यूएनईपी रिपोर्ट 2025: दुनिया अब भी ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन से ग्लोबल वार्मिंग की राह पर
यूएनईपी की ताज़ा रिपोर्ट बताती है कि मौजूदा रफ्तार से ग्लोबल वार्मिंग का खतरा टलना मुश्किल है। 2100 तक तापमान 2.3–2.5°C तक बढ़ सकता है

Environment Renewable Energy
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) की नई रिपोर्ट में चेतावनी – सदी के अंत तक तापमान 2.5°C तक पहुंच सकता है
ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिहाज़ से दुनिया अभी भी ग्लोबल वार्मिंग की राह पर
यूएनईपी ने दिखाया आईना
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की नवीनतम उत्सर्जन अंतराल रिपोर्ट (The latest Emissions Gap Report by the United Nations Environment Programme (UNEP) ने साफ कहा है कि अगर मौजूदा रफ्तार से हालात नहीं बदले, तो सदी के अंत तक वैश्विक तापमान 2.3 से 2.5 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच सकता है, यानी वो सीमा, जिसके आगे मौसम और जीवन दोनों के संतुलन की डोर टूट जाएगी। जलवायु परिवर्तन के वजह से हो रही ग्लोबल वार्मिंग के चलते हो रही जानलेवा गर्मी कम होती नज़र नहीं आ रही है।
रिपोर्ट बताती है कि देशों की मौजूदा नीतियों और प्रतिज्ञाओं के हिसाब से तापमान में गिरावट की थोड़ी उम्मीद तो बनी है, लेकिन यह गिरावट बेहद मामूली है।
इस रिपोर्ट में वैश्विक स्तर पर ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन की स्थिति का आकलन करते हुए बताया गया है कि देशों द्वारा कार्रवाई संकल्पों और मौजूदा स्थिति में कितनी खाई है और पेरिस समझौते के अनुरूप, 1.5 डिग्री व 2 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को हासिल करने के लिए क्या क़दम उठाए जाने होंगे।
यूएनईपी ने यह भी कहा कि मौजूदा सुधार का करीब 0.1°C हिस्सा केवल तकनीकी गणनाओं के अपडेट से आया है, जबकि पेरिस समझौते से अमेरिका के संभावित बाहर होने से उतनी ही प्रगति मिट भी जाएगी।
पिछले साल की तुलना में अनुमानित तापमान वृद्धि 2.6-2.8°C से घटकर अब 2.3-2.5°C पर आ गई है। मगर असल कार्रवाई के लिहाज़ से दुनिया अब भी 2.8°C वार्मिंग की राह पर है।
अगर तुरंत और सख्त कदम नहीं उठाए गए, तो 1.5°C ग्लोबल वार्मिंग का “टेम्परेरी ओवरशूट” स्थायी खतरे में बदल सकता है। कुल तस्वीर अब भी गंभीर है: अगले कुछ दशकों में 1.5°C की सीमा स्थायी तौर पर पार हो जाएगा।
अधूरे ही रह गए वादे
रिपोर्ट के मुताबिक, पेरिस समझौते से जुड़ी पार्टियों में से केवल एक-तिहाई (जो कुल वैश्विक उत्सर्जन का 63% हिस्सा हैं) ने इस साल नए Nationally Determined Contributions (NDCs) जमा किए हैं।
यह आंकड़ा बताता है कि बड़ी अर्थव्यवस्थाओं, खासकर G20 देशों की तरफ़ से सामूहिक जलवायु नेतृत्व अब भी नदारद है।
2030 के लक्ष्य तो दूर, 2035 तक के वादे पूरे करने की रफ्तार भी काफी धीमी है।
यूएनईपी की कार्यकारी निदेशक इंगर एंडरसन ने साफ कहा, “राष्ट्रों ने तीन बार मौका पाया अपने वादों को पूरा करने का, और हर बार निशाने से पीछे रह गए।
अब वक्त बहुत कम बचा है, पर उम्मीद अब भी है।
समाधान हमारे पास हैं, सस्ती नवीकरणीय ऊर्जा से लेकर मीथेन उत्सर्जन घटाने तक। अब देशों को ‘ऑल इन’ होकर काम करना होगा, क्योंकि यही निवेश उनके भविष्य की गारंटी है।”
यह सिर्फ रिपोर्ट नहीं, चेतावनी है
रेचेल क्लीटस, यूनियन ऑफ कन्सर्न्ड साइंटिस्ट्स की सीनियर डायरेक्टर, कहती हैं, “यह रिपोर्ट दिल दहला देने वाली है। अमीर देशों की सुस्ती और जीवाश्म ईंधन उद्योग के दुष्प्रचार ने हमें यहां ला खड़ा किया है। अब अगर विश्व नेता निर्णायक कार्रवाई नहीं करते, तो यह मानवता के प्रति विश्वासघात होगा।”
क्लीटस कहती हैं कि क्लाइमेट एक्शन महज पर्यावरण का मामला नहीं रहा, बल्कि आर्थिक अवसरों, नौकरियों और सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़ा नया युग है।
“अगर यह COP30 मोड़ नहीं बनेगा, तो शायद आने वाला वक्त सिर्फ चेतावनी बनकर रह जाएगा।”
‘क्लाइमेट बैकफुट’ नहीं, ‘क्लाइमेट बैलेंस’ की ज़रूरत
रिचर्ड ब्लैक, एम्बर थिंक टैंक के पॉलिसी डायरेक्टर, कहते हैं कि केवल NDCs को देखना पूरी कहानी नहीं बताता।
“असल प्रगति उस बदलाव में है जो ग्राउंड पर दिख रही है। कई देशों की नवीकरणीय ऊर्जा योजनाएं तेज़ी से बढ़ रही हैं। और दिलचस्प यह है कि जलवायु नहीं, बल्कि energy security और affordability अब इस ट्रांज़िशन को और गति दे रहे हैं।”
समझौता नहीं, सच्चाई बदली जानी चाहिए
ICPH की निदेशक कैथरीन अब्रू ने कहा कि “पेरिस समझौता फेल हुआ” जैसी बातें दरअसल भटकाने वाली हैं। “असफल पेरिस नहीं हुआ है, असफल तो कुछ ताकतवर देश हुए हैं जिन्होंने अपने वादे निभाए नहीं। यही देश अब भी वैश्विक सहयोग को कमजोर कर रहे हैं। लेकिन दुनिया के ज़्यादातर देश अब पीछे हटने के मूड में नहीं हैं। 1.5°C की सीमा अब भी ज़िंदा है, और COP30 को इसे बचाने के लिए नई ऊर्जा देनी होगी।”
कॉप30 की दहलीज़ पर दुनिया
जब ब्राज़ील अगले साल बेलम में COP30 की मेज़बानी करेगा, तो यह रिपोर्ट उस बातचीत की दिशा तय करने वाली दस्तावेज़ होगी।
एक तरफ, बढ़ती गर्मी और घटती नीतिगत साख का खतरा है, दूसरी तरफ, साफ ऊर्जा और साझा समृद्धि के नए अवसर भी हैं।
दुनिया के पास अब एक ही रास्ता बचा है, तेज़, न्यायपूर्ण और सामूहिक जलवायु कार्रवाई।
या जैसा कि रिपोर्ट कहती है, “हम अभी भी दौड़ में हैं, बस रफ्तार बढ़ाने की ज़रूरत है।”
डॉ. सीमा जावेद
पर्यावरणविद & कम्युनिकेशन विशेषज्ञ


