अमर शहीद सुखदेव की क्रांतिकारी भूमिका और विचारधारा का ऐतिहासिक मूल्यांकन

Historical evaluation of the revolutionary role and ideology of Amar Shaheed Sukhdev

अमर शहीद सुखदेव का जन्म 15 मई 1907 को हुआ था। उन्होंने समाजवादी क्रांति, लाला लाजपत राय की मौत का बदला, एचएसआरए की स्थापना और सेंट्रल असेंबली बम कांड जैसे ऐतिहासिक आंदोलनों में प्रमुख भूमिका निभाई। डॉ. रामजीलाल के इस लेख से जानिए उनके जीवन, चिंतन और बलिदान की पूरी कहानी इस विशेष लेख में।

अमर शहीद सुखदेव: समाजवादी क्रांतिकारी आंदोलन के उत्प्रेरक – एक विश्लेषण

अमर शहीद सुखदेव के जन्मदिन 15 मई पर विशेष लेख

सुखदेव (पूरा नाम: सुखदेव थापर – जन्म 15 मई 1907 लुधियाना, पंजाब – शहादत दिवस 23 मार्च 1931) एक महान स्वतंत्रता सेनानी, राष्ट्रवादी क्रांतिकारी, महान समाजवादी चिंतक, धर्मनिरपेक्ष, महान देशभक्त, विचारक, कुशल संगठनकर्ता, तेज तर्रार वक्ता, उत्कृष्ट वाद-विवादकर्ता, सर्वोच्च आत्म-बलिदान कर्ता और असाधारण बुद्धिमान युवक थे. काकोरी षडयंत्र, सेंट्रल असेंबली बम षडयंत्र और सबसे बढ़कर लाहौर षडयंत्र जैसी कई क्रांतिकारी गतिविधियाँ और षडयंत्र उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर रचे थे सुखदेव के क्रांतिकारी सर्कल में अनेक छद्म नाम— “ग्रामीण”, “किसान”,”गवार”, “स्वामी” और “दयाल” थे. सुखदेव ने कभी अपनी पोशाक के बारे में चिंता नहीं की और साधारण व्यक्तित्व धनी थे. वस्तुतः वे भारतीय समाजवादी क्रांतिकारी आंदोलन के उत्प्रेरक और एक गौरवशाली स्वर्णिम पृष्ठ हैं.

सुखदेव का प्रारंभिक जीवन और शिक्षा और सुखदेव की जीवनी

15 मई 1907 को पंजाब के प्रसिद्ध शहर लुधियाना के नौघरा मोहल्ले में प्रसिद्ध क्रांतिकारी सुखदेव का जन्म श्रीमती रल्ली देवी और श्री रामलाल थापर (आर्य समाजी) के घर हुआ था. जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल और वर्तमान में ट्रिब्यून ट्रस्ट, चंडीगढ़ के अध्यक्ष, एन.एन. वोहरा के अनुसार सुखदेव ‘मेरे मामा, मेरी माँ के चचेरे भाई थे. क्योंकि उनकी माँ की मृत्यु बहुत जल्दी हो गई थी‘. उनके माता-पिता की मृत्यु के पश्चात उनका पालन-पोषण सुखदेव के मामा एवं एन.एन. वोहरा के नाना लाला अचिंत राम थापर की देखरेख में लायलपुर (अब पाकिस्तान में) में हुआ.

सुखदेव ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा श्री सनातन धर्म स्कूल, लायलपुर (अब पाकिस्तान) में प्राप्त की और उच्च अध्ययन के लिए उन्होंने नेशनल कॉलेज, लाहौर में प्रवेश लिया.

सुखदेव के चिंतन और व्यक्तित्व पर किसका प्रभाव

प्रारम्भिक काल में सुखदेव के चिंतन और व्यक्तित्व पर लाला अचिंत राम गहरा प्रभाव पड़ा. लाला अचिंत राम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य व ब्रिटिश सामाज्यवाद के धुंरधर विरोधी थे. वे एक धैर्यवान, साहसी, प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी थे. स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के कारण लाला अचिंत राम 19 वर्ष जेल रहे. इस घरेलू परिवेश का सुखदेव के मन पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा.

सुखदेव के चिंतन पर सुनियोजित जलियांवाला बाग नरसंहार (13 अप्रैल 1919 ) का प्रभाव बहुत अधिक पड़ा. यद्यपि इस समय सुखदेव की आयु केवल 12 वर्ष की थी. परंतु अन्य युवाओं-उधम सिंह, भगत सिंह इत्यादि की भांति उन के दिल और दिमाग पर ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार के द्वारा किए गए अत्याचारों का गहरा प्रभाव पड़ा और उनका अभिमुखीकरण इस अल्पायु में ही क्रांतिकारी गतिविधियों की ओर होने लगा और वह बचपन से बगावती हो गए.

