक चलती रही. लगभग 15 मिनट में अमृतसर के सिविल सर्जन डॉ. स्मिथ के अनुसार 1800 लोग मारे गए. जलियांवाला बाग हत्याकांड (Jallianwala Bagh Massacre) सन् 1857 की जनक्रांति के पश्चात रक्तरंजित बर्बरता, निर्दयता एवं अमानवीय नरसंहार 20वीं शताब्दी प्रथम मिसाल थी. समस्त भारत में जलियांवाला बाग के सुनियोजित नरसंहार के परिणाम स्वरूप जनता का गुस्सा सातवें आसमान पर था और इसके बाद जन आंदोलन किसानों और मजदूरों के संघर्षों एवं राष्ट्रीय आंदोलन में एक नया मोड़ आया. दूसरे शब्दों में ब्रिटिश साम्राज्यवाद पतन की ओर अग्रसर हुआ.
यद्यपि इस समय सुखदेव कीआयु केवल 12 वर्ष की थी. परंतु अन्य युवाओं-उधम सिंह, भगत सिंह इत्यादि की भांति उन के दिल और दिमाग पर ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार के द्वारा किए गए अत्याचारों का गहरा प्रभाव पड़ा और उनका अभिमुखीकरण इस अल्पायु में ही क्रांतिकारी गतिविधियों की ओर होने लगा और वह बचपन से बगावती हो गए.
सुखदेव – नेशनल कॉलेज, लाहौर: युवा क्रांतिकारियों से मुलाकात
सन् 1922 में मैट्रिक की पढ़ाई पूरी करने के बाद सुखदेव ने नेशनल कॉलेज, लाहौर में दाखिला लिया. नेशनल कॉलेज लाहौर की स्थापना सन् 1921 में लाला लाजपत राय के द्वारा की गई थी. अपनी स्थापना से ही यह महाविद्यालय राष्ट्रवादियों एवं क्रांतिकारियों की गतिविधियों की नर्सरी बन गया. उस समय लाहौर उत्तर- पश्चिमी भारत में राष्ट्रीय आंदोलन एवं क्रांतिकारी गतिविधियों का मुख्य केंद्र था. इस महाविद्यालय में प्राचार्य छबीलदास तथा विद्यालंकार जैसे शिक्षकों के सानिध्य़ व प्रेरणा ग्रहण करते हुए सुखदेव कांग्रेस समर्थित सत्याग्रह लीग के सदस्य बन गए. यह उनका राष्ट्रीय आन्दोलन में गतिविधियों की ओर प्रारम्भिक कदम था. लाहौर में शिक्षा ग्रहण करते समय सुखदेव की मुलाकात भावी युवा क्रांतिकारियों – भगत सिंह, यशपाल, गणपत राय, भगवती चरण वोहरा इत्यादि से हुई.
सुखदेव पर समाजवादी साहित्य का प्रभाव
सुखदेव एक विचारक, चिंतक, एवं उत्कृष्ट अध्येता थे. सुखदेव की सोच पर समाजवाद, पश्चिमी देशों में क्रांतिकारी आंदोलनों, मार्क्सवाद, राष्ट्रवाद और राजनीति विज्ञान पर साहित्य और टेरेंस जे. मैकस्विनी की ‘स्वतंत्रता के सिद्धांत‘, मार्क्स की ‘फ्रांस में गृहयुद्ध‘ और बुखारिन की ‘ऐतिहासिक भौतिकवाद‘ आदि पुस्तकों का स्थायी प्रभाव रहा. सुखदेव ने उर्दू अखबार ‘बंदे मातरम‘ में भी काम किया, लेकिन लेखन में उनकी रुचि लगभग नगण्य थी. यही कारण है कि उन्होंने महात्मा गांधी को एक पत्र, अपने चाचा को एक पत्र और अपने साथियों को तीन पत्रों सहित कुल पांच छोटे लेख/ पत्र लिख लिखे.
सुखदेव के राजनीतिक चिंतन पर मार्क्सवाद-लेनिनवाद का गहरा प्रभाव था. वह एचआरएसए के मुख्य रणनीतिकारों में होने के कारण आतंकवादी एवं अराजकतावादी गतिविधियों के शत-प्रतिशत विरूद्ध थे. एचएसआरए का मुख्य उद्देश्य (Main objective of HSRA) भारत में ‘समाजवादी गणराज्य’ की स्थापना करना था.
सुखदेव के अनुसार, ‘एचएसआरए और क्रांतिकारी समाजवादी गणराज्य की स्थापना के लिए खड़े हैं… जब तक लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता, संघर्ष जारी रहेगा।’ इससे यह स्पष्ट होता है कि वह पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के गठबंधन के खिलाफ थे.
सुखदेव के मित्र शिव वर्मा के अनुसार, ‘भगत सिंह के बाद, अगर किसी साथी ने समाजवाद पर सबसे अधिक पढ़ा और मनन किया, तो वह सुखदेव थे.’ यह स्पष्ट है कि कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स द्वारा लिखित कम्युनिस्ट घोषणापत्र (1848) और लेनिन का प्रभाव सुखदेव की सोच में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है. वह न केवल राष्ट्रवादी थे बल्कि कट्टर समाजवादी भी थे.
सुखदेव की क्रांतिकारी संगठनों की सदस्यता एवं नेतृत्व
नौजवान भारत सभा सदस्य: युवाओं में एक नई चेतना के उत्प्रेरक
सुखदेव नौजवान भारत सभा के सदस्य थे. उन्होंने पंजाब और उत्तरी भारत के अन्य क्षेत्रों में क्रांतिकारी आंदोलनों की शुरुआत की. मार्च 1926 में भगत सिंह के द्वारा नौजवान सभा की स्थापना की गई. सुखदेव नौजवान सभा के अग्रणीय सदस्यों में थे. वे एक अच्छे वाद-विवाद कर्ता थे. उनके धारा प्रवाह, जोशीले एवं तेज तर्रार भाषणों के कारण तत्कालीन अविभाजित पंजाब व उत्तरी भारत के अन्य क्षेत्रों के युवाओं में एक नई चेतना व जागरूकता आई. युवा नौजवान भारत सभा के युवा सदस्यों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई. परिणाम स्वरूप अविभाजित पंजाब में क्रांतिकारी स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी भड़क उठी.
2. सुखदेव : हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) : संस्थापक व पंजाब इकाई के सचिव
दिल्ली में फिरोज शाह कोटला मैदान में 8- 9 सितंबर 1928 को एक गुप्त बैठक हुई. इस बैठक में सुखदेव और भगत सिंह ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) का नाम बदलकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) करने और उसमें ‘सोशलिज्म’ शब्द जोड़ने का प्रस्ताव रखा. इस प्रस्ताव को बैठक में मौजूद अन्य क्रांतिकारियों- शिव वर्मा, विजय कुमार सिंह, सुरेंद्र पांडे आदि ने मंजूरी दे दी.
सुखदेव एक प्रखर समाजवादी और कुशल संगठनकर्ता थे. यही वजह है कि उन्हें इस नवगठित संगठन की पंजाब इकाई के सचिव की जिम्मेदारी सौंपी गई. नतीजतन, उन्होंने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) की नीतियों, आंदोलन की रणनीति और योजनाओं को तैयार करने व क्रियान्वन करने में सबसे महत्वपूर्ण और निर्णायक भूमिका निभाई.
