पंडित नेहरू की विरासत और लोकतंत्र पर संकट: 61वीं पुण्यतिथि पर एक व्यक्तिगत दृष्टिकोण
नेहरू की मृत्यु और एक ग्यारह वर्षीय बालक की यादें नेहरू की स्मृति में एक संकल्प: सेक्युलर भारत की पुनर्स्थापना 27 मई 1964 को पंडित जवाहरलाल नेहरू के निधन की खबर के साथ जुड़े एक व्यक्तिगत अनुभव के माध्यम से लोकतंत्र, तानाशाही के खतरे और नेहरू की विरासत पर डॉ सुरेश खैरनार का एक भावनात्मक...

democracy the dangers of dictatorship and nehrus legacy
नेहरू की मृत्यु और एक ग्यारह वर्षीय बालक की यादें
- नेहरू विरोध से नेहरू पुनराविष्कार तक: एक वैचारिक यात्रा
- भारतीय लोकतंत्र और तानाशाही की आहट
- नेहरू की चेतावनी: नहीं चाहिए कोई भी तानाशाह!
- प्रोपेगेंडा बनाम इतिहास: संघ का दृष्टिकोण और नेहरू की छवि
- लोकतंत्र के संस्थानों पर संकट: मीडिया, न्यायपालिका और शासन
- 2014 के बाद की राजनीति और नेहरू फोबिया
- नेहरू की पत्रकारिता और संवाद की संस्कृति का अंत
- क्या भारत एक अघोषित हिंदू राष्ट्र बनता जा रहा है?
नेहरू की स्मृति में एक संकल्प: सेक्युलर भारत की पुनर्स्थापना
27 मई 1964 को पंडित जवाहरलाल नेहरू के निधन की खबर के साथ जुड़े एक व्यक्तिगत अनुभव के माध्यम से लोकतंत्र, तानाशाही के खतरे और नेहरू की विरासत पर डॉ सुरेश खैरनार का एक भावनात्मक और विचारशील लेख।
नहीं चाहिए कोई भी तानाशाह !
पंडित जवाहर लाल नेहरू की 61 वें पुण्यस्मरण दिवस के बहाने.
27 मई 1964 के दिन, पंडित जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु की खबर (News of the death of Pandit Jawaharlal Nehru) आने के समय मैं ग्यारह साल का था. और महाराष्ट्र के शिंदखेडा नाम के धुलिया जिले का तालुका, जहां मेरी बुआ के घर है, मैं गर्मी की छुट्टियां मनाने के लिए गया था. और बुआजी ने फिलिप्स कंपनी का उस समय का अच्छा रेडियो खरीदा हुआ था. तो 27 मई 1964 के दोपहर के दो बजने से पहले ही, अचानक ही रेडियो प्रसारण रोककर जवाहरलाल नेहरू की मृत होने की खबर प्रसारित होने की बात सुनकर स्तब्ध हो गया था.
क्योंकि उसके कुछ समय पहले लोकसभा चुनावों में पिता स्वतंत्रता सेनानी और कांग्रेस के कमिटेड कार्यकर्ता होने के नाते, मैं भी उनके साथ चुनाव प्रचार में गया था. (उन्हीं की देखा - देखी मैंने खद्दर पहनने की शुरुआत की है ) और हमारे ही गांव के नजदीक के गांव में पिताजी की चुनावी सभा पर, विरोधी दल के लोगों ने हुड़दंग मचा कर कुछ पत्थर फेंके थे और उसमें से एक पत्थर मेरी दाहिनी आंख के दाहिने कोने पर लगने से मैं लहू-लुहान हो गया था. कोई जल्दबाजी में कहीं से हल्दी पावडर ले आया, और उस जगह भर कर कपड़े से बांध दिया. उसके बाद क्या हुआ मुझे याद नहीं है. शायद मैं बेहोश हो गया था.
