• भारतीय राजनीति में विकल्पहीनता: मनुस्मृति एजेंडा और जनता का संकट

    • भारतीय राजनीति में मनुस्मृति एजेंडा
    • पलाश विश्वास का राजनीतिक विश्लेषण
    • क्या भारत में लोकतंत्र विकल्पहीन हो गया है
    • वामपंथ के अवसान के बाद भारतीय राजनीति
    • बहुजनों की राजनीति और सत्ता समीकरण
    • मनुस्मृति राज और जनता का दमन
    • भारत में धर्म जाति आधारित राजनीति का संकट
    • वाम शासन से लेकर वर्तमान तक का सत्ता चरित्र
    • जनता के हकहकूक पर कुठाराघात और लोकतंत्र

    क्यों भारतीय लोकतंत्र विकल्पहीन होता जा रहा है

    पलाश विश्वास का विश्लेषण: भारत की राजनीति अब विचारधारा से खाली है। सत्ता बदलती है लेकिन मनुस्मृति एजेंडा जस का तस, जनता के पास विकल्प नहीं।

पलाश विश्वास

फिलवक्त पक्ष प्रतिपक्ष दोनों हिंदुत्व का मनुस्मृति पुनरूत्थान का मुक्तबाजार है। सूबे की सरकारें संघ परिवार की नहीं भी बनीं तो हालात में फर्क नहीं पड़ने वाला है क्योंकि सूबे का राजकाज सिरे से केंद्र की मेहरबानी है और सूबे में सरकार चाहे किसी की बने, केंद्र के साथ उसके नत्थी हो जाने और उसके जरिये केंद्र का केसरिया एजंडा पूरा होते रहने का सिलसिला जारी रहना नियति है।

मसलन ममता बनर्जी हो या अखिलेश यादव या बीजू पटनायक हो या चंद्रबाबू नायडु या हरीश रावत, आम जनता के हकहकूक पर कुठाराघात और आम जनता के विरोध के अधिकार, मौलिक अधिकारों पर कुठाराघात या जल जमीन जंगल आजीविका से बेदखली और अंधाधुंध शहरीकरण और अंधाधुंध औद्योगीकरण के एजंडा जस का तस रहना है। बहुजनों का दमन सर्वत्र है। स्त्री के विरुद्ध अत्याचार सुनामी सर्वत्र है। सर्वत्र मेहनतकशों का एक समान सफाया है। युवा हाथ सर्वत्र बेरोजगार हैं।

गौरतलब है कि बंगाल में 35 साल तक वाम शासन के दौरान भी सत्ता और राष्ट्र के चरित्र में बुनियादी परिवर्तन आया नहीं है या फिर बहन मायावती के चार चार बार यूपी के मुख्यमंत्री बन जाने से न अंबेडकर का मिशन तेज हुआ है और न मनुस्मृति राजकाज पर कोई अंकुश लगा है।

गौरतलब है कि 1914 से पहले 1991 के बाद बनी तमाम सरकारें अल्मत सरकारें रही हैं। संसद में हाल में हाशिये पर जाने वाला वाम भी लंबे समय तक कमसकम मनमोहन राजकाज के दस साल तक निर्णायक भी रहे हैं, लेकिन जनविरोधी नीतियों और कानून सर्वदलीय सहमति से बनते रहे हैं। संसद और केंद्रीय मंत्रिमंडल तक को हाशिये पर रखकर राजकाज जारी है और हम इसे अभी भी लोकतंत्र कह रहे हैं।

अब राजनीति न कोई विचारधारा है, न बदलाव के ख्वाब है राजनीति और न उसमें जनता की आशा आकांक्षाओं की कोई छाप है।

धनबल बाहुबल की राजनीति विशुध जाति धर्म का समीकरण है जो साध लें , वही सिकंदर है। यह बेहद खतरनाक स्थिति है कि आम जनता के पास कोई विकल्प नहीं है।

लोकतंत्र में बहुमत अभिशाप बन गया है।

जर्मनी ने इस बहुमत का मोल चुकाया है।

अब अमेरिका की बारी है।

हम आजादी के पहले दिन से किश्त दर किश्त मोल चुका रहे हैं।

शासकों को बदल डालने की गरज से हम पुराने या फिर नये शासक पहले से भी खराब चुन रहे हैं। वाम अवसान के बाद का परिवर्तन वही साबित हुआ है।

यूपी बिहार में सत्ता में बहुजनों की भागेदारी और बाकी देश में भी तमाम बहुजन सत्ता सिपाहसालार लेकिन न अस्पृश्यता खत्म हुई है और न जाति धर्म लिंग नस्ल के आधार पर भेदभाव खत्म हुआ है क्योंकि राजनीति में सिर्फ चेहरे बदल रहे हैं, सत्ता समीकरण बदल रहा है , बाकी तंत्र मंत्र यंत्र और हिंदुत्व का एजेंडा वही है, जिसके तहत भारत का विभाजन हो गया और बंटवारे का सिलसिला अब भी जारी है।