उन्होंने जनता में जागरूकता पैदा करने, विरोध करने तथा जनता की सहानुभूति व समर्थन प्राप्त करने के लिए एचएसआरए के संगठनात्मक ढांचे को मजबूत करने पर विशेष जोर देते हुए कहा कि इसी आधार पर सरकार से सीधा टकराव किया जा सकता है. क्रांतिकारी अपने क्रांतिकारी मिशन के लिए अपनी जान तक की कुर्बानी दे सकते हैं, क्योंकि उन्हें मौत का डर नहीं होता. सुखदेव के शब्दों में:
“हमारा विचार था कि हमारे कार्यों से जनता की इच्छाएँ पूरी होनी चाहिए और सरकार द्वारा दूर न की गई शिकायतों का जवाब होना चाहिए ताकि वे जनता की सहानुभूति और समर्थन प्राप्त कर सकें. इस दृष्टि से हम जनता में क्रांतिकारी विचारों और रणनीतियों को भरना चाहते थे और ऐसे विचारों की अभिव्यक्ति उन लोगों के मुँह से अधिक महिमामंडित लगती है जो इस उद्देश्य के लिए फाँसी पर चढ़ जाते हैं। हमारा विचार था कि सरकार के साथ सीधे टकराव में आकर हम अपने संगठन के लिए एक निश्चित कार्यक्रम तैयार कर सकेंगे.”
संक्षेप में, लेनिन की तरह उनका भी मानना था कि क्रांति केवल क्रांतिकारी विचारधारा और दृढ़ संकल्प से लैस ‘प्रशिक्षित पेशेवर क्रांतिकारियों’ द्वारा ही लाई जा सकती है.
हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का मुख्य उद्देश्य’ ब्रिटिश साम्राज्यवाद से आजादी प्राप्त करना’ और ‘भारत के संयुक्त राज्य समाजवादी गणराज्य’ की स्थापना करना था, जिसमें‘सर्वहारा वर्ग की तानाशाही’ के तहत ‘सार्वभौमिक मताधिकार’ हो और ‘सत्ता के केंद्र (Seat of Power) से परजीवियों (Parasites) का उन्मूलन हो, जहां ‘मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण न हो’
यद्यपि क्रांतिकारियों और महात्मा गांधी के विचारों में मूलभूत अंतर था. इसके बावजूद भी क्रांतिकारी महात्मा गांधी का सम्मान करते थे.
सुखदेव ने महात्मा गांधी को पत्र में ‘परम आदरणीय महात्मा जी’ के नाम से संबोधित करते हुए अपने लक्ष्यों और क्रांतिकारी रणनीति के बारे में लिखा :. “परम आदरणीय महात्मा जी,..जैसा कि हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी के नाम से ही पता चलता है, क्रांतिकारियों का लक्ष्य भारत में समाजवादी गणराज्य की स्थापना है. जब तक क्रांतिकारी अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते, उनके सिद्धांत पूरे नहीं हो जाते, तब तक वे संघर्ष जारी रखने के लिए दृढ़ संकल्पित हैं. क्रांतिकारी बदलती परिस्थितियों और वातावरण में अपनी रणनीति बदलने में भी माहिर होता है. क्रांतिकारी संघर्ष अलग-अलग समय में अलग-अलग रूप लेता रहा है. कभी यह खुलकर सामने आता है, कभी छिपकर, कभी खादी आंदोलनकारी का रूप ले लेता है तो कभी जीवन-मरण का संघर्ष हो.’
(Letter of Sukhdev to Mahatma Gandhi)
सुखदेव : लाला लाजपत राय की मौत का बदला : जॉन सॉन्डर्स की हत्या ( 17 दिसंबर 1928) के प्रमुख योजनाकार
8 नवंबर 1927 को साइमन कमीशन की घोषणा की गई थी. 30 अक्टूबर 1928 को जब साइमन कमीशन लाहौर रेलवे स्टेशन पर पहुंचा तो उसका विरोध कर रहे अहिंसक और शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों की विशाल भीड़ द्वारा ‘साइमन कमीशन वापस जाओ‘ के नारे आसमान में गूंज रहे थे. इस प्रदर्शन का नेतृत्व लाला लाजपत राय कर रहे थे. लाहौर के पुलिस अधीक्षक जेम्स. ए. स्कॉट ने अहिंसक और शांतिपूर्ण भीड़ को तितर-बितर करने के लिए लाठीचार्ज का आदेश दिया. पुलिस अधीक्षक स्टॉक ने स्वयं लाला लाजपत राय पर लाठियों से हमला किया और वे गंभीर रूप से घायल हो गए. 17 नवंबर 1928 को 63 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई. परिणामस्वरूप, क्रांतिकारियों – सुखदेव, शिवराम, राजगुरु, चंद्रशेखर आज़ाद – ने लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने और ब्रिटिश सरकार को संदेश देने के लिए लाहौर के पुलिस अधीक्षक जेम्स ए स्कॉट को मारने की योजना बनाई. 17 दिसंबर 1928 को शाम 4: 03 बजे जब सहायक पुलिस अधीक्षक, जॉन पोयंट्ज़ सॉन्डर्स, (जे.पी सॉन्डर्स) लाहौर के पुलिस मुख्यालय से बाहर निकले (गलती से उन्हें जेम्स ए स्कॉट समझकर), राजगुरु और भगत सिंह ने तुरंत उन्हें गोली मार दी.
क्रांतिकारियों का उद्देश्य जॉन सॉन्डर्स को मारना नहीं था, बल्कि उनका निशाना लाहौर के पुलिस अधीक्षक जेम्स ए स्कॉट थे. पाठकों को यह बताना भी ज़रूरी है कि उससे एक महीने पहले ही जेपी सॉन्डर्स की सगाई भारत के वायसराय लॉर्ड इरविन के पी.ए. की बेटी से हुई थी. इसलिए जेपी सॉन्डर्स की मौत से ब्रिटिश सरकार भड़क उठी थी और उसका गुस्सा और बदला अपने चरम पर था.
हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन : जेपी सॉन्डर्स की हत्या की जिम्मेदारी —हस्तलिखित और हस्ताक्षरित नोटिस
17 दिसम्बर 1928 को बलराज द्वारा लाल स्याही से अंग्रेजी भाषा में हस्तलिखित और हस्ताक्षरित नोटिस 18-19 दिसम्बर 1928 की रातों रात में लाहौर की दीवारों पर चिपका दिए गए. इस नोटिस में हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन ने जेपी सांडर्स की हत्या की जिम्मेदारी ली, – ‘जे.पी. सांडर्स की मौत! – लाला लाजपत राय का बदला लिया गया!!’.