तो जवाहरलाल नेहरू की भारत के तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने के पहले, मेरे दाहिनी आंख कुछ अंश से बचने के कारण, मैं जख्म के साथ उनके इस दुनिया में न, रहने की खबर बहुत ही दुखद और विलक्षण उत्सुकता के साथ सुन रहा था. और बहुत अर्से तक मायूस रहा.
27 मई 1964 की वह दोपहर, और उसके बाद के कई दिनों तक मैंने मेरे दादा जी की मृत्यु के पश्चात, शायद यह पहला मौका था जिसके कारण मैं बहुत ही दुःखद मनस्थिति में काफी समय तक बना रहा. और उस समय के दैनिक अखबार मराठी के नेहरूजी के संबंध में जो भी फोटो, जानकारी, खबरों को कैंची से काटकर, अपनी नोटबुक में गोंद से चिपका के रखा था. लेकिन सातवीं कक्षा के बाद पढ़ाई के लिए जगह बदलने के कारण, और ग्यारहवीं की परीक्षा के बाद तो एकदम अमरावती होमिओपैथी मेडिकल कॉलेज में दाखल होने के कारण. मेरे कक्षा प्रथम से ग्यारहवीं तक के सभी जतन से किए गए, संग्रह पंद्रहवें वर्ष की आयु में छूट ग, जो आज 61 साल के बाद अचानक सब कुछ चलचित्र के जैसा दिखाई दे रहा है.
वजह गत 11 साल से वर्तमान समय में जवाहरलाल नेहरू की जगह पर बैठे हुए शासकों ने जिस तरह से उनके मूर्ति भंजन का कार्यक्रम चला रखा है, उसमें हमारे जैसे उम्र के, सोलह साल के बाद डॉ. राम मनोहर लोहिया के प्रभाव में जाने के कारण हम भी नेहरू विरोधी खेमे में काफी समय तक रहे हैं. लेकिन संघ के लोग, और मुख्यतः वर्तमान समय के प्रधानमंत्री को, नेहरू फोबिया की बीमारी के कारण वह गाहे-बगाहे नेहरूजी की आलोचना करते हैं. और हम खुद पच्चीस - तीस साल का हमारे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण समय नेहरूजी के प्रति उपेक्षा का भाव लेकर चल रहे थे.
1989 के भागलपुर दंगे के बाद मुस्लिम समुदाय को पूरी तरह असुरक्षित मानसिकता में डालने का संघ का एकमात्र कार्यक्रम को देखते हुए, मुझे मेरी समस्त मान्यताओं को खंगालने के लिए मजबूर होना पड़ा. और महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू तथा रविंद्रनाथ टैगौर और सभी महत्वपूर्ण सामाजिक - राजनीतिक नेताओं तथा विचारों को लेकर पुनर्विचार करने का मौका मिला. और शायद आज जवाहरलाल नेहरू की 61 वीं पुण्य तिथि के बहाने मैं प्रकट रूप से अपनी बात को स्वीकार करते हुए कहना चाहता हूं कि भारत जैसे बहुआयामी संस्कृति के देश को, एक सूत्र में बांधकर रखने के लिए सबसे पहले महात्मा गाँधी और दो नंबर पर जवाहरलाल नेहरू को श्रेय जाता है. अन्यथा वर्तमान समय के सत्ताधारी दल ने कसम खाई है कि आजादी और 2025 के संघ स्थापना के सौ साल के दौरान इस बहुआयामी संस्कृति के देश को हिंदू राष्ट्र में तब्दील करने के लिए कोई कोर - कसर नहीं छोड़ेंगे.
बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद काशी, मथुरा, संभल और लगभग सभी मस्जिदों से लेकर कुतुबमीनार, ताजमहल, लाल किले से लेकर औरंगजेब तथा अन्य बादशाह के कार्यकाल के दौरान किए गए सभी इमारतों से लेकर, धार्मिक स्थलों पर संपूर्ण राजनीति करने का संघ का सौ साल पहले शुरूआत किया गया कार्यक्रम, शुरुआत में पहले आहिस्ता-आहिस्ता, और अब जोर - शोर से मुस्लिम शासकों के एक हजार से अधिक समय के शासन काल का इतिहास पाठ्यक्रम से निकाल दिया गया है, जैसे पाकिस्तान में भी अंग्रेजों के खिलाफ किया गया, स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास को हटाकर मुस्लिम शासक और एकदम पाकिस्तान का इतिहास पढ़ाया जा रहा है. पाकिस्तानी मानवाधिकार कार्यकर्ती अस्मा जहांगीर अपने इलाज के लिए हैदराबाद (तेलंगाना की राजधानी) आई हुई थीं, उस समय मैं भी हैदराबाद में था और उनके साथ मुलाकात में उन्होंने बहुत ही भावुक हो कर मुझे कहा कि "सुरेश भाई भारत को पाकिस्तान जैसे होने से रोकिए." मैंने कहा था कि भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उनकी राजनीतिक इकाई पूरी शिद्दत के साथ भारत को पाकिस्तान की राह पर ले जाने की कोशिश कर रहे हैं.
लेकिन वर्तमान समय में भारत के सत्ताधारी, और उनके मातृ संगठन के फासिस्ट विचारधारा के साथ मिलकर मीडिया संस्थाओं ने ठान लिया है. कि इस देश को हिंदू राष्ट्र में परिवर्तित करने की लगातार कोशिश कर रहे हैं।
इसलिये पंजाब या दिल्ली, कलकत्ता के दंगों के दौरान खुद अपनी लाठी भांजते हुए भीड़ को ललकारने वाले जवाहरलाल. और 27 फरवरी 2002 के साबरमती एक्सप्रेस में एस 6 कोच को जलाने की घटना के बाद, अहमदाबाद की सड़कों पर वीएचपी के कब्जे में 59 अधजली लाशों को (तत्कालीन गोधरा की कलक्टर जयती वी रवी के विरोध के बावजूद) खुले ट्रकों के ऊपर रखकर जुलूस निकालने के लिए वीएचपी को सुपुर्द करने वाले श्री. नरेंद्र दामोदरदास मोदी और हमारे आर्मी को तीन दिन तक अहमदाबाद के एअरपोर्ट के बाहर नहीं निकल देने वाले को ('सरकारी मुसलमान' किताब के लेखक, लेफ्टिनेंट जनरल जमीरूद्दीन शाह ने खुद यह तथ्य लिखा है ) जवाहरलाल नेहरू का द्वेष करना स्वाभाविक है.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक षडयंत्र के तहत भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से अलग रहा है. उल्टा अंग्रेजों की सेना, पुलिस में भर्ती से लेकर खुफिया एजेंसी फिर आई बी हो या सीआईडी और आजकल के नये एनआईए से लेकर सीबीआई, ईडी जैसे महत्वपूर्ण जांच एजेंसियों को पोपट बोलने वाले लोग (कांग्रेस के सत्ता के समय) और अब उन्हें अपने हिसाब से इस्तेमाल कर रहे हैं, विरोधियों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिये इस्तेमाल कर रहे हैं.
और सबसे संगीन बात अब तक एजेंसियों की मदद से कश्मीर में सरकारों को बनाने और गिराने के किस्से कहानियों को सुनने में आये थे. लेकिन भारत में गोवा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों की सरकारों को बनाने - बिगाड़ने के लिए इन सब एजेंसियों की मदद लेकर, सरकारें बनाने के बाद हमारे देश की चुनाव प्रणाली एक दिखावा बनकर रह गई है. और सबसे ज्यादा राज्यपाल लोग तो चैन्नई, बंगलुरू, तिरुअनंतपुरम, कोलकाता, हैदराबाद के राजभवन बीजेपी के दफ्तर बन गए हैं. दोनों जगह के राज्यपाल वहां की सरकारों के साथ रत्ती भर का सहयोग नहीं कर रहे हैं. इसलिए सर्वोच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करने की नौबत आ गई है.