सन् 1922 में मैट्रिक की पढ़ाई पूरी करने के बाद सुखदेव ने नेशनल कॉलेज, लाहौर में दाखिला लिया. यह कॉलेज राष्ट्रवादियों एवं क्रांतिकारियों की गतिविधियों की नर्सरी बन गया. इस महाविद्यालय में प्राचार्य छबीलदास तथा विद्यालंकार जैसे शिक्षकों के सानिध्य़ व प्रेरणा ग्रहण की एवं सुखदेव की मुलाकात भावी युवा क्रांतिकारियों – भगत सिंह, यशपाल, गणपत राय, भगवती चरण वोहरा इत्यादि से हुई.

सुखदेव के राजनीतिक चिंतन पर मार्क्सवाद-लेनिनवाद का गहरा प्रभाव था. वह एचआरएसए के मुख्य रणनीतिकारों में होने के कारण आतंकवादी एवं अराजकतावादी गतिविधियों के शत-प्रतिशत विरूद्ध थे.

एचएसआरए का मुख्य उद्देश्य भारत में ‘समाजवादी गणराज्य’ की स्थापना करना था. सुखदेव के अनुसार, ‘एचएसआरए और क्रांतिकारी समाजवादी गणराज्य की स्थापना के लिए खड़े हैं… जब तक लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता, संघर्ष जारी रहेगा।’ इससे यह स्पष्ट होता है कि वह पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के गठबंधन के खिलाफ थे.

सुखदेव के मित्र शिव वर्मा के अनुसार, ‘भगत सिंह के बाद, अगर किसी साथी ने समाजवाद पर सबसे अधिक पढ़ा और मनन किया, तो वह सुखदेव थे.’ यह स्पष्ट है कि कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स द्वारा लिखित कम्युनिस्ट घोषणापत्र (1848) और लेनिन का प्रभाव सुखदेव की सोच में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है. वह न केवल राष्ट्रवादी थे बल्कि कट्टर समाजवादी भी थे.

नौजवान भारत सभा के सदस्य थे. उन्होंने पंजाब और उत्तरी भारत के अन्य क्षेत्रों में क्रांतिकारी आंदोलनों की शुरुआत की. मार्च 1926 में भगत सिंह के द्वारा नौजवान सभा की स्थापना की गई. सुखदेव नौजवान सभा के अग्रणीय सदस्यों में थे. उनके धारा प्रवाह, जोशीले एवं तेज तर्रार भाषणों के कारण तत्कालीन अविभाजित पंजाब व उत्तरी भारत के अन्य क्षेत्रों के युवाओं में एक नई चेतना व जागरूकता आई. परिणाम स्वरूप अविभाजित पंजाब में क्रांतिकारी स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी भड़क उठी.

दिल्ली में फिरोज शाह कोटला मैदान में 8- 9 सितंबर 1928 को एक गुप्त बैठक हुई. इस बैठक में सुखदेव और भगत सिंह ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) का नाम बदलकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) करने और उसमें ‘सोशलिज्म’ शब्द जोड़ने का प्रस्ताव पारित करवाया. हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का मुख्य उद्देश्य’ ब्रिटिश साम्राज्यवाद से आजादी प्राप्त करना’ और ‘भारत के संयुक्त राज्य समाजवादी गणराज्य’ की स्थापना करना था, जिसमें ‘सर्वहारा वर्ग की तानाशाही’ के तहत ‘सार्वभौमिक मताधिकार’ हो और ‘सत्ता के केंद्र (Seat of Power) से परजीवियों (Parasites) का उन्मूलन हो, जहां ‘मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण न हो’

सुखदेव एक प्रखर समाजवादी और कुशल संगठनकर्ता थे. यही वजह है कि उन्हें इस नवगठित संगठन की पंजाब इकाई के सचिव की जिम्मेदारी सौंपी गई. नतीजतन, उन्होंने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) की नीतियों, आंदोलन की रणनीति और योजनाओं को तैयार करने व क्रियान्वयन करने में सबसे महत्वपूर्ण और निर्णायक भूमिका निभाई. लेनिन की तरह सुखदेव मानना था कि क्रांति केवल क्रांतिकारी विचारधारा और दृढ़ संकल्प से लैस ‘प्रशिक्षित पेशेवर क्रांतिकारियों’ द्वारा ही लाई जा सकती है.