नोटिस में स्पष्ट तौर पर अनुरोध किया गया था, ‘सभी से अनुरोध है कि वे हमारे दुश्मन, पुलिस को हमारा सुराग ढूंढने में किसी भी प्रकार की सहायता देने से बचें,’ और साथ ही ‘गंभीर परिणाम भुगतने ‘की चेतावनी भी दी गई. हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के इस नोटिस में साम्राज्यवादी सरकार को चेतावनी देते हुए लिखा था, ‘सावधान, तानाशाहों; सावधान.’ इस चेतावनी के कारण पंजाब की नौकरशाही में भय, क्रोध, असंतोष और गुस्से का ज्वालामुखी फूट पड़ा और सामूहिक इस्तीफे की धमकी दी गई.. (Bhagat Singh: Beware, Ye Bureaucracy )
(स्रोत: भारत के सर्वोच्च न्यायालय संग्रहालय)
भारत के क्रांतिकारी इतिहास की रोमांचकारी घटना :
पूर्व नियोजित योजना के अनुसार, भगत सिंह एक अधिकारी और क्रांतिकारी दुर्गा भाभी (क्रांतिकारी श्रीमती दुर्गा देवी वोहरा —क्रांतिकारी भगवती चरण वोहरा की पत्नी – क्रांतिकारी उन्हें दुर्गा भाभी कहते थे) – भगत सिंह की अवास्तविक – ‘छद्म पत्नी‘ के वेश में, अपने तीन वर्षीय बच्चे (दुर्गा भाभी के बेटे शचि) के साथ लाहौर से प्रथम श्रेणी के रेल डिब्बे में सवार होकर कोलकाता के लिए रवाना हुए. उनकी सुरक्षा के लिए राजगुरु ने अर्दली का काम किया और दूसरी ओर चंद्रशेखर आज़ाद साधु के वेश में मथुरा पहुँच गए. वास्तव में, यह स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारी इतिहास की एक रोमांचकारी घटना है, फिल्मों के दृश्यों की तरह. इस घटना का वर्णन करते हुए मलविंदरजीत वडैच ने अपनी पुस्तक ‘भगत सिंह द एटर्नल रेबेल‘ (Bhagat Singh The Eternal Rebel by Malwinderjit Singh Waraich) में लिखते हैं,कि “भगत सिंह ने ओवरकोट और हैट पहन रखी थी. उन्होंने अपने कोट का कॉलर भी ऊँचा कर रखा था. उन्होंने अपनी गोद में दुर्गा भाभी के बेटे शचि को इस तरह से पकड़ रखा था कि उनका चेहरा न दिखाई दे. भगत सिंह और दुर्गा भाभी फ़र्स्ट क्लास के डिब्बे में थे जबकि उनके नौकर के भेष में राजगुरू तीसरे दर्जे में सफ़र कर रहे थे. दोनों के पास लोडेड रिवॉल्वर थी.”
(भगत सिंह ने फांसी के फंदे को पहनने से पहले चूमा – बीबीसी स्पेशल)
जे.पी. सॉन्डर्स की हत्या का औचित्य
यद्यपि सुखदेव हिंसा का समर्थन नहीं करते थे. इसके बावजूद उन्होंने जेपी सांडर्स की हत्या को औचित्यपूर्ण बताते हुए 7 अक्टूबर 1930 को अपने साथियों को लिखा “सॉन्डर्स हत्याकांड का उदाहरण लीजिए. जब लाला को लाठियाँ लगीं, तो देश में अशांति थी. पार्टी की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करने का यह अच्छा अवसर था. इस तरह हत्या की योजना बनाई गई थी. हत्या के बाद भाग जाना हमारी योजना नहीं थी. हम लोगों को यह बताना चाहते थे कि यह एक राजनीतिक हत्या थी और इसके अपराधी क्रांतिकारी थे. हमारी कार्रवाई हमेशा लोगों की शिकायतों के जवाब में होती थी. हम लोगों में क्रांतिकारी आदर्शों का संचार करना चाहते थे, और ऐसे आदर्शों की अभिव्यक्ति उस व्यक्ति के मुँह से अधिक गौरवशाली लगती है जो अपने उद्देश्य के लिए फाँसी पर चढ़ गया हो.“
सेंट्रल असेंबली बम विस्फोट कांड: 8 अप्रैल 1929 — भगत सिंह के उत्प्रेरक के रूप में
केंद्र सरकार द्वारा सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली (अब पुरानी संसद-संविधान सदन) में पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड यूनियन बिल पेश किया गया था. इस बिल के अनुसार सरकार बिना किसी कारण के किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकती थी. यह राष्ट्रवादी आंदोलनकारी गतिविधियों को नियंत्रित करने की एक साजिश थी. एचएसआरए की केंद्रीय समिति ने अप्रैल 1929 में पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड यूनियन डिस्प्यूट बिल (The Public Safety Bill and the Trade Union Dispute Bill in April 1929) का विरोध करने के लिए एक योजना तैयार की. इस योजना के अनुसार, दिल्ली स्थित सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने के लिए बैठक में भगत सिंह का नाम नहीं रखा गया, क्योंकि योजना के अनुसार, बम और पर्चे फेंकने के बाद उन्हें वहीं खड़े रहना था. समिति का मानना था कि अगर भगत सिंह को चुना गया तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाएगा और सॉन्डर्स हत्या कांड के कारण उन्हें मौत की सजा भी हो सकती थी.
जब केंद्रीय समिति ने यह निर्णय लिया तो सुखदेव बैठक में मौजूद नहीं थे. उन्होंने इस निर्णय का विरोध किया क्योंकि भगत सिंह एचएसआरए के उद्देश्यों को बेहतर तरीके से समझा सकते थे. चूंकि भगत सिंह उनके सर्वश्रेष्ठ थे, और वे यह भी जानते थे कि उनके रुख के कारण भगत सिंह को सूली पर चढ़ा दिया जाएगा, फिर भी यह सुखदेव द्वारा लिए गए कठोर और बहुत साहसिक रुख के कारण था.
शिवराम वर्मा ने अपने संस्मरण में लिखा है:
“सुखदेव तीन दिन बाद आए और इस फैसले का पुरजोर विरोध किया. उन्हें यकीन था कि कोई भी एचएसआरए के लक्ष्य को भगत की तरह नहीं बता सकता. वह भगत के पास गए और उन्हें कायर कहा, जो मरने से डरता है. जितना अधिक भगत ने सुखदेव का खंडन किया, सुखदेव उतना ही कठोर होता गया. अंत में, भगत ने सुखदेव से कहा कि वह उनका अपमान कर रहा है. सुखदेव ने पलटवार करते हुए कहा कि वह केवल अपने दोस्त के प्रति अपना कर्तव्य निभा रहा था. यह सुनकर भगत ने सुखदेव से कहा कि वह उनसे बात न करें और चले गए… समिति को अपना फैसला बदलना पड़ा और भगत को बम गिराने के लिए चुना गया. सुखदेव उसी शाम बिना कुछ कहे लाहौर चले गए.’’
असेंबली में बम फेंकने की पूरी तैयारी
भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने असेंबली में बम फेंकने की पूरी तैयारी की. मालविंदर जीत सिंह वड़ैच ने अपनी किताब (भगत सिंह- द इटर्नल रिबेल (Bhagat Singh – The Eternal Rebel) में लिखा है कि 3 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दिल्ली के कश्मीरी गेट के फोटोग्राफर रामनाथ की दुकान पर उन्हीं कपड़ों में तस्वीरें खिंचवाईं, जिन्हें पहनकर वे बम फेंकने वाले थे. 6 अप्रैल 1929 को वे दुकानदार से वे तस्वीरें लेने गए. अपनी पहचान को छुपाने के लिए भगत सिंह ने फ्लेट हैट लाहौर से खरीद था. 8 अप्रैल को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ख़ाकी कमीज़ और शॉर्ट्स पहने हुए थे. भगत सिंह ने फ्लेट हैट भी पहना हुआ था. असेंबली गेट पर एक व्यक्ति ने उनको गेट पास दिया और दोनों असेंबली की दर्शक दीर्घा में दाखिल हो गए.
8 अप्रैल 1929 को जब पब्लिक सेफ्टी बिल पर बहस चल रही थी (दोपहर 12:30 बजे), भगत सिंह और उनके साथी बी. के. दत्त ने दो कम तीव्रता वाले बम विस्फोट किए और सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली में पर्चे फेंके. इसके अलावा, ‘इंकलाब जिंदाबाद’, ‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ और ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ जैसे नारे भी लगाए गए. उन्होंने वकालत की कि कान खोलने के लिए धमाका जरूरी है.