और आजादी के पचहत्तर साल में यह संवैधानिक संस्थाओं को अपने मनमर्जी के निर्णय लेने के लिए मजबूर करने के उदाहरण देखने के बाद न्यायालय, पुलिस, प्रशासनिक क्षेत्र के ऊपर से विश्वास खत्म होने की संभावना दिन - प्रतिदिन बनती जा रही है.
इसी परिप्रेक्ष्य में जवाहरलाल नेहरू की विरासत पुनः - पुनः याद आती है.
जिस आदमी ने अपनी लोकप्रियता को देखते हुए उसके खतरों के प्रति भलीभांति परिचित होने के कारण "नहीं चाहिए कोई तानाशाह" लेख चाणक्य छद्म नाम से केवल साथी देशवासियों के लिए नहीं, खुद को भी इन खतरों से आगाह करने के लिए ही लिखा था. और उल्टा आशीष नंदी ने गुजरात दंगों के बाद नरेंद्र मोदी का साइकोएनालिसिस (Psychoanalysis of Narendra Modi after Gujarat riots) अंग्रेजी पत्रिका में प्रकाशित किया था तो मोदीजी ने कुछ करोड़ रुपये का दावा ठोक दिया. (पता नहीं उस केस का क्या हुआ?)
पं. नेहरू के लिए लोकतंत्र केवल शासन - व्यवस्था नहीं, एक संस्कार था, जिसे शासन से लेकर सामाजिक मानस तक में शामिल होना चाहिए, वे स्वयं को देश का प्रधान सेवक मानते थे. नियमित पत्रकार वार्ताओं के साथ ही, नेहरू हर महीने मुख्यमंत्रियों को चिट्ठियां लिखा करते थे. राष्ट्रीय - अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम के साथ इन चिट्ठियों में संस्कृति और कला के बारे में सरकार की जिम्मेदारी जैसे विषयों पर भी विचार - विमर्श करते थे. उनके बाद मुख्यमंत्रियों को प्रधानमंत्री द्वारा नियमित पत्र लिखने का सिलसिला समाप्त हो गया. पिछले ग्यारह सालों में तो भारतीय प्रधानमंत्री की पत्रकारवार्ता तक अकल्पनीय हो गई है. उनके इंटरव्यू तीखे प्रश्नों के सटीक उत्तरों के लिए नहीं, आम चूसकर खाये जाए या काटकर ? जेब में बटुआ रखते या नहीं ? न थकने के लिए कौन सा टॉनिक लेते हैं ? जैसे मार्मिक प्रश्नों के सुंदर उत्तरों के लिए चर्चित होते हैं.
यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि यह स्थिति अपने आप में नहीं पैदा हो गई है. यह स्थिति व्यवस्थित प्रयत्न के जरिये बनाई गई है, कि टीवी पर होने वाली बहसें मुहल्ले के चौराहे पर होने वाले झगड़ों और स्टैंड - अप कॉमेडी, बल्कि हॉरर शो से होड़ ले रही हैं. सरकार से जवाबदेही की उम्मीद करना लोकतांत्रिक अधिकार नहीं, देशद्रोह मान लिया गया है. इस बात को भुला देने की पुरजोर कोशिश की जा रही है कि लोकतंत्र केवल संख्याओं का खेल नहीं, बल्कि संस्थाओं, मर्यादाओं और परंपराओं के आधार पर चलने वाली व्यवस्था है. यह अल्पमत के साथ सम्मानपूर्वक संवाद करने वाली व्यवस्था है. बहुमत को मनमानी की छूट देने वाली व्यवस्था या साधनसंम्पन्न लोगों के मनोरंजनार्थ चलने वाली डिबेटिंग सोसायटी नहीं है.
