Professional Integrity, JNU and Professor Jagdishwar Chaturvedi: A Tale of Struggle, Learning and Academic Ethics

  • पेशेवर ईमानदारी और जेएनयू
  • पेशेवर ईमानदारी और निरंतर कर्मठता: जेएनयू से मिली जीवन की सीख

प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी

पेशेवर ईमानदारी और निरंतर कर्मठता ये दो चीजें ऐसी हैं जिनके सामने सब फीके लगते हैं। इन दोनों चीजों को मैंने कभी नहीं छोड़ा। ये चीजें मैंने जेएनयू से सीखीं।

मैं सन् 1989 में कलकत्ते गया, वहां शिक्षक के नाते जीवन की शुरूआत की। वहां के अनुभव बेहद मजेदार रहे हैं। लेकिन उसके पहले ढाई साल कैसे गुजारे, वह जानना बहुत दिलचस्प है।

सन् 1985 में मैंने जेएनयूएसयू अध्यक्ष पद से निवृत्त होने के बाद पीएचडी लिखकर जमा करने का निर्णय लिया। उस समय मैं एसएफआई का दिल्ली में उपाध्यक्ष और जेएनयू यूनिट का अध्यक्ष हुआ करता था। साथ के सभी कॉमरेडों ने कहा, राजनीतिक जिम्मेदारी बीच में कैसे छोड़ सकते हो, मैंने कहा मैं पढ़ने आया हूँ वह काम भी करना जरूरी है।

1983 का जेएनयू आंदोलन और दमन का दौर: एक छात्र की आँखों से

उस समय का माहौल बेहद खराब था। जेएनयू 1983 के दमन के दौर से गुजरकर सामान्य हो रहा था। 1983 मई आंदोलन ने जेएनयू को पूरी तरह तोड़ दिया था। आंदोलन के दमन के लिए कांग्रेस ने छात्र विरोधी कदम उठाए थे। अभी जेएनयू में जिस तरह के हालात हैं उस समय इससे भी बदतर अवस्था थी। मई1983 के आंदोलन में जितना दमन हुआ, उतना पहले कभी नहीं हुआ और बाद में आज तक कभी नहीं हुआ। उस दमन के दौर से जेएनयू को निकालने में छात्रसंघ की केन्द्रीय भूमिका थी। मुझसे पहले रश्मि दोरायस्वामी जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्षा बनीं, उन्होंने छात्रों को जोड़ने और सामान्य स्थिति बहाल करने के लिए अथक परिश्रम किया।

मई आंदोलन का दमन असामान्य और अभूतपूर्व था, उस समय नलिनी रंजन मोहन्ती छात्रसंघ के अध्यक्ष थे। छात्रसंघ का नेतृत्व एसवाईएस-फ्रीथिंकरों के हाथ में था, वे दो-तिहाई बहुमत से जीते थे। इस तरह की जीत उनको पहले कभी नहीं मिली थी। एसएफआई –एआईएसफ बुरी तरह हारे थे। मैं भी उपाध्यक्ष का चुनाव हारा था मात्र 18 वोट से। संयोग से मैं एसएफआई यूनिट का अध्यक्ष था।

राजनीति और पढ़ाई के बीच संतुलन: जेएनयूएसयू अध्यक्ष से शोधार्थी तक

मुझे सन् 1979 से 1986 तक के आंदोलनों को करीब से देखने और उनमें शिरकत करने का मौका मिला। मैंने 1985 में जब पीएचडी लिखनी शुरू की तो राजनीतिक गतिविधियों से एकदम अलग कर लिया, यहां तक कि होस्टल मीटिंगों तक में नहीं जाता था। पीएचडी लिखने के दौरान पढ़ना-लिखना-बढ़िया भोजन करना-नाटक-फिल्म देखना यही मुख्य काम थे। तय समय से ढाई साल पहले मैंने पीएचडी जमा की, जिस समय पीएचडी जमा की, मेरा पास डेढ़ साल की फैलोशिप भी थी, उसे छोड़ा।

जेएनयू का पहला छात्रसंघ अध्यक्ष जिसने पीएचडी जमा की...

