क्या खो चुका है मोदी का जादू? मौन-मोदी से भाजपाई भी भ्रमित
मौन-मोदी से भाजपाई भी भ्रमित

narendra modi
क्या खो चुका है मोदी का जादू?
- मोदी का 'मौन': क्या यह राजनीतिक संकट का संकेत है?
- 'न खाऊँगा, न खाने दूँगा' से पीछे हटना: वादे बनाम हकीकत
- BJP में घोटाले और अवसरवादियों का प्रवेश
क्यों नहीं हुआ मध्य प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन?
क्या प्रधानमंत्री मोदी का 'मौन' उनकी राजनीतिक मुश्किलों का संकेत है? पार्टी में घोटालों, अवसरवादियों को टिकट देने और 'न खाऊँगा, न खाने दूँगा' के वादे से पीछे हटने के बाद क्या मोदी का करिश्मा फीका पड़ रहा है? जानिए क्यों BJP के भीतर ही सवाल उठ रहे हैं और कैसे मोदी सरकार के फैसलों ने जनता को निराश किया। #ModiSilence #BJP #LokSabhaElection2024 #PoliticalCrisis
- सुषमा-वसुंधरा से लेकर स्मृति ईरानी तक: मोदी की 'चुप्पी' पर सवाल
- क्या BJP अब 'नेता-केंद्रित' पार्टी बन गई है?
आगे की राह: क्या मोदी फिर से खतरे उठाकर बदलाव ला सकते हैं?
पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय स्तर पर केवल दो सरकारी कार्यक्रमों में बोलते हुए सुनाई दिए, उनमें से एक अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस का कार्यक्रम था और दूसरा डिजिटल इंडिया के प्रारम्भ करने का कार्यक्रम था। दोनों ही कार्यक्रमों में वे धारा प्रवाह बोलने वाले पुराने स्वरूप में नजर नहीं आए, अपितु ऐसा लगा जैसे उन्होंने लिखा हुआ भाषण पढ़ दिया हो। इस रूप में वे राजनीतिक सक्रियता के पूर्वार्ध की श्रीमती सोनिया गाँधी या उत्तरार्ध की मायावती की तरह लगे। किसी भी राजनेता की अपनी विशिष्ट पहचान होती है और मोदी ने जिस रूप में अपनी पहचान बनाई थी, वह पहचान इन दिनों खो गई सी लगी।
यह किंकर्तव्यविमूढ़ता वाली स्थिति उनकी पार्टी के विभिन्न राजनेताओं पर लगे घोटालों के आरोपों के बाद बनी है। पिछले दशकों में देश में जो राजनीतिक संस्कृति विकसित हुई है उसमें लगाए गए आरोपों जैसी घटनाएं असामान्य नहीं हैं, किंतु यह असामान्यता मोदी के चुनावी भाषणों में किए गए वादों और भिन्न तरह की सरकार होने की थोथी और बड़बोली घोषणाओं के कारण बनी है। जब उन्होंने गरज के साथ यह घोषणा की थी कि न खाऊँगा और न खाने दूंगा, तब शायद उन्होंने अपनी पार्टी के स्वरूप और जुटाए गए समर्थन को ध्यान में नहीं रखा था। उनके प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी के रूप में चयन को जिस तरह से पार्टी के लोगों ने थोड़े से ना-नुकर के बाद स्वीकार कर लिया था और उन्हें टिकिट वितरण से लेकर दलबदलुओं समेत विभिन्न फौज, पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों को आयात करने तक का अधिकार दे दिया था, उससे शायद उन्हें यह गलतफहमी हो गई होगी कि आगामी पाँच साल इसी तरह उनकी तूती बोलती रहेगी। अब शायद उन्हें अपनी भूल महसूस हो रही है जो उनके मौन हो जाने में प्रकट हो रही है। चुनाव पूर्व के अन्ध-समर्थन के पीछे सत्ता से दूर पार्टी के लोगों में इस उम्मीद का पैदा होना था कि एक यही व्यक्ति है जो हमें केन्द्र में सत्ता दिलवा सकता है, क्योंकि गुजरात में इसने न केवल डूबती हुयी पार्टी को उबार दिया अपितु उसकी जड़ें मजबूत कर दीं।
इस रूप में चुनाव जीतने का भरोसा शायद मोदी को भी नहीं रहा होगा, इसलिए उन्होंने न केवल पूरे न हो सकने वाले वादे ही किए अपितु विभिन्न दलों के उन अवसरवादी लोगों को भी प्रवेश दिया, जिनकी राजनीति केवल पद और पैसा बनाने से ऊपर नहीं जाती। चुनाव में जीत हासिल करने के लिए येदुरप्पा जैसे अनेक लोगों को जिन्होंने कभी अलग पार्टी बना ली थी न केवल दल में शामिल कर लिया अपितु टिकिट भी दिया गया। ऐसे अन्य अनेक लोग उनके दल में पहले से ही मौजूद थे और मजबूत समर्थन से सत्ता ग्रहण करने के बाद उन्हें दल में सफाई अभियान प्रारम्भ करके अपना मानक स्थापित करना चाहिए था, किंतु उन्होंने उक्त सफाई अभियान करने की जगह सड़कों की सफाई अभियान का अभियान प्रारम्भ किया जिसमें उनकी ही पार्टी के लोग लाए हुए कचरे को फैलाने के बाद झाड़ू लगाने की फोटो खिंचवाते हुए सामने आए।
