नास्तिक होते हुए भी ईश्वर में दृढ़ विश्वास क्यों रखते हैं जस्टिस काटजू ?

जस्टिस मार्कंडेय काटजू इस संक्षिप्त टिप्पणी में कह रहे हैं कि वे नास्तिक हैं, लेकिन फिर भी ईश्वर में विश्वास रखते हैं। उनके मुताबिक गरीबों की सेवा ही असली पूजा है और दीनबंधु यानी जरूरतमंद की मदद करना ही भगवान की आराधना है...

गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है:

"परहित सरिस धरम नहि भाई।

परपीड़ा सम नहि अधमाई।।"

यानी

दूसरों की सेवा से बढ़कर कोई धर्म नहीं है और

दूसरों को नुकसान पहुँचाने से बड़ा कोई पाप नहीं है

इसी तरह, महान हिंदी कवि रहीम ने लिखा था:

"दीन सबन को लखत है,

दीनहिं लखै न कोय।

जो रहीम दीनहिं लखै,

दीनबंधु सम होय।।"

मतलब,

गरीब हर किसी से मदद मांगते हैं

लेकिन कोई उनकी मदद नहीं करता

जो गरीब की मदद करता है

वह भगवान जैसा बन जाता है

(हिंदी साहित्य में भगवान को अक्सर दीनबंधु कहा जाता है, यानी गरीबों का मित्र)

मैं नास्तिक हूँ, लेकिन मैं ईश्वर में भी दृढ़ विश्वास रखता हूँ। यह विरोधाभासी लग सकता है, इसलिए मुझे समझाने दीजिए।

मेरे विचार से, गरीब लोग ही ईश्वर हैं, और उनकी मदद करना ही असली पूजा या नमाज़ है। कोई दूसरा ईश्वर नहीं है, और कोई दूसरी पूजा या नमाज़ नहीं है।

इसलिए मैं नास्तिक भी हूँ और ईश्वर में दृढ़ विश्वास रखने वाला भी।

जस्टिस मार्कंडेय काटजू

जस्टिस मार्कंडेय काटजू सर्वोच्च न्यायालय के अवकाशप्राप्त न्यायाधीश हैं। यह उनके निजी विचार हैं।