संघर्ष से तिकड़म तक : नारों का बदलता स्वरूप

  • नए मतवाले और उनका दीवानापन
  • सामाजिक-राजनीतिक सचेतनता से कैरियरवाद तक
  • स्वाधीनता संग्राम और नए पीढ़ी की उदासीनता
  • चमक-दमक और उपभोक्तावादी संस्कृति का आकर्षण
  • साहित्यिक गतिविधियां और छोटे समूहों की मानसिकता

धर्मनिरपेक्षता बनाम साम्प्रदायिक कॉमनसेंस

अपने लेख ‘जीना है तो तिकड़म सीखो’ में जगदीश्वर चतुर्वेदी नई पीढ़ी की मानसिकता पर सवाल उठाते हैं। वे बताते हैं कि कैसे संघर्ष और मूल्यों से दूर होकर आज का मतवाला वर्ग तिकड़म, कैरियरवाद, उपभोक्तावाद और साम्प्रदायिक कॉमनसेंस में डूबा हुआ है...

'जीना है तो तिकड़म सीखो।'

जगदीश्वर चतुर्वेदी

एक जमाना था नारा लगता था 'जीना है तो मरना सीखो, कदम-कदम पर लड़ना सीखो। 'लेकिन अब यह नारा कहीं गुम हो गया है। अब तो एक ही नारा है 'जीना है तो तिकड़म सीखो।'

तिकड़म की कला में जो लोग पलकर बड़े हुए हैं वे इन दिनों मतवालों की तरह घूम रहे हैं। वे सारी दुनिया से बेखबर हैं। उनकी चिंता में फेसबुक है, चैटिंग है, फिल्मों की गॉसिप है, लुभावने रसीले किस्से हैं। वे मोदी के दीवाने हैं, कॉरपोरेट कल्चर के फेन हैं। उनको अन्ना अच्छा लगता है क्योंकि वो हर आंदोलन को टीवी इवेंट बनाता है।

वे संघर्ष को टीवी इवेंट के रुप में देखना पसंद करते हैं। लेकिन आश्चर्यजनक बात है कि इन दीवानों को अफगानिस्तान, श्रीलंका, इराक आदि के कत्लेआम प्रभावित नहीं करते। वह तो यही मानकर चल रहे हैं कि इस्लामिक देशों में तो हिंसाचार आम बात है। मुसलमानों को तो लड़ लड़कर मर जाना चाहिए। उसे इससे भी कोई लेना देना नहीं है कि आर्थिक मंदी से कौन कितना प्रभावित हो रहा है। वह तो अपने कैरियर और कम्पटीशन की तैयारी के अंग के रुप में मंदी और अन्य सामयिक खबरों पर नजर रखे हुए है। क्योंकि उसे अपडेट रखना है, कहीं पेपर खराब न हो जाए। यानी सामाजिक-राजनीतिक सचेतनता अब उसके संघर्ष का नहीं कैरियर का हिस्सा है।

नए मतवालों के लिए स्वाधीनता संग्राम का किस्सागोई से ज्यादा कोई महत्व नहीं है। वे उस दौर के स्कैंडल में रस लेते हैं। इन मतवालों को स्वाधीनता संग्राम के मूल्य प्रभावित नहीं करते बल्कि इनकी रुचि तो स्वाधीनता आंदोलन के इतर प्रसंगों में है। वह स्वाधीनता संग्राम का मतलब नेहरू-गांधी के किस्से मानता है और भगत सिंह आदि उसे भटके हुए युवक नजर आते हैं।

यह ऐसा मतवाला है जिसे मूल्य नहीं, सड़कें,चमकदार भवन, मीडिया की सुर्खियां, सत्ता की कुर्सियां, कंपनी के टर्नओवर और नए-नए गैजेट अपील करते हैं। वह नई फैशन पर फिदा है। उनकी चाल निराली है। वह पढ़ता है लेकिन किताबें कम और कम्पटीशन मास्टर टाइप चीजें ज्यादा पढ़ता है। बेस्टसेलर उसकी पहली पसंद है।

वह शिक्षित है, लेकिन अन्य के लिए अपनी शिक्षा का कोई इस्तेमाल नहीं करना चाहता। उसको नौकरी चाहिए लेकिन गांवों में नहीं। इनमें से अनेक को टीचिंग में नौकरी चाहिए लेकिन शहरों में। यह ऐसा दीवाना है जो शहरों के अलावा अन्यत्र नहीं रहना चाहता। फैशन और स्टाइल का यह वर्ग दीवाना है। इसमें से कुछ लोग हिन्दी साहित्य में भी आ रहे हैं। जमकर कविता-कहानी-उपन्यास भी लिख रहे हैं। लेकिन छोटे छोटे दायरों में मित्रमंडली बनाकर जीना इसकी नई प्रथा है। वह साहित्यिक हो या मतवाला हो, सब अपने छोटे समूहों में मगन होकर रह रहे हैं। बड़े मित्र समूहों और संघर्षशील संगठनों की चौपालें और हरकतें म्यूजियम की चीजें हो गयी हैं।

नए मतवाले धर्म से मुक्त हैं, लेकिन साम्प्रदायिक चेतना से लैस हैं। ये साम्प्रदायिक प्रचार की कॉमनसेंस बातों को सच्चे विचार मानकर विश्वास करते हैं। साम्प्रदायिक कॉमनसेंस में आस्थावान होने के कारण वह अब हर चीज को इस कॉमनसेंस के आधार पर छानने-फटकने लगे हैं। शादी करने से लेकर वोट देने तक साम्प्रदायिक चेतना उसके स्वभाव को निर्धारित करती है। यह ऐसा व्यक्ति है जो स्वभाव से सरल है और विचार से साम्प्रदायिक है।