वास्तव में पूर्व निश्चित योजना के अनुसार भगत सिंह और बी.के. दत्त का किसी को मारने का कोई इरादा नहीं था. इस समय असेंबली में साइमन कमीशन के अध्यक्ष, जॉन साइमन सहित तत्कालीन दिग्गज नेता जैसे विट्ठलभाई पटेल, मोहम्मद अली जिन्ना और मोतीलाल नेहरू मौजूद थे. इनका जीवित बचना मुश्किल हो जाता. बंगाल के क्रांतिकारियों ने उन्हें परामर्श दिया था कि वे बंम व पर्चे फेंक कर भाग जाएं ताकि फांसी से बचा जा सके. परंतु भगत सिंह व बीके दत्त अज्ञात मरना नहीं चाहते थे. वह अपनी कुर्बानी से जन क्रांति की ज्वाला को दावानल बना कर ब्रिटिश साम्राज्यवाद को जलाकर राख बनाना चाहते थे. वे कुर्बानी के द्वारा जन क्रांति की ज्वाला भड़काना चाहते थे. दोनों क्रांतिकारी अपने स्थान पर डटे रहे और बिना किसी सजा या अन्य परिणामों के डर के पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया. कितना बड़ा आत्मविश्वास और बहादुरी का प्रदर्शन!
इस घटना के बाद भगत सिंह क्रांति के प्रतीक के रूप में घर-घर में प्रसिद्ध हो गये और उनका हैट उनकी मुख्य पहचान बन गया.
7 मई 1929 को मजिस्ट्रेट बीपी पूल की अदालत में मुकदमा चलाया गया. अभियोजन पक्ष के वकील ने क्रांतिकारियों पर ब्रिटिश सरकार के खिलाफ “युद्ध” की घोषणा करने का आरोप लगाया. भगत सिंह और बी.के.दत्त के खिलाफ सरकारी गवाह शोभा सिंह, और शादी लाल थे.
शोभा सिंह को तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने नाइटहुड और सरदार बहादुर जैसी कई उपाधियों से सम्मानित किया और उन्हें विधान परिषद का सदस्य भी मनोनीत किया गया. शादी लाल को अकूत धन और बागपत (उत्तर प्रदेश) में बहुत सारी ज़मीन दी गई.. इन गवाहों को जनता गद्दार और हेय की दृष्टि से देखती है. यही कारण है कि जब शादीलाल की मृत्यु हुई स्थानीय ( मुजफ्फर नगर व शामली) के दुकानदारों ने उनके परिवार वालों को कफन देने से भी इनकार कर दिया. यह कहा जाता है कि तब दिल्ली से कफन मंगाया गया.
दूसरी ओर, यह एक अजीब संयोग है कि 1930 में लाहौर षडयंत्र केस में भगत सिंह के मृत्यु वारंट पर हस्ताक्षर करने वाले मजिस्ट्रेट नवाब मुहम्मद अहमद खान कसूरी (पाकिस्तान) भी अभियोजन पक्ष के सदस्य थे और 1974 में शादमान चौक (शादमान कॉलोनी, लाहौर) में गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गई थी। पहले यह स्थान सेंट्रल जेल लाहौर हुआ करता था और सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु को यहीं फांसी दी गई थी।
बटुकेश्वर दत्त के वकील कांग्रेस के युवा नेता आसफ अली थे जबकि भगत सिंह ने स्वयं इस केस की पैरवी की थी (एआईआर, 1930, लाहौर, 226). भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त के ख़िलाफ़ अभियोजन पक्ष (ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार)के वकील राय बहादुर सूरज नारायण थे.
जिला मजिस्ट्रेट बीपी पूल ने आरोप तैयार किए और जिला न्यायाधीश लियोनार्ड मिडलटन को रिपोर्ट सौंपी. इस मामले में, 6 जून 1929 को न्यायाधीश लियोनार्ड मिडलटन ने भगत सिंह और बीके दत्त को असेंबली में बम फेंकने और हत्या का प्रयास करने के लिए शस्त्र अधिनियम और विस्फोटक अधिनियम के तहत 14 साल के कारावास की सजा सुनाई. क्रांतिकारियों का मुख्य उद्देश्य और मिशन इस ऐतिहासिक घटना का उपयोग क्रांतिकारी आदर्शों को फैलाने और ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार के द्वारा भारत के दमन, उत्पीड़न और शोषण के खिलाफ जनता में जागरूकता बढ़ाने के लिए एक लॉन्चिंग पैड के रूप में करना था. सेंट्रल असेंबली बम विस्फोट कांड ने भारत विरोधी ब्रिटिश नीतियों के प्रति बढ़ते असंतोष और प्रतिरोध को उजागर किया.
लाहौर षडयंत्र केस 1930: ‘’क्राउन-(शिकायत कर्ता) बनाम सुखदेव और अन्य’’
वायसराय, लॉर्ड इरविन, ने 1 मई 1930 को आपातकाल की घोषणा की और विशेष ट्रिब्यूनल के गठन 1930 के अध्यादेश संख्या 111 के अनुसार तीन सदस्यीय ट्रिब्यूनल का गठन किया गया. इस विशेष ट्रिब्यूनल के लाहौर हाईकोर्ट के तीन जज —न्यायमूर्ति जे कोल्डस्ट्रीम, सैयद आगा हैदर अली और न्यायमूर्ति जीसी हिल्टन सदस्य थे.इन तीनों मे केवल सैयद आगा हैदर अली भारतीय थे.
यह बहुत ही आश्चर्यजनक, विचित्र किन्तु सत्य है कि लाहौर के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक हैमिल्टन हार्डिंग ने अदालत में खुलासा किया कि उन्होंने पंजाब के राज्यपाल के सचिव के विशेष आदेश के तहत सभी 27आरोपियों के खिलाफ मामले का विवरण जाने बिना ही एफआईआर दर्ज कर ली थी. इस केस में चार मुख्य आरोप – हत्या, हत्या की साजिश, अवैध हथियार रखना और राजा के खिलाफ युद्ध छेड़ना शामिल थे.
यह एक सुस्थापित तथ्य है कि जिस अध्यादेश के तहत विशेष न्यायाधिकरण का गठन किया गया था, वह केवल 6 महीने तक प्रभावी हो सकता था और 31 अक्टूबर 1930 को इसकी वैधता समाप्त हो जाती; इसलिए ट्रिब्यूनल ने 7 अक्टूबर 1930 को 300 पृष्ठों का निर्णय सुनाया गया. ट्रिब्यूनल ने तीनों महान क्रांतिकारियों – सुखदेव, भगत सिंह, और राजगुरु को 24 मार्च 1931 को फांसी देने की सजा की तिथि निर्धारित की. ट्रिब्यूनल के निर्णय अनुसार इन क्रांतिकारियों को 24 मार्च 1931 को फाँसी दी जानी थी, परंतु जन आक्रोश को देखते हुए एक दिन (11 घंटे) पूर्व 23 मार्च 1931 शाम को 7.30 पर लाहौर की जेल की पीछे से दीवार तोड़ कर केंद्रीय जेल में फांसी दे गई.
सुखदेव प्रथम स्थान पर
आम जनता, पत्रकारों और यहां तक कि विद्वानों को भी शायद ही पता हो कि लाहौर षडयंत्र केस के पीछे सुखदेव का ही मुख्य दिमाग था. अप्रैल 1929 में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक हैमिल्टन हार्डी ने मजिस्ट्रेट आर.एस. पंडित की विशेष अदालत में 27 आरोपियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की. 27 आरोपियों की सूची वाली एफआईआर के अनुसार, सुखदेव प्रथम स्थान पर, भगत सिंह 12वें स्थान पर और राजगुरु 20वें स्थान पर थे.
