क्या लिखने से कुछ बदलता है?

  • पलाश विश्वास की लेखन यात्रा
  • सत्ता से दूरी, जनता के साथ खड़ा लेखक
  • पिता पुलिनबाबू और पढ़ने-लिखने की विरासत
  • हाशिए के लोगों के लिए लेखन क्यों ज़रूरी है

लेखन की ताक़त: बदलाव की जादुई छड़ी

पलाश विश्वास लिखते हैं— लिखने से सब बदलने वाली जादुई छड़ी मिलती है। जानें कैसे लेखन ने उन्हें पहचान, सम्मान और चैन दिया...

लिखने से कुछ नहीं होता?

मैं मेधावी छात्र कभी नहीं था। मुझे जो प्यार देश भर में मिला, वह लिखने के कारण ही मिला।

लिखने के कारण ही करीब चार दशक तक बड़े अखबारों में संपादकी का अवसर मिला। चौथाई सदी इंडियन एक्सप्रेस में बिता दी।

बीहड़ जंगल, नैनीताल जिले की तराई में एक विभाजन पीड़ित बंगाली विस्थापित परिवार में जन्मे मेरे लिए क्या यह कम है?

पैसा, यश नहीं कमाया तो भी एक मामूली लेखक की हैसियत से देश के हर हिस्से से मुझे प्यार मिला।

इससे ज्यादा राशन पानी और क्या चाहिए?

दिल में चैन है। मरेंगे तो चैन से मरेंगे।

हां, मैंने हमेशा जनता के बीच,जनता के साथ रहकर जनता की आवाज बुलंद करने की कोशिश की, उनकी कथा व्यथा कहने का प्रयास किया और बड़े अखबारों की नौकरी के बावजूद हमेशा सत्ता के गलियारे से दूर रहा। हमेशा निरंकुश सत्ता के खिलाफ जनता के मोर्चे पर लामबंद रहा।

फिर भी वृद्धावस्था में आय के सभी स्रोत बंद हो जाने के बाद भी स्वस्थ, सानंद, सकुशल और सक्रिय हूं।

मुझे सिर्फ इतना दुख है कि मेरे पिता पुलिनबाबू सिर्फ संघर्ष करते रहे। वे कुछ लिखकर नहीं गए।

मुझे इससे ज्यादा दुख है कि वंचित तबके के लोग लिखने की अहमियत नहीं जानते।

मेरे पिता पुलिनबाबू ने हमेशा पढ़ने लिखने पर जोर दिया। उन्होंने मुझे पैसे कमाने के गुर नहीं सिखाए और न वे खुद जानते थे। उन्होंने मुझसे लिखने पढ़ने के अलावा कुछ बनने के लिए कभी नहीं कहा।

जिस दिन इस दुनिया के आम लोग, हाशिए के लोग, हाशिए के बाहर के लोग, सतह के नीचे के लोग लिखना पढ़ना सीख जाएंगे, इस दुनिया की कोई सियासत जनता को कठपुतली बना नहीं सकेगी और नरसंहार की संस्कृति खत्म हो जाएगी।

कृपया यह न कहें कि लिखने से कुछ नहीं होता।

लिखने से सब कुछ बदलने वाली जादू की छड़ी मिल जाती है।

हर कोई लिख सकता है।

लिखिए तो सही।

पलाश विश्वास