जलियाँवाला बाग़ जनसंहार (Jallianwala Bagh Massacre) से हो गयी थी अंग्रेजी राज के पतन की शुरूआत

इंदौर 24 अप्रैल, 2019 (मृगेन्द्र सिंह). 13 अप्रैल 1919 की तारीख हमें अंग्रेजों के दमन के साथ ही ब्रिटिश शासन की हैवानियत (brutality of British rule) का घिनौना स्वरूप दिखाती है। जलियांवाला बाग हत्या काण्ड (Jallianwala Bagh massacre) को सौ साल पूरे हो चुके हैं। लेकिन जलियाँवाला बाग़ की याद आज भी हमारे अंदर सिरहन पैदा कर देती है।

जलियांवाला बाग हत्याकांड पूरे स्वतंत्रता संग्राम की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। संदर्भ केंद्र की बीसवीं सालगिरह के मौके पर इंदौर के ओसीसी होम में 18 अप्रैल, 2019 को "जलियाँवाला बाग़ जनसंहार और आज़ादी के आंदोलन पर उसका असर" विषय पर परिचर्चा आयोजित की गयी। जलियांवाला बाग जनसंहार के सौ बरस पूरे होने के अवसर पर आयोजित इस परिचर्चा में वरिष्ठ अर्थशास्त्री जया मेहता ने इस हत्याकांड के पूर्व में मौजूद भारत, इंग्लॅण्ड, और पंजाब की आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक परिस्थितयों का विश्लेषण प्रस्तुत किया।

जया मेहता ने बताया कि ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company) ने 1849 में पंजाब को अपने मातहत कर लिया था। अंग्रेज़ों ने ही पंजाब में नहरों का निर्माण किया, परिवहन सुविधाओं को बढ़ाया, जिससे कृषि उत्पादन बढ़ा और व्यापार भी बढ़ा। इससे ज़मींदारों और बड़े किसानों को मुनाफा होने लगा तथा स्थानीय व्यापारी भी लाभान्वित हुए। लेकिन उनका मकसद पंजाब का विकास नहीं, बल्कि इंग्लैंड औद्योगिक उत्पादन के लिए कच्चा माल उत्पादित करना था। पंजाब की उपज इंग्लैंड जाने लगी और इंग्लैंड का सामान पंजाब में बिकने लगा। और जगहों की तरह ही अंग्रेज़ों ने अपने सामान की खरीद सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय उत्पादन को दबाया। इससे कश्मीरी मुस्लिम कारीगरों का काम लगभग ख़त्म हो गया।

लेकिन पंजाब के जिस तबके को अंग्रेज़ों की नीतियों से लाभ मिल रहा था, उसका ग्राफ भी पहले विश्व युद्ध की शुरुआत के साथ नीचे जाने लगा। विश्व युद्ध की वजह से टैक्स बढ़ा दिए गए थे, जिससे जनता महंगाई से त्रस्त थी। प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश सेना में पूरे भारत में सबसे ज्यादा सिपाही पंजाब से थे। सन 1919 में युद्ध समाप्ति पर जब सिपाही लौट कर आए तो उन्होंने पाया कि वे जो खुशहाल पंजाब छोड़कर गए थे, वहां किसान, व्यापारी, दस्तकार सब बर्बाद हो चुके थे और मज़दूरों में बेरोज़गारी चरम पर थी। चावल की कीमतें 5 गुना बढ़ गई थीं, रबी फसलों पर सौ प्रतिशत टैक्स लगा दिया गया। गरीब, मजदूर, कारीगर खाने को तरसने लगे। यह हाल पूरे देश का था लेकिन पंजाब उससे बहुत ज्यादा प्रभावित हुआ।

उसी दौरान रूस की क्रांति हुई थी जिससे पूरी दुनिया में क्रांति का संदेश गया था। भारत में न सिर्फ उससे क्रांतिकारी प्रभावित थे बल्कि आम मेहनतकशों और मज़दूरों में ये विश्वास जन्मा कि मज़दूरों का राज भी कायम हो सकता है और हमें राजा-महाराजाओं, रानियों और पूंजीपतियों के भरोसे ही अपनी ज़िंदगी जीने की ज़रूरत नहीं है।

युद्ध के दौरान ब्रिटिश शासन ने जो सख्त कानून बनाये थे, युद्ध की समाप्ति के बाद लोगों को उम्मीद थी कि उन्हें थोड़ी राहत मिलेगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता देख लोगों के हर तबके में असंतोष बढ़ने लगा। उस असंतोष को कुचलना अँगरेज़ शासन को जारी रखने के लिए बहुत ज़रूरी था। जनता का दमन करने और प्रतिरोध की हर आवाज को दबाने के लिए अंग्रेज सरकार काला कानून रॉलेट एक्ट लेकर आई।