(Mark of a martyr
https://www.tribuneindia.com/2007/20070513/spectrum/main1.htm )
ब्रिटिश पुलिस अधिकारी सॉन्डर्स और हेड कांस्टेबल चरण सिंह की हत्या के सिलसिले में 10 जुलाई 1929 को लाहौर में मुकदमा शुरू होने के बाद एक विशेष न्यायाधिकरण की स्थापना की गई थी. इस मामले का नाटक जारी रहा और ब्रिटिश पुलिस अधिकारी सॉन्डर्स हत्याकांड की सुनवाई विशेष न्यायाधिकरण में 15 महीने तक चली. 7 अक्टूबर 1930 को न्यायाधिकरण ने सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु को सॉन्डर्स और हेड कांस्टेबल चरण सिंह की हत्या का दोषी ठहराया और उन्हें मौत की सजा सुनाई. इस मामले में सरकारी वकील राय बहादुर सूर्यनारायण थे और सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु के वकील कांग्रेस नेता आसफ अली थे.
भारत सरकार ने न्यायाधीश सैयद आगा हैदर अली पर सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु को फांसी देने का दबाव डाला. लेकिन न्यायाधीश सैयद आगा हैदर अली ने सरकार के दबाव को खारिज कर दिया और अपना पद छोड़ दिया. भारतीय इतिहास का यह गौरवपूर्ण पृष्ठ स्वर्ण अक्षरों में लिखने योग्य है और न्यायाधीश सैयद आगा हैदर अली के इस फैसले पर भारतीयों भारतीयों को अतुलनीय गौरव है. सुखदेव, भगत सिंह, और राजगुरु को जज जेसी हिल्टन ने फांसी पर लटकाया.
सुखदेव, भगत सिंह और शिवराज हरि राजगुरु : शहादत 23 मार्च 1931
लेकिन जनाक्रोश को देखते हुए एक दिन पहले 23 मार्च 1931 को शाम 7.30 बजे लाहौर जेल की पिछली दीवार तोड़ दी गई और उन्हें सेंट्रल जेल में फांसी पर लटका दिया गया.
कुलदीप नैयर अपनी किताब ‘विदाउट फ़ियर, द लाइफ एंड ट्रायल ऑफ भगत सिंह (Without Fear, The Life and Trial of Bhagat Singh) ‘ में लिखते हैं, “जल्लाद ने पूछा था कौन पहले जाएगा? सुखदेव ने जवाब दिया था, मैं सबसे पहले जाऊँगा. जल्लाद ने एक के बाद एक तीन बार फाँसी का फंदा खींचा था. तीनों के शरीर बहुत देर तक फाँसी के तख़्ते से लटकते रहे थे.”
तीनों महान क्रांतिकारियों – {सुखदेव (पूरा नाम – सुखदेव थापर, जन्म 15 मई 1907 – शहादत दिवस – 23 मार्च 1931), भगत सिंह (जन्म 28 सितंबर 1907 – शहादत दिवस – 23 मार्च) 1931 – गाँव बंगा – अब पाकिस्तान), और राजगुरु (जन्म 24 अगस्त 1908 – शहादत दिवस 23 मार्च 1931 – पूरा नाम – शिवराज हरि राजगुरु जन्म स्थान खेड़ा गाँव, महाराष्ट्र – मराठी} के शवों को जेल से बाहर निकाला गया. उसी रात तीनों शवों को सतलुज नदी के किनारे – फिरोजपुर के पास हुसैनीवाला बॉर्डर – ले जाकर सामूहिक चिता बनाई गई और उन पर मिट्टी का तेल (Kerosene Oil) डालकर उन्हें जला दिया गया. इन तीनों शहीदों के शवों को सतलुज नदी में फेंक दिया गया. लेकिन सुबह होने से पहले ही गांव वालों ने शवों को नदी से बाहर निकाल लिया और अंतिम संस्कार कर दिया.
मन्मथनाथ गुप्त अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ इंडियन रिवॉल्यूशनरी मूवमेंट (History of Indian Revolutionary Movement) ‘ में लिखते हैं, “सतलज नदी के तट पर दो पुजारी उन शवों का इंतज़ार कर रहे थे. उन तीनों के मृत शरीर को चिता पर रखकर आग लगा दी गई, जैसे ही भोर होने लगी जलती चिता की आग बुझाकर आधे जले हुए शरीरों को सतलज नदी में फेंक दिया गया. बाद में इस जगह की शिनाख़्त चौकी नंबर 201 के रूप में हुई. जैसे ही पुलिस और पुजारी वहाँ से हटे, गाँव वाले पानी के अंदर घुस गए. उन्होंने अधजले शरीर के टुकड़ों को पानी से निकाला और फिर ढंग से उनका अंतिम संस्कार किया.”
24 मार्च 1931 को द ट्रिब्यून (लाहौर) ने सबसे पहले इस घटना को पहले पन्ने पर छापा. (‘Bhagat,Rajguru And Sukhdev Executed’, The Tribune,Lahore,24 March,1931,p.1.)नतीजतन, जनता का गुस्सा चरम पर पहुंच गया. मुंबई, मद्रास, बंगाल, पंजाब और उत्तर प्रदेश में लोगों की भीड़ भड़क उठी. सन् 1857 के बाद पहली बार जनता और पुलिस के बीच इतनी भीषण मुठभेड़ हुई. नतीजतन, इस संघर्ष में 141 भारतीय शहीद हुए, 586 लोग घायल हुए और 341 लोग गिरफ्तार हुए.
शहादत का प्रभाव : क्रांतिकारी जोश और नव चेतना
तीनों के मुकदमे और उनकी शहादत ने लोगों पर गहरा असर डाला. भारत में भविष्य के आंदोलनों में तीनों के बलिदान ने युवाओं में क्रांतिकारी जोश और नव चेतना का उदय हुआ. क्रांतिकारियों ने उनकी शहादत से बहुत बड़ी सीख ली और भूमिगत आंदोलन और सशस्त्र संघर्ष सहित नई तकनीकों और रणनीतियों को अपनाया. यह जय प्रकाश नारायण और डॉ राम मनोहर लोहिया जैसे समाजवादियों द्वारा गठित आजाद दस्तों से स्पष्ट है.
1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पीसी जोशी समूह द्वारा भी भूमिगत गतिविधियाँ जारी रहीं. ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ युद्ध छेड़ने के लिए कुछ गांधीवादी भी भूमिगत हो गए. उनकी शहादत ने राजनीतिक गतिविधियों के लिए उत्प्रेरक का काम किया. इसने लोगों के बीच सरकार के खिलाफ क्रांतिकारी गतिविधियों की वैधता बढ़ाई. परिणामस्वरूप, छात्रों और किसानों के कई संगठन अस्तित्व में आए. किसान आंदोलन, आईएनए की स्थापना और ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ युद्ध, भारतीय सेना, नौसेना और वायु सेना का विद्रोह, भी उनके बलिदान से काफी प्रभावित थे. संक्षेप में,इनकी शहादत ने जनता में एक नया क्रांतिकारी जोश और लहर पैदा कर दी है.
