अज्ञानता ही आदमी को संघी बनाती है, भले ही वो कम्युनिस्ट पार्टी का काडर क्यों न हो
अज्ञानता ही आदमी को संघी बनाती है, भले ही वो कम्युनिस्ट पार्टी का काडर क्यों न हो

अभिषेक श्रीवास्तव (Abhishek Shrivastava), जनपक्षधर, यायावरी प्रवृत्ति के वरिष्ठ पत्रकार हैं। उनकी शिक्षा दीक्षा आईआईएमसी में हुई है
अभिषेक श्रीवास्तव
दक्षिणपंथी तर्क पद्धति में फंसना बहुत आसान होता है। इसके लिए कुछ सायास करने की ज़रूरत नहीं। बस बुरा मान जाना काफी है। अच्छे से अच्छे तर्कशील की जब सुलगती है, तो उसका संघी बाहर आ जाता है। कैसे? एक ताज़ा उदाहरण लीजियेगा। आम तौर से वामपंथियों का मज़ाक यह कह कर संघी उड़ाते रहे हैं कि इनका सब कुछ विदेशी है। मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, माओ, ग्राम्शी... सब विदेशी। देश में इन्हें कुछ दिखता ही नहीं। मास्को में बारिश होती है तो यहां छाता खोल लेते हैं- बहुत पुराना लतीफ़ा है। जेएनयू में परिषद वाले नारा लगाते थे- हो हो हो ची मीन, भारत छोड़ो जाओ चीन!
हिंदी के खांटी वामपंथी की इस आरोप से बहुत सुलगती है। उसके भीतर ज़बरदस्त कुंठा होती है कि एक तो अंग्रेज़ी कायदे से समझ नहीं आती, दूजे ये साले विदेशी विचारधारा कह कर जले पर नमक छिड़कते हैं। यह कुंठा इतनी गहरी होती है कि जब उसके खेमे का ही कोई साथी उसे कुछ बेहतर पढ़ने लिखने की सलाह देता है, तो वह जलभुन जाता है और अंग्रेज़ी नाम टपकाने के नाम पर अपने साथी का ही मज़ाक उड़ा देता है। वह तुरंत विदेशी नामों की मौज लेते हुए प्रेमचंद के यहां पहुंच जाता है। इस तरह एक वामपंथी अपने भीतर के ज़हर से दूषित होकर संघी ज़बान बोलने लगता है।
फ़र्ज़ ये कि हिंदी प्रदेश के वामपंथियों में संघियों की तादाद पर्याप्त है। इन्हें इनकी भाषा से पहचानिए। इनके तर्क से पहचानिए। ये कूपमंडूक लोग संघियों को थाल में सजाकर सब दे देंगे। अज्ञानता ही आदमी को संघी बनाती है, भले ही वो कम्युनिस्ट पार्टी का काडर क्यों न हो। तमगा ज़रूरी नहीं। संगठन भी नहीं। ज्ञान प्राथमिक है। किताबें पढ़िए। लेखक की नस्ल मत जांचिए। यह काम संघ का है। उसे ही करने दीजिए।
Web Title : Ignorance makes a man a Sanghi, even if he is a cadre of the Communist Party