स्वच्छता अभियान नेतृत्व में भरोसे की परख के लिए एक अच्छा जनमत संग्रह हो सकता था, जिसकी असफलता ने ही संकेत दे दिया था कि उनके समर्थक किसी नई ज़मीन को तोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं, अपितु पुराने खेत में बोयी गई फसल को काट कर अपने घर ले जाने के लिए ही तैयार हो कर निकले हैं।
अगर उन्हें देश और अपनी पार्टी के लोगों को कोई सन्देश देना था तो सबसे पहले मध्य प्रदेश सरकार में नेतृत्व परिवर्तन करके देने की जरूरत थी जिसके खिलाफ लगे आरोपों के पर्याप्त सबूत थे। किंतु उन्होंने न केवल इस नेतृत्व को ही बनाये रखा जिसके मंत्रिमण्डल का सर्वाधिक महत्वपूर्ण विभाग सम्हालाने वाला मुख्य मंत्री का सबसे विश्वसनीय केबिनेट सदस्य जेल जा चुका था अपितु पिछली सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपाल तक को नहीं बदला जिन पर कई आरोप लग चुके थे। उल्लेखनीय है कि इस बीच जिन राज्यपालों पर कोई आरोप नहीं थे, उन्हें तक हटा दिया गया था क्योंकि उनकी नियुक्ति पिछली सरकार ने की थी।
अंग्रेजी में कहावत है कि – हिट द आयरन व्हेन इट इज हाट (hit the iron when it is hot)। जब उनकी अभूतपूर्व जीत के कारण उनकी चारों ओर जयजयकार हो रही थी, तब लिए गए फैसले उनकी जीत के प्रभाव में स्वीकार कर लिए जाते, जैसे कि अडवाणी, मुरली मनोहर जोशी को सरकार से दूर रख कर लिया गया कठोर फैसला स्वीकार कर लिया गया था। पर उनके बाद के फैसले मजबूती से नहीं लिए गए। हर बड़े परिवर्तन के लिए खतरा उठाना पड़ता है।
उल्लेखनीय है कि श्रीमती गाँधी ने अगर काँग्रेस का विभाजन करते हुए संगठन के लोगों के खिलाफ कदम उठा कर राष्ट्रपति चुनाव में वी वी गिरि को समर्थन देने का खतरा नहीं उठाया होता तो उन्हें सत्ता से दूर होने में देर नहीं लगती। यदि समाज भ्रष्टाचार जैसी बीमारियों से परेशान हो तो जनता कठोर फैसले लेने वाले शासक को पसन्द करती है। बंगलादेश मुक्ति संग्राम हो या स्वर्ण मन्दिर को आतंकवादियों से मुक्त करने के लिए ऑपरेशन ब्लू स्टार हो, इनके लिए श्रीमती गाँधी को व्यापक जनसमर्थन मिला था। मोदी को भी जनता ने इसी उम्मीद से देखा था और आशा की थी कि वे अपने वादों के अनुरूप सत्ता सम्हालते ही भ्रष्टाचारियों और ब्लैकमनी वालों के खिलाफ टूट पड़ेंगे, पर ऐसा नहीं हुआ अपितु इसके उलट मोदी सरकार उन्हें बचाती नजर आयी, तो लोगों ने ठगा हुआ महसूस किया। संयोग से जब इसी बात को राम जेठमलानी, अरुण शौरी, गोबिन्दाचार्य, आर के सिंह, आदि अनेक लोगों ने एक साथ कहा तो मोदी समर्थक लोगों को लगा कि उनकी सोच सही है। जब सुषमा, वसुन्धरा, पंकजा मुण्डे और स्मृति ईरानी तक के मामलों में मोदीजी ने चुप्पी साध ली तो लोगों को भरोसा हो गया कि दाल में काला है।
पिछले कुछ वर्षों में भाजपा नीति की जगह नेता के अनुसार चलने लगी है इसलिए पार्टी के लोग दिशा पाने के लिए नेता के मुख की ओर मुखातिब होने लगे हैं। जिस इकलौते नेता को सारी जिम्मेवारियां सौंप कर सबको चुप करा दिया गया हो और अगर वही मौन धारण कर ले तो पूरी पार्टी अपाहिज हो जाती है। इस समय भी ऐसी स्थिति आ चुकी है कि प्रवक्ता अपनी बात ठेलते तो रहते हैं, किंतु यह तय नहीं कर पाते कि वे कौन सी लाइन लें।
मोदीजी जैसे व्यक्ति से यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि वे खतरे उठाते हुए भी सही फैसले लें।
वीरेन्द्र जैन
वीरेन्द्र जैन, लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार व जनवादी लेखक हैं।