एक कट्टर क्रांतिकारी विचारक सुखदेव
यद्यपि उन्होंने नौजवान भारत सभा और एचएसआरए के आयोजन, केंद्रीय असेंबली बम कांड (1929) और सॉन्डर्स की हत्या (1927) सहित क्रांतिकारी गतिविधियों में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, फिर भी वे आम जनता के साथ-साथ इतिहासकारों, विद्वानों, प्रेस, सिनेमा और राजनीतिक और किसान आंदोलन (2020-2021) जैसे अन्य आंदोलनों की कल्पना में उतने प्रसिद्ध नायक नहीं हैं. उन्हें सिर्फ़ भगत सिंह और दूसरे क्रांतिकारियों के साथ जोड़ दिया गया है. उनके साथ न्याय नहीं हुआ है; उनकी सारी उपलब्धियाँ भगत सिंह और चंद्रशेखर जैसे दूसरे क्रांतिकारियों की छाया में दब गई हैं. यहाँ यह बताने का विनम्र प्रयास किया गया है कि ऐसा क्यों हुआ. उनके साथ हुए इस अन्याय को समझाने के लिए नीचे कुछ मुख्य बातें बताई गई हैं:
प्रथम, सुखदेव एक उत्कृष्ट संगठनकर्ता और कट्टर क्रांतिकारी थे; सभी वीरतापूर्ण गतिविधियों और कार्यों के पीछे उनका ही दिमाग था, फिर भी ये जनता की कल्पना को आकर्षित नहीं कर सके. सुखदेव के बारे में, वरैच कहते हैं,
“उनके बारे में बहुत कुछ नहीं लिखा गया है. उस युग से संबंधित मूल दस्तावेजों की उपलब्धता के बावजूद, किसी ने भी उनके लेखन को गंभीरता से नहीं लिया. सत्य को बलि का बकरा बनाया गया है और सुखदेव जैसे क्रांतिकारियों के जीवन के बारे में कई विवरण अभी भी अज्ञात हैं. सुखदेव, वास्तव में, लाहौर षडयंत्र मामले में मुख्य आरोपी थे. एचएसआरए के पंजाब प्रमुख होने के नाते, वह सॉन्डर्स की हत्या और विधानसभा बम गिराने की साजिश के पीछे का व्यक्ति था।”
(Mark of a martyr : On the eve of Sukhdev’s birth centenary, Aditi Tandon revisits the life of a hero who was Bhagat Singh’s comrade-in-arms and the prime accused in the Lahore Conspiracy Case)
द्वितीय, सुखदेव की केन्द्रीय असेंबली बम कांड या सॉन्डर्स की हत्या में उनकी कोई प्रत्यक्ष भागीदारी नहीं थी. जबकि वह इन दोनों महत्वपूर्ण घटनाओं की पृष्ठभूमि में प्रमुख योजनाकार थे. लाहौर षड्यंत्र केस में ट्रिब्यूनल नेअपने निर्णय में लिखा कि, “सुखदेव को षडयंत्र का दिमाग कहा जा सकता है, जबकि भगत सिंह उसका दाहिना हाथ था. हिंसा की घटनाओं में खुद हिस्सा लेने में वह पिछड़ा हुआ था, लेकिन उसे उन घटनाओं ( केन्द्रीय असेंबली बम कांड, पंजाब नेशनल बैंक डकैती व सॉन्डर्स की हत्या) के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए, जिनके निष्पादन में उसके दिमाग और संगठन शक्ति ने महत्वपूर्ण योगदान दिया ‘’
(Sukhdev Thapar: The Shadowed Intellectual of the Hindustan Socialist Republican Association )
इसके विपरीत, भगत सिंह इन दोनों घटनाओं में प्रत्यक्ष रूप से शामिल थे. परिणामस्वरूप, भगत सिंह को प्रेस में व्यापक प्रचार मिला और अपने सर्वोच्च बलिदान के लिए जनता के मन पर एक स्थायी छाप छोड़ी.
तृतीय, भगत सिंह और कुछ अन्य क्रांतिकारियों ने लेख और किताबें लिखी भी थीं; उदाहरण के लिए, भगत सिंह ने कानपुर, लाहौर, दिल्ली और कोलकाता से प्रकाशित कई अख़बारों में लेख लिखे. इसके अलावा, उन्होंने कई पत्र और एक जेल नोटबुक भी लिखी, जिसे बाद में शहीद-ए-आज़म भगत सिंह डायरी, 2011 के नाम से प्रकाशित किया गया. भगत सिंह के चिंतन का प्रतिबिंब ‘शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की जेल डायरी’ (2011) में साफ दिखाई देता है.इससे पूर्व भूपेंद्र हूजा, संपादित, ए मार्टियरस नोटबुक (जयपुर :1994) भगत सिंह की जेल नोटबुक का संपादन किया गया. इस का हिंदी रूपांतरण विश्वनाथ मिश्र (अनुवाद व संपादन) ‘शहीदे आजम की जेल नोटबुक’, लखनऊ से प्रकाशित हुई.भगत सिंह की जेल नोटबुक के संबंध में ऱसियन स्कॉलर एल.वी. मित्रोंखिन लिखा कि “एक महान विचारधारा का दुर्लभ साक्ष्य है.”
जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है, भगत सिंह ने अख़बारों में कई लिखे, अन्य साथियों और परिवार के सदस्यों को पत्र लिखे, अदालतों में अपने बयान लिखे और जेल डायरी लिखी. यह मूल सामग्री भारतीय और विदेशी शोधार्थियों के साथ-साथ पत्रकारों के लिए भी भगत सिंह और उनके योगदान का अध्ययन करने का एक बड़ा संसाधन थी, इसी माध्यम से भगत सिंह ने लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया.
चतुर्थ, फोटोग्राफी सिद्धांत के अनुसार, तस्वीरें और पोस्टर जनता के बीच साक्ष्य और जागरूकता फैलाने और प्रसारित करने का माध्यम बनते हैं. कामा मैकलीन के अनुसार, अखबारों में प्रकाशित भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद और अन्य लोगों की तस्वीरें जन चेतना पर प्रभाव डालती हैं. वह लिखती हैं कि’ भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद की तस्वीरें – दोनों ही खूबसूरत युवा थे, जिनकी मृत्यु हिंसक तरीके से हुई – क्रांतिकारी जीवन के रोमांस को बहुत ही प्रभावशाली ढंग से दर्शाती हैं. उनकी तस्वीरें उनके समकालीनों के सामने उनके बलिदान की त्रासदी को रेखांकित करती हैं, और वे आज भी ऐसा करती हैं. दोनों ही चित्रों में विशिष्ट तत्व शामिल किए गए हैं, जो समकालीन भारत में प्रसिद्ध प्रतीक हैं – भगत सिंह की टोपी और आज़ाद की जानबूझकर, मूंछें घुमाने वाली मुद्रा ने उनके चित्रों को एक स्थायी पहचान और एक निश्चित चंचल शैली प्रदान की. इन विशिष्ट तत्वों को कलाकारों ने उत्साहपूर्वक दोहराया, जिससे मीडिया की एक श्रृंखला में, मुख्य रूप से पोस्टरों में उनकी छवियों का बड़े पैमाने पर प्रसार संभव हुआ. भगत सिंह की विशेष रूप से आकर्षक मुद्रा ने निस्संदेह प्रेस में उनके चित्र की नकल को प्रोत्साहित किया’. इसके बिलकुल विपरीत,सुखदेव ने कभी अपनी पोशाक के बारे में चिंता नहीं की और साधारण व्यक्तित्व धनी थे.
पांचवें मैकलीन ने लिखा कि प्रेस ने क्रांतिकारियों के इतिहास को लिखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, उनके अनुसार, प्रेस ने ‘भगत सिंह और अन्य’ को संदर्भित किया है.
