CJI गवई पर जूता फेंकने की घटना: जस्टिस काटजू ने कृत्य की निंदा की, अदालती टिप्पणियों की आलोचना की
जस्टिस काटजू ने अपने लेख में CJI गवई पर जूता फेंकने की घटना की निंदा की, लेकिन कहा कि धार्मिक टिप्पणी जैसे बयान ऐसे विवादों को न्योता देते हैं

Justice Markandey Katju's open letter to the Supreme Court judges: Serious questions on the working style of judges
सुप्रीम कोर्ट के अवकाशप्राप्त न्यायादीश जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बीआर गवई पर जूता फेंकने की घटना पर प्रतिक्रिया व्यक्त की। इस घटना की निंदा करते हुए, उन्होंने न्यायाधीशों को अदालत में अभद्र या धार्मिक रूप से संवेदनशील टिप्पणी करने से आगाह किया... यहां प्रस्तुत है जस्टिस काटजू का लेख जो मूलतः अंग्रेज़ी में HASTAKSHEPNEWS.COM पर प्रकाशित हुआ है...
मुख्य न्यायाधीश गवई पर जूता फेंका गया
जस्टिस मार्कंडेय काटजू
मैंने मुख्य न्यायाधीश गवई पर जूता फेंके जाने की घटना पर सर्वोच्च न्यायालय के प्रख्यात वरिष्ठ अधिवक्ता और पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल द्वारा संचालित पैनल चर्चा देखी, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश गुप्ता, कौल और धूलिया शामिल थे।
मैंने पहले एक लेख में इस पर टिप्पणी की थी
जस्टिस काटजू बोले — 'जूता फेंकना गलत, पर CJI गवई ने खुद न्योता दिया'
मुझे यह कहते हुए खेद है कि न तो कपिल सिब्बल और न ही पैनलिस्टों ने मेरे लेख में उठाए गए बिंदुओं पर विचार किया (सिवाय इसके कि न्यायमूर्ति कौल ने मेरा नाम लिए बिना इसका उल्लेख किया)।
मैंने अपने लेख में कहा था कि मैं जूता फेंकने की घटना की कड़ी निंदा करता हूं, लेकिन जो न्यायाधीश ऐसी टिप्पणियां करते हैं, (जैसे कि मुख्य न्यायाधीश गवई ने खजुराहो में भगवान विष्णु की मूर्ति से संबंधित मामले में की थी, जो पूरी तरह से अनुचित, नामुनासिब और अनावश्यक थी, और जिसका मामले के कानूनी मुद्दों पर कोई असर नहीं था, वे केवल ऐसी घटनाओं को आमंत्रित करते हैं, विशेष रूप से धार्मिक मामलों में,) जो प्रकृति में संवेदनशील होते हैं।
पैनल चर्चा में इस बात पर खूब चर्चा हुई कि मुख्य न्यायाधीश गवई जाति से दलित हैं। मेरे विचार से यह बात पूरी तरह अप्रासंगिक थी, और इस मुद्दे को जाति से जोड़ना वाकई बेतुका था।
फिर कहा गया कि इस घटना पर सब चुप हैं, आरएसएस, केंद्रीय गृह मंत्री और मंदिरों में बैठे लोग भी। इस विनम्र व्यक्ति ने मेरे लेख में इस बारे में बात की है, और दूसरों ने भी इस पर टिप्पणी की है।
पैनल चर्चा में एक भी व्यक्ति ने मेरे लेख के केन्द्रीय बिन्दु : न्यायाधीशों को अदालत में कम बोलना चाहिए, विशेष रूप से संवेदनशील मुद्दों पर, तथा उन मुद्दों पर जिनका मामले के गुण-दोष से कोई लेना-देना नहीं है, के बारे में बात नहीं की।
मान लीजिए कि कुछ मुसलमानों ने एक क्षतिग्रस्त मस्जिद के जीर्णोद्धार के लिए याचिका दायर की, और मामले की सुनवाई कर रहे न्यायाधीश कहें कि, "पैगंबर मोहम्मद से कहो कि वे इसका जीर्णोद्धार करें।" भारत में मुसलमानों की क्या प्रतिक्रिया होगी? क्या व्यापक हंगामा नहीं मचेगा? पैगंबर मोहम्मद के बारे में नूपुर शर्मा के बयान पर मुसलमानों की प्रतिक्रिया याद कीजिए।
कपिल सिब्बल ने सनातन धर्म की अपनी व्याख्या दी है। वह भूल गए कि दूसरों की व्याख्या अलग हो सकती है।
जैसा कि न्यायमूर्ति कौल ने सही कहा, न्यायाधीशों को अदालत में अपनी बातों के प्रति सावधान और संवेदनशील होना चाहिए।
खजुराहो में विष्णु की मूर्ति के बारे में मुख्य न्यायाधीश गवई की टिप्पणी शायद मेरे जैसे नास्तिकों को परेशान न करे, लेकिन अधिकांश हिंदू (अधिकांश मुसलमानों की तरह) गहरे धार्मिक हैं, और गवई की ऐसी बेतुकी टिप्पणियों से उनकी भावनाएँ आहत होने की संभावना है।
बेशक, वकील राकेश किशोर की प्रतिक्रिया बहुत अनुचित थी, लेकिन फिर भी एक कहावत है कि ''इस दुनिया को बनाने के लिए सभी प्रकार की जरूरत होती है'' ('' It takes all types to make this world '')
(न्यायमूर्ति काटजू भारत के सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)
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- 18 Oct 2025 10:23 PM IST
CJI पर जूता फेंकने वाले को माफी क्यों?
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