भुला दिए गए काकोरी कांड के शहीद

कल काकोरी कांड के शहीदों अशफ़ाक उल्लाह खान, ठाकुर रोशन सिंह और राम प्रसाद बिस्मिल का शहादत दिवस था। सुबह अखबार पढ़ने पर निराशा हुई कि हिंदी पट्टी में नंबर एक का दावा करने वाले अखबारों ने और न ही अंग्रेजी के अखबारों ने काकोरी काण्ड के शहीदों की बरसी पर कुछ लिखा या प्रमुखता से छापा हो। सरकार की तरफ से कोई विज्ञापन देखने को नहीं मिला। खैर सरकार तो अपने चुनाव अभियान और वोट बैंक के नजरिए से समय-समय पर विज्ञापन छपवाती रहती है।

अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करते हुए मैं काकोरी शहीद स्मारक पहुंच गया। वहां पहुंच कर मायूसी कुछ दूर होती हुई सी दिखाई देती, उससे पहले ही सरकारी इंतजाम और वहां बज रहे डीजे वाले बाबू के गानों ने फिर मायूस कर दिया। सरकार और उसके अधीन मंत्रालयों और विभागों की तरफ से चुनिंदा लोग मौजूद थे और साथ ही एक इंटर कॉलेज के बच्चों का बाल मेला लगा था। एक और स्कूल की कुछ छात्राएं अपने शिक्षकों के आयी थीं। पिछले सालों तक जो टेंट स्मारक के अंदर के पूरे मैदान में लगता था अब वह आधा ही दिख रहा था।

स्मारक के अंदर मौजूद लाइब्रेरी की भी दयनीय स्थिति थी। एक बुजुर्ग ने बताया कि लाइब्रेरी साल में दो बार अगस्त और दिसंबर के महीने में 9-4 बजे तक खुलती है। इसके अलावा अगर कोई प्रोग्राम हुआ तब खुलती है। सरकारों और लोगों की उदासीनता का ही नतीजा है कि जिस शहर ने अंग्रेजी हुकूमत को हिला कर रख दिया था, उस शहर में आज सरकारी और प्राइवेट विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों और विद्यालयों में भी कार्यक्रम नहीं हुए। जबकि ऐसे संस्थान समय-समय पर धर्म आधारित और दक्षिणपंथी विचार धारा से प्रेरित आयोजन करते रहते हैं।

20 दिसंबर के अखबारों का इस उम्मीद के साथ इंतजार था कि शायद आज सरकार और अखबार की तरफ से कोई खबर आयेगी लेकिन इस बार भी निराशा ही हाथ लगी और मैं सोचता रहा कि क्या कारण रहा होगा कि हमारे समाज और सरकारों ने इसे भुला दिया या उनसे अनजाने में हो गया। शायद अब इस सवाल का जवाब मिलने में उम्र निकल जाए।

जगदम्बा प्रसाद हितैषी जी ने 1916 में लिखा था..

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले

वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।

लेकिन अब लगता नहीं है कि उनकी पंक्तियों का कोई निष्कर्ष निकलेगा। राजनीति विचारों की नहीं वोटों की जो हो चली है।

प्रोफेसर रॉबिन वर्मा

संविधान दिवस पर प्रोफेसर रॉबिन वर्मा की टिप्पणी