( Kama Maclean, A Revolutionary History of Interwar India: Violence, Image, Voice and Text, C. Hurst & Co. (Publishers) Ltd., 41 Great Russell Street, London, WC1B 3PL, 2015)
अजय घोष की पुस्तक (भगत सिंह और उसके साथी, दिल्ली, 1979) में भी हमें ऐसी ही प्राथमिकता देखने को मिलती है. हालाँकि सुखदेव ने सबसे पहले फाँसी चूमी, लेकिन अख़बारों में सबसे पहले भगत सिंह को जगह दी गई. इतना ही नहीं, 24 मार्च 1931 को द ट्रिब्यून (लाहौर) जैसे अख़बार ने अपने पहले पन्ने पर भगत सिंह, राजगुरु और अंत में सुखदेव का नाम छापा. नतीजतन, सुखदेव को कम आंका गया और यही वजह है कि वे भगत सिंह जितने मशहूर नहीं हो पाए.
उपरोक्त चर्चा से यह बात अच्छी तरह स्थापित हो जाती है कि इन क्रांतिकारियों में भगत सिंह नई राष्ट्रीय जागृति के प्रतीक बन गए, खास तौर पर देश के युवाओं के बीच।
सुभाष चंद्र बोस के अनुसार, “भगत सिंह युवाओं के बीच नई जागृति के प्रतीक बन गए थे.” जवाहरलाल नेहरू ने भी इसी तरह के विचार व्यक्त किए हैं कि भगत सिंह की लोकप्रियता एक नई राष्ट्रीय जागृति की ओर ले जा रही थी. उन्होंने कहा है, “वह एक साफ-सुथरे योद्धा थे जिन्होंने खुले मैदान में अपने दुश्मन का सामना किया… वह एक चिंगारी की तरह थे जो कुछ ही समय में ज्वाला बन गई और देश के एक छोर से दूसरे छोर तक फैल गई, जिससे हर जगह व्याप्त अंधकार दूर हो गया।” यहां तक कि वह लोकप्रियता में महात्मा गांधी के प्रतिद्वंदी भी बन गए.
लाहौर षडयंत्र केस में अभियोजन पक्ष के गवाह: मौद्रिक और वित्तीय लाभ, भूमि, सम्मान, पदोन्नति और प्रशंसा पत्र।
आर. के. कौशिक के अनुसार, लाहौर षडयंत्र केस में पुलिस द्वारा 457 गवाह तैयार किए गए थे। एचएसआरए के क्रांतिकारी – हंस राज वोहरा, जय गोपाल, फोनींद्र नाथ घोष और मनमोहन बनर्जी – सरकारी गवाह बन गए और सुखदेव, भगत सिंह, राजगुरु और अन्य के खिलाफ बयान दिए। फांसी के बाद, इन चारों को मौद्रिक और अन्य लाभ दिए गए।
आर. के. कौशिक ने स्पष्ट रूप से लिखा है कि ‘वोहरा ने मौद्रिक लाभ लेने से इनकार कर दिया। लेकिन उन्हें प्रतिष्ठित लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में अध्ययन करने के लिए पंजाब सरकार द्वारा प्रायोजित किया गया था… जय गोपाल को 20,000 रुपये का पुरस्कार मिला। फोनींद्र नाथ घोष और मनमोहन बनर्जी को ब्रिटिश सरकार के प्रति उनकी सेवाओं और वफादारी के बदले में बिहार के चंपारण जिले (उनके गृह जिले) में 50 एकड़ जमीन दी गई।”
वरिष्ठ सरकारी प्रशासनिक और वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों और पुलिस कांस्टेबलों को पदोन्नति, प्रस्तुति पत्र और अन्य लाभ दिए गए। सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु को फांसी दिए जाने के बाद जेल के डिप्टी सुपरिंटेंडेंट साहिब मोहम्मद अकबर खान भावुक हो गए और रोने लगे। उनकी आंखों से आंसू बहने लगे, जिसके चलते उन्हें निलंबित कर दिया गया और 7 मार्च 1931 को उनकी ‘खान साहब‘ की उपाधि भी वापस ले ली गई। बाद में उनका निलंबन वापस ले लिया गया और उन्हें सहायक डिप्टी सुपरिंटेंडेंट के पद पर नियुक्त किया गया।
महात्मा गांधी: तीनों शहीदों को बचाने का प्रयास सर्वश्रेष्ठ प्रयास था
महात्मा गांधी और कांग्रेस विरोधी लगातार यह दुष्प्रचार कर रहे हैं कि उन्होंने भारत के तीन महान क्रांतिकारियों की जान बचाने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किया। अगर गांधीजी चाहते तो उनकी जान बच सकती थी। यह प्रचार भ्रामक है और महात्मा गांधी की छवि को धूमिल करने के लिए अवांछित आरोप है। महात्मा गांधी ने सबसे पहले 4 मई 1930 को मुकदमे से संबंधित न्यायाधिकरण के गठन की आलोचना की थी। 11 फरवरी 1931 को भगत सिंह और उनके साथियों को मृत्युदंड से बचाने के लिए की गई अपील को प्रिवी काउंसिल (लंदन) ने खारिज कर दिया था। महात्मा गांधी-इरविन समझौते के लिए 17 फरवरी 1931 से 5 मार्च 1931 तक बैठकें और पत्राचार हुए। 18 फरवरी 1931 को महात्मा गांधी ने गवर्नर जनरल लॉर्ड इरविन से मृत्युदंड कम करने के बारे में बात की। महात्मा गांधी ने वायसराय से कहा, ‘यदि आप वर्तमान माहौल को और अधिक अनुकूल बनाना चाहते हैं, तो आपको भगत सिंह की फांसी को स्थगित कर देना चाहिए। इरविन ने गांधीजी को उत्तर दिया, ‘सजा कम करना कठिन है, लेकिन निलंबन निश्चित रूप से विचार करने योग्य है।‘
7 मार्च 1931 को महात्मा गांधी ने दिल्ली में एक बैठक में कहा, ‘मैं किसी को भी फांसी देने से पूरी तरह सहमत नहीं हो सकता। निश्चित रूप से भगत सिंह जैसे बहादुर व्यक्ति के लिए नहीं।‘
19 मार्च 1931 को गांधीजी ने फिर लॉर्ड इरविन से सजा कम करने की अपील की, जिसे इरविन ने बैठक की कार्यवाही में नोट किया।
20 मार्च 1931 को महात्मा गांधी ने लॉर्ड इरविन के गृह सचिव हरबर्ट इमर्सन से मुलाकात की। गांधीजी ने 21 मार्च 1931 को फिर इरविन से मुलाकात की और 22 मार्च 1931 को फिर से मुलाकात की और उनसे सजा कम करने का आग्रह किया।
23 मार्च 1931 को गांधीजी ने वायसराय को लिखा: ‘शांति के हित में अंतिम अपील की आवश्यकता है। यदि पुनर्विचार के लिए कोई गुंजाइश बची है, तो मैं कहूंगा कि लोकप्रिय राय सजा में कमी की मांग करती है। जब कोई सिद्धांत दांव पर नहीं होता है, तो अक्सर इसका सम्मान करना कर्तव्य होता है। अगर सजा में कमी होती है, तो आंतरिक शांति को बढ़ावा मिलने की सबसे अधिक संभावना है। इरविन ने तब लिखा था, ‘यह महत्वपूर्ण था कि अहिंसा के पुजारी ने अपने ही मूलतः विरोधी पक्ष के समर्थकों के पक्ष में इतनी गंभीरता से वकालत की.’