मैं जेएनयू का पहला छात्रसंघ अध्यक्ष था जिसने पीएचडी जमा की थी। मैंने तय समय सीमा के तहत जेएनयू से एमए, एमफिल, पीएचडी की। कुल समय लगा जुलाई 1979 से जुलाई 1986।

पीएन श्रीवास्तव का दौर और अकादमिक प्रतिरोध

उन दिनों उपकुलपति पी.एन. श्रीवास्तव हुआ करते थे, प्रो.अगवानी रेक्टर थे। इन दोनों का छात्रविरोधी फैसले लेने में भयानक रिकॉर्ड था। इनके पहले मैं प्रो. महालय और प्रो. नायडुम्मा के कामकाज को वीसी की तरह देख चुका था, जो तुलनात्मक तौर पर लोकतांत्रिक थे। इन पर अलग से लिखूँगा।

नामवर सिंह, भेदभाव और अकादमिक उत्तर

मुझे याद है पीएन श्रीवास्तव के साथ कैंपस के अधिकांश प्रोफेसर हुआ करते थे, जो उनकी नीतियों का विरोध करते थे उनकी संख्या नगण्य थी। विरोध करने वालों में प्रो. हरबंस मुखिया, प्रभात पटनायक, उत्सा पटनायक, पुष्पेश पंत, जीपी देशपांडे, सुदीप्त कविराज आदि प्रमुख थे। यहां तक कि मेरे शिक्षक नामवर सिंह तक वीसी के साथ थे। वह बहुत कठिन दौर था।

मेरा पीएचडी लिखना इसलिए भी जरूरी था, क्योंकि मैं छात्रसंघ अध्यक्षों की पीएचडी न लिखने की परंपरा तोड़ना चाहता था। संयोग की बात है कि मुझे जेएनयू में मित्रों ने यह मौका दिया। उसके बाद अनेक ने पीएचडी की, लेकिन मात्र ढाई साल में पीएचडी मैंने की।

एमफिल-पीएचडी रिकॉर्ड और फैलोशिप की लड़ाई

मैंने रिकॉर्ड समय में एमफिल की थी। उन दिनों कोर्स वर्क 2 सेमिस्टर का होता थाष मैंने कोर्स वर्क खत्म होते ही 1 जुलाई को तीसरे सेमिस्टर के प्रथम दिन एमफिल जमा की, जो कि एक रिकॉर्ड है। मेरा एमफिल्-पीएचडी में दाखिला सूची में 18वां नम्बर था, लेकिन मैंने अपने साथियों में सबसे पहले एम फिल् थीसिस जमा करके सबसे ऊपर वरीयता प्राप्त कर ली और उसके कारण मुझे फैलोशिप मिल गयी। यदि मैं एम.फिल् थीसिस देर से जमा कर देता तो मुझे फैलोशिप कभी न मिलती। यह करके मैंने नामवर सिंह के भेदभाव का अकादमिक तरीके से उत्तर दिया। वरना 18वें नम्बर पर रहने के कारण कभी फैलोशिप नहीं मिलती।

उल्लेखनीय है मैं एमए तीसरे सेमिस्टर में जेएनयू छात्रसंघ का कौंसलर बन चुका था। जब एमफिल-पीएचडी में दाखिल लिया तो उस समय गुरूदेव की खुली घोषणा थी कि मेरा दाखिला नहीं होगा, लेकिन मेहनत रंग लाई, दाखिला हुआ, एमफिल भी न्यूनतम समय में जमा हुआ। उस समय एमफिल की अवधि थी अधिकतम पांच सेमिस्टर।

जेएनयू से मिली सीख : न शॉर्टकट, न चमचागिरी

जेएनयू के अनुभव ने एक सीख दी अकादमिक शॉर्टकट मत मारो, चमचागिरी मत करो, नियमित पढ़ो और नियमित छात्रों के हितों के लिए काम करो।