रॉलेट एक्ट का विवरण देते हुए अगले वक्ता एप्सो सचिव अरविन्द पोरवाल ने बताया कि रॉलेट एक्ट की भूमिका में क्रांतिकारियों की गतिविधियों को आतंकवादी और ब्रिटिश राज के लिए खतरा मानते हुए उदाहरण दिए गए थे कि ऐसा कानून बहुत जरूरी है जिसमें पुलिस के तथा सेना के पास असीमित अधिकार हों। पंजाब और बंगाल में क्रांतिकारी सक्रिय थे। इसके पहले गदर आंदोलन हो चुका था। उन मामलों में जो भी पकडे जाते थे वे सबूतों के आभाव में छूट जाते थे। सरकार को डर था कि कहीं फिर क्रांतिकारी गतिविधियां शुरू हो गई तो सम्हालना मुश्किल होगा।

रॉलेट एक्ट के तहत किसी भी व्यक्ति के ऊपर शक के आधार पर राजद्रोह, राष्ट्रद्रोह, उपद्रवी का मामला दर्ज कर उसे 2 साल तक बिना सुनवाई जेल में रखा जा सकता था। प्रेस पर प्रतिबंधात्मक प्रावधान भी इस कानून में थे। जनता को प्रदर्शन या अपनी आवाज बुलंद करने का कोई अधिकार ही नहीं था ।

इस काले कानून का विरोध महात्मा गांधी के नेतृत्व में पूरे देश में हुआ। पंजाब में इस एक्ट का विरोध करते हुए कांग्रेस नेता सैफुद्दीन किचलू और डॉ सतपाल को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें देश के बाहर भेज दिया गया। इसके विरोध में अमृतसर में भी बड़े पैमाने पर लोगों ने प्रदर्शन किया जिस पर अँगरेज़ पुलिस ने गोलाबारी की और 6 आम नागरिक मारे गए। इससे उत्तेजित होकर लोगों ने भी अँगरेज़ ठिकानों पर, बैंकों और पुलिस चौकियों पर हमला बोल दिया। नतीजतन पांच अंग्रेज़ भी मारे गये। ब्रिटिश सरकार ने पूरे पंजाब में कर्फ्यू लगा दिया।

इस अवसर पर हरेराम वाजपेयी सुभद्राकुमारी चौहान की जलियाँ वाला बाग़ पर लिखी कविता का पाठ किया।

विश्वस्तरीय फिल्म "गाँधी" से और "खूनी बैसाखी" वृत्तचित्र से जलियांवाला बाग़ हत्याकांड की घटना के दृश्य दिखाते हुए प्रलेस के राष्ट्रीय सचिव विनीत तिवारी ने कहा कि हिंदू-मुस्लिम-सिख साथ में मिलकर आंदोलन कर रहे थे।

उन्होंने बताया कि अँगरेज़ जनरल डायर ने हुक्म निकाला था कि लोग यूनियन जैक के सामने घुटनों पर झुककर सलाम करें और जिस गली में एक अँगरेज़ औरत मार्सेला रोज़वुड पर हमला हुआ था, उस गली में से गुजरने पर लोग अपनी कोहनी और घुटनों के बल रेंगते हुए निकलें। हालाँकि उस अँगरेज़ महिला को बचाने वाले भारतीय ही थे। उस गली का नाम आज तक क्रॉलिंग (रेंगना) लेन ही है। ऐसे फरमान लोगों को अपमानित करने और सबक सिखाने के मकसद से निकाले गए थे।

9 अप्रैल, 1919 को रामनवमी के दिन पहली बार मुस्लिम भी भारी तादाद में शरीक हुए जो हिंदू-मुस्लिम एकता का एक मजबूत उदाहरण था। हिन्दू - मुस्लिम और सिखों की एकता से अँगरेज़ वाइसराय और गवर्नर को 1857 जैसी बगावत का अंदेशा होने लगा। अंग्रेज सरकार पूरी तरह से घबराई हुई थी। दमन चलता रहा और प्रदर्शन होते गए।