सुखदेव : लाला लाजपत राय की मौत का बदला: जॉन सॉन्डर्स की हत्या (– 17 दिसंबर 1928) : प्रमुख योजनाकार

30 अक्टूबर 1928 को जब साइमन कमीशन लाहौर रेलवे स्टेशन पर पहुंचा तो उसका विरोध कर रहे अहिंसक और शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों की विशाल भीड़ द्वारा ‘साइमन कमीशन वापस जाओ‘ के नारे आसमान में गूंज रहे थे. इस प्रदर्शन का नेतृत्व लाला लाजपत राय कर रहे थे. लाहौर के पुलिस अधीक्षक जेम्स. ए. स्कॉट ने अहिंसक और शांतिपूर्ण भीड़ को तितर-बितर करने के लिए लाठीचार्ज का आदेश दिया.

पुलिस अधीक्षक स्टॉक ने स्वयं लाला लाजपत राय पर लाठियों से हमला किया और वे गंभीर रूप से घायल हो गए. 17 नवंबर 1928 को 63 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई. परिणामस्वरूप, क्रांतिकारियों – सुखदेव, शिवराम, राजगुरु, चंद्रशेखर आज़ाद – ने लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने और ब्रिटिश सरकार को संदेश देने के लिए लाहौर के पुलिस अधीक्षक जेम्स ए स्कॉट को मारने की योजना बनाई. 17 दिसंबर 1928 को शाम 4:03 बजे जब सहायक पुलिस अधीक्षक, जॉन पोयंट्ज़ सॉन्डर्स, (जे.पी सॉन्डर्स) लाहौर के पुलिस मुख्यालय से बाहर निकले (गलती से उन्हें जेम्स ए स्कॉट समझकर), राजगुरु और भगत सिंह ने तुरंत उन्हें गोली मार दी.

क्या क्रांतिकारी जॉन सॉन्डर्स को मारना चाहते थे ?

क्रांतिकारियों का उद्देश्य जॉन सॉन्डर्स को मारना नहीं था, बल्कि उनका निशाना लाहौर के पुलिस अधीक्षक जेम्स ए स्कॉट थे.

यद्यपि सुखदेव हिंसा का समर्थन नहीं करते थे. इसके बावजूद उन्होंने जेपी सांडर्स की हत्या को औचित्यपूर्ण बताते हुए 7 अक्टूबर 1930 को अपने साथियों को लिखा “सॉन्डर्स हत्याकांड का उदाहरण लीजिए. जब लाला को लाठियाँ लगीं, तो देश में अशांति थी. पार्टी की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करने का यह अच्छा अवसर था. इस तरह हत्या की योजना बनाई गई थी. हत्या के बाद भाग जाना हमारी योजना नहीं थी. हम लोगों को यह बताना चाहते थे कि यह एक राजनीतिक हत्या थी और इसके अपराधी क्रांतिकारी थे. हमारी कार्रवाई हमेशा लोगों की शिकायतों के जवाब में होती थी. हम लोगों में क्रांतिकारी आदर्शों का संचार करना चाहते थे, और ऐसे आदर्शों की अभिव्यक्ति उस व्यक्ति के मुँह से अधिक गौरवशाली लगती है जो अपने उद्देश्य के लिए फाँसी पर चढ़ गया हो.“

केंद्र सरकार द्वारा सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली (अब पुरानी संसद-संविधान सदन) में पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड यूनियन बिल पेश किया गया था. इस बिल के अनुसार सरकार बिना किसी कारण के किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकती थी. यह राष्ट्रवादी आंदोलनकारी गतिविधियों को नियंत्रित करने की एक साजिश थी.

एचएसआरए की केंद्रीय समिति ने अप्रैल 1929 में पब्लिक सेफ्टी बिल (Public Safety Bill in April 1929) और ट्रेड यूनियन डिस्प्यूट बिल (Trade Union Dispute Bill) का विरोध करने के लिए एक योजना तैयार की. इस योजना के अनुसार, दिल्ली स्थित सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने के लिए बैठक में भगत सिंह का नाम नहीं रखा गया. जब केंद्रीय समिति ने यह निर्णय लिया तो सुखदेव बैठक में मौजूद नहीं थे. उन्होंने इस निर्णय का विरोध किया क्योंकि भगत सिंह एचएसआरए के उद्देश्यों को बेहतर तरीके से समझा सकते थे. सुखदेव के विचारों के कारण समिति को अपना निर्णय बदलना पड़ा और भगत सिंह को असेंबली में बम फेंकने के लिए लिए चुना गया...’’