विडम्बना यह है कि लोकतंत्र को बोझ या बस संख्याओं का खेल समझने वाले एस्पिरेशनल मिडिल क्लास का इतनी तेजी से विस्तार कांग्रेस सरकार द्वारा अपनाई गई उदारीकरण, निजीकरण की तथाकथित विकासपरक नीतियों के फलस्वरूप ही हुआ है. लेकिन क्या निजीकरण, उदारीकरण के साथ ही लोकतंत्र का महत्व समझने वाले; भारतीय समाज की बहुलता, विविधता में एकता का सम्मान करने वाले सामाजिक मानस को बनाए रखना, इन चीजों को नई पीढ़ी का संस्कार बनाना भी उतना ही जरूरी नहीं था ?
इस सवाल को पूछे बिना यह समझना असंभव है, कि क्योंकर भारतीय लोकतंत्र तेजी से कोरी औपचारिकता और बहुमतवाद में बदलता जा रहा है ? नई पीढ़ी के मानस से नेहरू की स्मृतियाँ, उनके योगदान का बोध गायब क्यों होता जा रहा है ? यह सवाल नेहरू की पार्टी, कांग्रेस, को तो अपने आप से पूछना ही होगा, उन्हें भी पूछना होगा जो भारतीय लोकतंत्र का महत्व समझते हैं, उसे बचाए रखना चाहते हैं. उन्हीं में से बहुत लोगों को 2014 तक यकीन था कि भारतीय लोकतंत्र का संस्थागत आधार इतना मजबूत हो चुका है कि, तानाशाही मिजाज इसे कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकता है. 2015 में एक टीवी डिबेट में यह कहने पर कि 'वर्तमान प्रधानमंत्री को आपातकाल की औपचारिक घोषणा की जरूरत ही नहीं है, वे और उनके समर्थक ऐसा किसी घोषणा के बिना ही भय का वातावरण बना देने में सक्षम हैं, भाजपा के प्रवक्ता ही नहीं, लिबरल, लोकतांत्रिक तबकों में परम लोकप्रिय एंकर साहब भी कुपित हो गए थे. वे ही क्या, देश - विदेश के अग्रणी विद्वान भी आश्वस्त थे कि भारतीय लोकतंत्र की संस्थाएँ इतनी मजबूत हो चुकी हैं कि, तानाशाही मिजाज की प्रतिष्ठा अब असंभव है.
पिछले कुछ सालों में घटनाक्रम ने इस यकीन की सीमाओं को उजागर कर दिया है. और हमारा चुनाव आयोग, हमारे संसद में पारित होने वाले बिल, और बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हमारी न्याय व्यवस्था किस तरह बहुसंख्यक समुदाय के दबाव में फैसले लेने लगी है?और उसे सही ठहराने वाले विद्वान, एक तरह से यह देश अघोषित हिंदू राष्ट्र बनते जा रहा है. और आज जवाहरलाल नेहरू की स्मृति में यह वास्तव में हम आप को सिर्फ उनके नाम के कसीदे पढ़कर एक कर्मकाण्ड करने के बजाय, सही मायने में सेक्युलर, समाजवादी भारत के निर्माण हेतु संकल्प के साथ मैदान में उतर कर इन फिरकापरस्त ताकतों का मुकाबला करने का संकल्प लेकर अपने आप को झोंकने की कसम खाने की आवश्यकता है !
(यह पोस्ट लिखने के लिए मैंने मुख्य रूप से प्रोफेसर पुरूषोत्तम अग्रवाल द्वारा संपादित की हुईं 'कौन है भारत माता ? इस किताब में से काफी मॅटर कॉपी किया है. इसलिए प्रोफेसर पुरूषोत्तम अग्रवालजी को विशेष रूप से धन्यवाद देता हूँ.)
डॉ. सुरेश खैरनार,
27 मई 2025, नागपुर.
Web Title: Democracy, the dangers of dictatorship and Nehru's legacy


