मुझे शक़ है कि गांधी का कथित राष्ट्रवाद कहीं हिंदू राष्ट्रवाद का ही एक अंश तो नहीं?
मुझे शक़ है कि गांधी का कथित राष्ट्रवाद कहीं हिंदू राष्ट्रवाद का ही एक अंश तो नहीं?

अभिषेक श्रीवास्तव (Abhishek Shrivastava), जनपक्षधर, यायावरी प्रवृत्ति के वरिष्ठ पत्रकार हैं। उनकी शिक्षा दीक्षा आईआईएमसी में हुई है
मुझे शक़ है कि गांधी का कथित राष्ट्रवाद कहीं हिंदू राष्ट्रवाद का ही एक अंश तो नहीं? अभिषेक श्रीवास्तव (राष्ट्रवाद पर बहस: संदर्भ 'न्यूज़लॉन्ड्री' का आयोजन)
लंबे समय से यह सवाल बना हुआ है कि आरएसएस के हिंदू राष्ट्रवाद के सामने कौन सा नैरेटिव मुकाबिल हो। पिछले तीन साल के दौरान इस पर कुछ गंभीर काम हुआ है। 1857 की पहली जंग-ए-आज़ादी से निकले भारतीय राष्ट्रवाद का एक मॉडल है, जिस पर अमरेश मिश्र लगातार लिखते रहे हैं। दूसरा मॉडल सनातन धर्म के मूल स्तंभों पर खड़ा है जो संघ द्वारा हिंदू धर्म को मोनोलिथ (एकाश्म) बनाए जाने के खिलाफ़ है। तीसरा सबसे सस्ता और घिसा-पिटा मॉडल नेहरूवादी सेकुलरवाद का है जो बदनाम हो चुका है। कुछ लोग ग्राम स्वराज के संदर्भ में गांधीवादी राष्ट्रवाद की बात भी करते हैं, जो आज़ाद भारत में क्रियान्वित नहीं हो सका लिहाजा उसका मूर्त रूप हम नहीं जानते। विमर्श के लिहाज से आज के दौर में हिंदू राष्ट्रवाद के बरअक्स किसे चुना जाए, यह काफी जटिल सवाल है।
न्यूज़लॉन्ड्री हिंदी ने एक साल पूरा करने पर कल गांधी के राष्ट्रवाद और संघ के राष्ट्रवाद के बीच विमर्श का आयोजन किया। गांधी जयन्ती के संदर्भ से देखें तो विषय का चयन उपयुक्त ही था, लेकिन विमर्शकारों की सस्ती और हलकी समझ ने न केवल निराश किया बल्कि मॉडरेटर नग़मा सहर और सुधी श्रोताओं द्वारा संघ के प्रचारक अजय उपाध्याय को एकतरफा घेर कर गौरक्षा आदि मसलों पर निशाना बनाए जाने के तकरीबन पूर्व-नियोजित एजेंडे ने मूल बहस को ही पटरी से उतार दिया। नतीजतन, पूरा आयोजन संघ के अभ्यास-वर्ग में तब्दील हो गया और एक गांधीवादी के सामने एक प्रचारक ने गांधी को बाकायदा हाइजैक कर लिया। कायदे से सवाल प्रचारक से नहीं, कुमार प्रशान्त से बनता था कि हिंदू राष्ट्रवाद के मुकाबले गांधी के राष्ट्रवाद को वे कैसे डिफेंड करेंगे जब गांधी ही संघ के हाथों उनकी आंखों के सामने लुटे जा रहे हैं।
सदन में एक किस्म के श्रोता होने का लाभ कुमार प्रशान्त को मिला जिससे वे प्रचारक के प्रति लगातार उपेक्षा व हेयता के भाव में ऐंठे रहे जबकि उपाध्याय बिना ठिठके लगातार अपना प्रचार करते रहे।
इन्हीं कुमार प्रशान्त के गांधी शांति प्रतिष्ठान में कुछ दिनों पहले रणवीर सेना के ब्रह्मेश्वर मुखिया को श्रद्धांजलि देने के लिए सभा रखी गई थी। गांधी के नाम पर बने संस्थानों में ऐसे आयोजन होने देना और फिर गांधी के राष्ट्रवाद को संघ के मुकाबले खड़ा करना क्या सुविधाजनक पाखण्ड नहीं है? मुझे शक़ है कि गांधी का कथित राष्ट्रवाद कहीं हिंदू राष्ट्रवाद का ही एक अंश तो नहीं? आखिर क्यों प्रचारक उपाध्याय और गांधीवादी प्रशान्त बहस के आरंभ में ही एक बात पर सहमत हो गए कि असल मामला सिर्फ राष्ट्र का है, राष्ट्रवाद का नहीं? दोनों ‘वाद’ से मुक्ति की बात कर रहे थे? अगर पैनल में कोई वाम रुझान का व्यक्ति होता तो क्या दोनों मिलकर उसे मौखिक रूप से लिंच कर देते?
