पुतिन भोज विवाद:मोदी सरकार की छोटी सोच के बड़े संकेत
भारत में लोकतांत्रिक परंपराएँ केवल संस्थाओं से नहीं, बल्कि उन प्रतीकों से भी जीवित रहती हैं जो सत्ता और विपक्ष दोनों को एक ही राष्ट्रीय छतरी के नीचे खड़ा करते हैं। पुतिन के राजकीय भोज से विपक्ष के नेताओं को बाहर रखना राजनीति से अधिक, लोकतांत्रिक मर्यादाओं का सवाल है...

Putin dinner controversy: Big signs of the Modi government's narrow-mindedness.
पुतिन भोज विवाद: क्या सरकार ने लोकतांत्रिक मर्यादा तोड़ी? एक तीखी राय
भारत में लोकतांत्रिक परंपराएँ केवल संस्थाओं से नहीं, बल्कि उन प्रतीकों से भी जीवित रहती हैं जो सत्ता और विपक्ष दोनों को एक ही राष्ट्रीय छतरी के नीचे खड़ा करते हैं। पुतिन के राजकीय भोज से विपक्ष के नेताओं को बाहर रखना राजनीति से अधिक, लोकतांत्रिक मर्यादाओं का सवाल है...
भारत की लोकतांत्रिक मर्यादा और पुतिन भोज विवाद
लोकतंत्र में शोरगुल तो चलता है, लेकिन मर्यादा बहुत ज़रूरी है
भारत की राजनीति स्वभाव से ही प्रतिस्पर्धी है, कभी-कभी कड़वी भी हो जाती है। अपमान, बहिष्कार, आरोप–प्रत्यारोप लोकतांत्रिक बहस में अक्सर उछलते रहते हैं। मगर इस शोर के बावजूद, कुछ लोकतांत्रिक और संसदीय मर्यादाएँ ऐसी हैं जिन्हें कभी छोड़ना नहीं चाहिए। राजनीतिक विरोधी, दुश्मन नहीं होते, और राष्ट्र किसी भी दल या नेता की सीमाओं से बड़ा होता है।
संविधान दिवस पर जब सत्ता और विपक्ष एक साथ खड़े होकर प्रस्तावना पढ़ रहे थे, तब यही भावना स्पष्ट थी, वह दृश्य बताता था कि भारत की वैधता संविधान से आती है, किसी व्यक्ति या विचारधारा से नहीं।
पुतिन भोज में नेता विपक्ष की अनुपस्थिति : एक चूक या एक तानाशाहीपूर्ण संकेत?
रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के सम्मान में राष्ट्रपति भवन में आयोजित भोज में विपक्ष के नेता राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे को आमंत्रित न करना इस मर्यादा से विचलन जैसा लगा।
‘राहुल पहले भी अनुपस्थित रहे हैं’—क्या यह तर्क उचित है?
बीजेपी का कहना है कि राहुल गांधी कई राजकीय कार्यक्रमों से दूर रहे हैं। पर क्या यह तथ्य किसी संवैधानिक पद की उपेक्षा को सही ठहरा सकता है?
राजकीय भोज का निमंत्रण किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत आचरण का पुरस्कार नहीं होता, यह उस संवैधानिक मान्यता का सम्मान होता है जिसका वह प्रतिनिधित्व करता है। विपक्ष का नेता सिर्फ एक व्यक्ति नहीं, बल्कि लाखों नागरिकों की आवाज़ का औपचारिक प्रतीक है, शैडो प्राइम मिनिस्टर है।
यह बहस केवल राहुल गांधी की नहीं, बल्कि संस्थागत गरिमा की है
आज यह सवाल राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खरगे या किसी अन्य नाम या चेहरे से आगे बढ़कर पूरे लोकतांत्रिक ढांचे पर आ टिकता है। अपने शासन के 12वें वर्ष में प्रवेश करने को आतुर मोदी सरकार को इतना आत्मविश्वास दिखाना चाहिए कि वह राजनीतिक स्पेक्ट्रम के हर बड़े दल—टीएमसी, डीएमके, समाजवादी पार्टी, आरजेडी, आप, सबके नेताओं को आमंत्रित कर सके।
उच्च-स्तरीय विविधता कोई शिष्टाचार नहीं, लोकतांत्रिक शक्ति का बयान है
सत्ता के स्तंभ तभी मजबूत दिखते हैं जब उनमें सहमति और मतभेद दोनों के लिए जगह बनी रहे। विविध प्रतिनिधित्व केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि यह बताता है कि भारत का लोकतंत्र अपने विरोधियों के लिए भी उतनी ही जगह रखता है जितनी अपने समर्थकों के लिए।
अतीत में इसी सरकार ने यह परंपरा निभाई
ऑपरेशन सिंदूर के बाद भारत ने पाकिस्तान के आतंकवाद पर वैश्विक मंचों पर बहु-दलीय प्रतिनिधिमंडल भेजे थे। उस समय, राष्ट्रीय महत्व के क्षण में सरकार ने विपक्ष के महत्व को समझा। यह उदाहरण दिखाता है कि जब राष्ट्रीय हित बड़ा हो, तो राजनीतिक सीमाएँ स्वाभाविक रूप से पीछे छूट जाती हैं।
फिर पुतिन के भोज में यह समझ क्यों गायब थी?
इसका कोई अर्थ नहीं है कि रूस में विपक्ष को कितना महत्व मिलता है। क्या भारत में रूस जैसी राजनीतिक व्यवस्था है ? भारत में संवैधानिक परंपरा यह कहती है कि विपक्ष के नेता भी इस लोकतंत्र के बराबर हिस्सेदार हैं। उन्हें राजकीय भोज से बाहर रखना केवल एक कार्यक्रम नहीं, बल्कि एक लोकतांत्रिक प्रतीक का नकार है।
अंत में—यह चूक छोटी लगी, पर संदेश बड़ा गया
देश की सबसी बड़ी संवैधानिक इमारत से विपक्ष के पद को औपचारिक मान्यता न देकर सरकार ने अपनी ही लोकतांत्रिक छवि को कमजोर किया और उस पर लग रहे तानाशाही के आरोपों को स्वीकृति प्रदान की। यह कदम आवश्यक भी नहीं था और न ही रणनीतिक तौर पर उचित, बस एक छोटी सोच का बड़ा संकेत बन गया।
लोकतंत्र की खूबसूरती इसी में है कि सबसे ऊँची मेज़ पर सत्ता जितनी जगह लेती है, उतनी ही जगह विपक्ष को भी मिलती है। इस बराबरी के बिना लोकतंत्र का संतुलन अधूरा है, और इस बार क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों की वजह से वह संतुलन डगमगा गया।