न्यूज क्रॉनिकल के पत्रकार रॉबर्ट बर्नेज़ ने अपनी पुस्तक ‘द नेकेड फ़कीर’ (Naked Fakir : Robert Bernays (https://archive.org/details/NakedFakir) में उल्लेख किया है कि गांधी के तर्कों के कारण इरविन ‘सज़ा को निलंबित करने के बारे में सोच रहे थे, लेकिन पंजाब की नौकरशाही ने सामूहिक इस्तीफ़े की धमकी देकर उन्हें दबा दिया।’
नेशनल आर्काइव्स द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक में गांधीजी ने लिखा है कि ब्रिटिश सरकार के पास क्रांतिकारियों का दिल जीतने का ‘सुनहरा अवसर’ था, लेकिन सरकार इसमें विफल रही। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अपनी आत्मकथा – ‘द इंडियन स्ट्रगल, 1920-42’, पृष्ठ 184 में लिखा है कि महात्मा गांधी ने भगत सिंह को बचाने की ‘पूरी कोशिश’ की।
महात्मा गांधी अपनी पूरी कोशिशों के बावजूद तीनों की जान नहीं बचा पाए. वे क्यों असफल हुए?. इसके मुख्य कारण हैं:
पहला, ब्रिटिश नौकरशाही में भारतीयों के प्रति गहरा पूर्वाग्रह था. डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने इसे ‘जातिवादी‘ रवैया कहा था जैसा कि हम पहले ही लिख चुके हैं, जब से ब्रिटिश अधिकारी जॉन सॉन्डर्स की गोली मारकर हत्या की गई थी, तब से ब्रिटिश नौकरशाही का गुस्सा अपने चरम पर था, और पंजाब की नौकरशाही ने सामूहिक रूप से इस्तीफा देने की धमकी दी थी, जिसे सरकार बर्दाश्त नहीं कर सकती थी.
दूसरा, तीनों ने दया की अपील नहीं की, बल्कि उन्होंने अपील की कि वे युद्ध बंदी थे, इसलिए उन्हें फांसी पर लटकाने के बजाय गोली मार दी जानी चाहिए.
तीसरा, गांधी-इरविन समझौते का इंग्लैंड में ब्रिटिश कंजर्वेटिव पार्टी ने कड़ा विरोध किया क्योंकि जेलों से हजारों कैदियों को रिहा कर दिया गया था. इसे तुष्टिकरण की नीति कहा गया; इसलिए, लेबर सरकार, जो स्थिर नहीं थी, ने तीनों को फांसी देने का फैसला किया.
ज़्यादातर लोगों को यह नहीं पता कि भारत के प्रसिद्ध कानूनविद डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने तीनों की फांसी की कड़ी निंदा की थी. उन्होंने 13 अप्रैल 1931 को अपने अख़बार जनता में तीनों के बलिदान के बारे में एक संपादकीय लिखा था.
किसके लिए बलिदान?
इस प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने सशक्त संपादकीय लिखा:
‘’यदि सरकार सोचती है कि न्याय देवी के प्रति उसकी भक्ति और कठोर आज्ञाकारिता से लोग प्रभावित होंगे और इसलिए वे इस हत्या को स्वीकार करेंगे, तो यह उसकी सरासर नासमझी है. कोई भी यह नहीं मानता कि ब्रिटिश न्याय देवी को यह बलिदान उसे स्वच्छ और बेदाग रखने के लिए दिया गया था’ ऐसी समझ के आधार पर सरकार भी खुद को आश्वस्त नहीं कर पाएगी. फिर, न्याय देवी के इस आवरण से वह दूसरों को कैसे आश्वस्त करेगी? सरकार सहित पूरी दुनिया जानती है कि न्याय देवी के प्रति उसकी भक्ति नहीं, बल्कि इंग्लैंड में कंजरवेटिव पार्टी और जनमत का डर उन्हें यह बलिदान करने के लिए प्रेरित कर रहा था. उन्हें लगा कि गांधी जैसे राजनीतिक कैदियों की बिना शर्त रिहाई और गांधी की पार्टी के साथ समझौते पर हस्ताक्षर करने से साम्राज्य की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा है. कंजरवेटिव पार्टी के कुछ रूढ़िवादी नेताओं ने यह कहते हुए अभियान चलाया है कि इसके लिए लेबर पार्टी की मौजूदा कैबिनेट और उसके इशारे पर नाचने वाले वायसराय जिम्मेदार हैं. ऐसी स्थिति में अगर लॉर्ड इरविन ने अंग्रेज अधिकारी की हत्या के दोषी राजनीतिक क्रांतिकारियों पर दया दिखाई तो यह विपक्षी नेताओं के हाथों में जलती हुई मशाल थमा देने जैसा होगा. वैसे भी लेबर पार्टी स्थिर नहीं है. ऐसी स्थिति में अगर इन कंजर्वेटिव नेताओं को यह बहाना मिल गया कि लेबर सरकार ने अंग्रेज की हत्या करने वाले दोषियों को क्षमादान दिया है तो सरकार के खिलाफ जनमत को भड़काना बहुत आसान हो जाएगा। इस आसन्न संकट को टालने और कंजर्वेटिव नेताओं के मन में आग को और भड़कने से रोकने के लिए ये फाँसी दी गई.’’
26 दिसंबर 1991 को सोवियत संघ आधिकारिक रूप से विघटित हो गया. परिणामस्वरूप, संयुक्त राज्य अमेरिका का आधिपत्य स्थापित हुआ और दुनिया एकध्रुवीय हो गई. तीसरी दुनिया के अधिकांश देश, जो वित्त, सैन्य और व्यापार में सोवियत संघ पर निर्भर थे, अब अमेरिका पर निर्भर हो गए. संयुक्त राज्य अमेरिका ने दुनिया में नवउदारवाद की नीतियों को लागू करना शुरू कर दिया। नवउदारवाद की सुनामी ने दुनिया के हर देश को अपनी चपेट में ले लिया. भारत भी इसका अपवाद नहीं था। नवउदारवाद उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों का संश्लेषण है. यह एक लक्ष्यहीन अभ्यास नहीं है. यह दुनिया में नव-साम्राज्यवाद की स्थापना के नियोजित उद्देश्य से संचालित होता है. बहुराष्ट्रीय कंपनियां और पूंजीपति सरकारों, उनकी नीतियों और उनके कार्यक्रमों को नियंत्रित करती हैं. इन नीतियों के कारण, बहुराष्ट्रीय कंपनियों, निगमों, पूंजीपतियों और धनी वर्ग ने दुनिया की राजनीतिक प्रणालियों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया. परिणामस्वरूप, धन के केन्द्रीकरण के कारण अमीर और गरीब के बीच अभूतपूर्व गहरी खाई पैदा हो रही है तथा बेरोजगारी, भुखमरी, महंगाई आदि समस्याओं के निरंतर बढ़ने की स्थिति में सुखदेव और उनके साथियों की यह सोच कि ऐसी समाजवादी व्यवस्था जिसमें एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति का शोषण न हो, बहुत प्रासंगिक है. इसलिए नागरिकों को जागरूक होने और कॉरपोरेट-सांप्रदायिक गठजोड़ के खिलाफ लामबंद होने की जरूरत है। सुखदेव यही संदेश देते हैं;
(नोट: डॉ. रामजीलाल, पाँलिटिक्ल इंडिया 1935-42: एनाटॉमी ऑफ़ इंडियन पॉलिटिक्स (अजंता पब्लिकेशन्स, दिल्ली, 1986) के लेखक हैं.)