कुछ दिनों से सरकार अमृतसर शहर के इलाकों में मुनादी करवा रही थी कि लोग कहीं भी इकट्ठे नहीं हो सकते, घरों से न निकलें, सिपाही चेतावनी दे रहे थे कि शहर में कर्फ्यू लगा है। लोग इस पर यक़ीन नहीं कर रहे थे कि उन्हें बैसाखी मनाने से रोका जा सकता है। मुनादी करने वालों के पीछे-पीछे नौजवान हँसते हुए टिन बजाते जाते थे। सामूहिकता ने जनता में जोश भर दिया था और वे लोग अंग्रज़ों के हुक्म मानने के लिए राजी नहीं थे।

बैसाखी 13 अप्रैल को थी। फ़िल्म में दिखाया गया कि कैसे उत्साहित होकर बच्चे अपनी माँ का हांथ थामे, पिता के कांधे पर सवार होकर बाग़ में प्रवेश कर रहे थे। भीड़ हजारों की तादाद में इकट्ठा हो गई। शांतिपूर्ण ढंग से सभा चल ही रही थी कि जनरल डायर ने 90 सैनिकों के साथ बाग़ में प्रवेश किया और सैनिकों को फायरिंग का आदेश दिया; हजारों निहत्थे बच्चे, बूढ़े, जवान, औरतें बिना किसी चेतावनी के मारे गए। उस दौरान लगभग 1650 गोलियां चली और एक हजार लोग मारे गए। स्थानीय लोगों का मानना है कि 2000 लोग मारे गए और घायल भी हुए।

फिल्म के ज़रिए जनरल डायर की नृशंसता तब और व्यक्त होती है जब वो हंटर कमीशन में सवाल का जवाब देते हुए कहता है कि घायलों को अस्पताल पहुँचाना उसका काम नहीं था और अगर उसके सैनिकों के पास और गोलियाँ होतीं तो वो उन्हें भी लोगों पर चलवाता। इस हत्याकांड में 6 माह के बच्चे से लेकर उम्रदराज़ औरतें, बूढ़े भी मारे गए और बाग में मौजूद कुआं लाशों से पट गया।

विनीत ने बताया कि जनरल डायर को इतने लोगों को मारने का कोई अफसोस नही था। दुनिया भर में निंदा होने से डायर को इंग्लैंड भेज दिया लेकिन उसे कोई सज़ा नहीं हुई। उल्टे बहुत से अंग्रेज़ उसे हीरो मानते थे जिसने हिंदुस्तानियों को बहादुरी से अच्छा सबक सिखाया।

ऊधम सिंह ने इस खूनी खेल को अपनी आंखों से देखा और जनरल डायर को मारने की कसम खाई। जब ऊधम सिंह इंग्लैंड पहुंचे तब तक डायर बीमार होकर मर चुका था। बाद में इस हत्याकांड को शाह देने वाले लेफिटनेंट गवर्नर माइकल ओ डॉयर का कत्ल किया।

उन्होंने कहा कि ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में बना कानून आजाद भारत में रोलेट एक्ट की तरह कायम है। जिसका शिकार समय-समय पर कोई न कोई होता है। जो भी सरकार की ग़लत नीतियों के खिलाफ आवाज उठाता है, उसे शक के दायरे पर राजद्रोह के नाम पर जेल में ठूंस दिया जाता है और जिसकी कहीं सुनवाई नहीं होती। हमारे सामने कई उदाहरण हैं। आज भी लोग बंद हैं और इसके पहले हमने देखा कि यूपी के चंद्रशेखर रावण को कैसे साल भर तक राष्ट्रीय सुरक्षा कानून का दुरूपयोग करके जेल में डाले रखा। उत्तरपूर्व के राज्यों और कश्मीर में आफ्सपा कानून लागू है। ऐसे कानून लोकतंत्र और आज़ादी के नाम पर धब्बा हैं।

रुद्रपाल यादव ने कहा कि इंदौर सहित अनेक शहरों में पूरे साल धारा 144 लगी रहती है। यह भी नागरिक अधिकारों का हनन है। इसी तरह धारा 151 किसी के भी खिलाफ बिना किसी वाजिब वजह के इस्तेमाल की जाती है।

कार्यक्रम में आलोक खरे, प्रदीप नवीन, प्रणोद बागड़ी, ऋचा, अशोक दुबे, रुखसाना, अनुप्रिया, योगेंद्र महावर, स्वाति, अमानत अली आदि ने भागीदारी की और इस बात की आलोचना की कि जलियांवाला बाग में मारे गए लोगों को आज तक शहीद का दर्जा नहीं दिया गया है। सभी ने सर्वसम्मति से जलियाँवाला बाग़ के मृतकों को शहीद का दर्जा देने की माँग की।