बहुत संभव है, क्योंकि आधा घंटा हाथ उठाए रखने के बाद भी जब मुझे सवाल पूछने का मौका दिए बगैर नग़मा ने आखिरी सवाल कह कर मामला लपेटने की कोशिश की और मैंने थोड़ा तेज़ आवाज़ में प्रतिवाद करते हुए सवाल पूछ दिया, तो कुमार प्रशान्त बोले- मेरे इतना बोलने के बाद भी आपको अगर मेरी बात समझ में नहीं आई तो मैं कुछ नहीं कहूंगा। किसी संघ प्रचारक के सामने बैठा गांधीवादी क्या आप्तवचन बोलता है कि उससे एक बार में सहमत हो जाया जाए? क्या यह विकल्प की दिक्कत है कि आपको ऐसे किसी आयोजन में एक संघी विमर्शकार के विरोध में जलेबी छानने वाले किसी ऐसे गांधीवादी से जबरन सहमत होना पड़े जो मानकर चल रहा हो कि उसका एक बार का कहा ही किसी को कन्विंस करने के लिए पर्याप्त है? हो सकता है कि कुमार प्रशान्त राष्ट्रवाद पर कुछ समझ रखते हों, अकेले में कभी बात करूंगा, लेकिन इतना गुरु गंभीर विषय चुन कर उसे संघी प्रहसन में तब्दील कर देने वाले मॉडरेटर और असहमति के स्वर को चुप कराने के लिए चीखने वाले अभिनंदन सेकरी जैसे अपढ़ अंग्रेज़ीदा प्रबंधकों को मैं ज्यादा दोष दूंगा कि उन्होंने एक प्रचारक को अनावश्यक इतना माइलेज क्यों दिया। संपादक अतुल चौरसिया ने हस्तक्षेप कर के मामले को संभालने की कोशिश की, लेकिन प्रोग्राम का टोन ही गलत सेट हो चुका था। कोई क्या करता।
संघ के हिंदू राष्ट्रवाद पर बात करना इतना भी आसान नहीं है जितना प्रबुद्धजन समझते हैं। काउंटर-नैरेटिव को तो छोड़ ही दीजिए। मुझे लगता है कि हम लोगों ने संघियों को मूर्खता का पर्याय मानकर और खुद को पढ़ा-लिखा मानकर अब तक बहुत बड़ी गलती की है। एक बार को मैं संघ के आदमी को रियायत दे दूंगा क्योंकि उसकी निष्ठा कम से कम अपने संगठन के साथ तो है। गांधीवादी को किस बात की रियायत दूं? केवल इसलिए कि गांधी को गोडसे ने मार दिया? या इसलिए कि गांधी के नाम पर बने संस्थानों पर उनकी बपौती चलती है? सवाल है कि मैं उन्हें रियायत क्यों दूं? यह भ्रम फैलाने के लिए कि गांधी का राष्ट्रवाद और हिंद स्वराज ही संघ की काट है, जबकि संघ का आदमी गांधी को ही उद्धृत कर के अपना काम चलाए जाता है?
ख़तरा संघ से उतना नहीं है। असल ख़तरा उनसे है जो सार्वजनिक मंचों पर संघ का मज़ाक उड़ाते हुए फर्जी नुस्खे देने में जुटे रहते हैं और बपौती के संस्थानों का सुख भोगते हुए वहां गोडसे के वंशजों को जगह देते हैं। इन दोनों से भी ज्यादा खत़रा उन अपढ़ और अधपढ़ पत्रकारों-प्रबंधकों से है जो राष्ट्रवाद का ‘र’ भी नहीं जानते और रौरव मचाए रहते हैं।
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Web Title: I doubt if Gandhi's so-called nationalism is a part of Hindu nationalism.