8 अप्रैल 1929 को जब पब्लिक सेफ्टी बिल पर बहस चल रही थी (दोपहर 12:30 बजे), भगत सिंह और उनके साथी बी.के. दत्त ने दो कम तीव्रता वाले बम विस्फोट किए और सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली (Central Legislative Assembly) में पर्चे फेंके. इसके अलावा, ‘इंकलाब जिंदाबाद’, ‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ और ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ जैसे नारे भी लगाए गए हमारा सुनिश्चित अभिमत है कि सुखदेव सेंट्रल असेंबली बम विस्फोट कांड(: 8 अप्रैल 1929) में भगत सिंह के उत्प्रेरक के रूप में थे.

लाहौर षडयंत्र केस के मुख्य सूत्रधार

लाहौर षडयंत्र केस के पीछे सुखदेव का ही मुख्य दिमाग था. यही कारण है कि लाहौर षडयंत्र केस 1930 का नाम: ‘’क्राउन-(शिकायत कर्ता) बनाम सुखदेव और अन्य’’ है. अप्रैल 1929 में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक हैमिल्टन हार्डी ने मजिस्ट्रेट आर.एस. पंडित की विशेष अदालत में 27 आरोपियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की.

एफआईआर के अनुसार, सुखदेव प्रथम स्थान पर, भगत सिंह 12वें स्थान पर और राजगुरु 20वें स्थान पर थे.

अपनी किताब ‘विदाउट फ़ियर, द लाइफ़ एंड ट्रायल ऑफ़ भगत सिंह‘ में कुलदीप नैयर लिखते हैं, “जल्लाद ने पूछा था कौन पहले जाएगा? सुखदेव ने जवाब दिया था, मैं सबसे पहले जाऊँगा. जल्लाद ने एक के बाद एक तीन बार फाँसी का फंदा खींचा था. तीनों के शरीर बहुत देर तक फाँसी के तख़्ते से लटकते रहे थे.”

ट्रिब्यूनल ने 7 अक्टूबर 1930 को तीनों महान क्रांतिकारियों – सुखदेव, भगत सिंह, और राजगुरु को 24 मार्च 1931 को फांसी देने की सजा की तिथि निर्धारित की. ट्रिब्यूनल के निर्णय अनुसार इन क्रांतिकारियों को 24 मार्च 1931 को फाँसी दी जानी थी, परंतु जन आक्रोश को देखते हुए एक दिन (11 घंटे) पूर्व 23 मार्च 1931 शाम को 7.30 पर लाहौर की जेल की पीछे से दीवार तोड़ कर केंद्रीय जेल में फांसी दे गई.

तीनों महान क्रांतिकारियों – सुखदेव , भगत सिंह और शिवराज हरि राजगुरु के शवों को जेल से बाहर निकाला गया. उसी रात तीनों शवों को सतलुज नदी के किनारे – फिरोजपुर के पास हुसैनीवाला बॉर्डर ले जाकर सामूहिक चिता बनाई गई और उन पर मिट्टी का तेल (Kerosene Oil) डालकर उन्हें जला दिया गया. इन तीनों शहीदों के आधे जले शवों को सतलुज नदी में फेंक दिया गया. लेकिन सुबह होने से पहले ही गांव वालों ने आधे जले शवों को नदी से बाहर निकाल लिया और अंतिम संस्कार कर दिया

24 मार्च 1931 को द ट्रिब्यून (लाहौर) ने सबसे पहले इस घटना को पहले पन्ने पर छापा. (‘Bhagat,Rajguru And Sukhdev Executed’, The Tribune, Lahore, 24 March,1931,p.1.) नतीजतन, जनता का गुस्सा चरम पर पहुंच गया. मुंबई, मद्रास, बंगाल, पंजाब और उत्तर प्रदेश में लोगों की भीड़ भड़क उठी. सन् 1857 के बाद पहली बार जनता और पुलिस के बीच इतनी भीषण मुठभेड़ हुई. नतीजतन, इस संघर्ष में 141 भारतीय शहीद हुए, 586 लोग घायल हुए और 341 लोग गिरफ्तार हुए. संक्षेप में, इनकी शहादत ने जनता में एक नया क्रांतिकारी जोश और लहर पैदा कर दी.

डॉ. रामजीलाल

(नोट: लेखक, पालिटिक्ल इंडिया 1935-42: एनाटॉमी ऑफ़ इंडियन पॉलिटिक्स (अजंता पब्लिकेशन्स, दिल्ली, 1986) के लेखक हैं.)