न्यायपालिका का भी कुछ कम ‘योगदान’ नहीं अयोध्या मामला उलझाये रखने में
न्यायपालिका का भी कुछ कम ‘योगदान’ नहीं अयोध्या मामला उलझाये रखने में

Babri Masjid. (File Photo: IANS)
अयोध्या मामला उलझाये रखने में न्यायपालिका का योगदान
मानना पड़ेगा कि बार-बार रुलाने वाली देश की थकाऊ, उबाऊ और अभिजात व अमीरपरस्त न्यायप्रणाली (Judicial system) के प्रति देशवासियों में अभी भी गजब का विश्वास है। बाबरी मस्जिद के ध्वंस की साजिश को लेकर लालकृष्ण आडवानी, मुरली मनोहर जोशी व उमा भारती समेत कोई दर्जन भर विहिप-भाजपा नेताओं के खिलाफ मुकदमा चलाने के सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर व्यक्त की जा रही प्रतिक्रियाएं भी इस विश्वास को अगाध बनाने वाली ही हैं।
इस विश्वास का अतिरेक ही है कि लोग एक झटके में भूल गये हैं कि न सिर्फ इस ध्वंस, बल्कि समूचे अयोध्या मामले को लम्बे वक्त तक उलझाये रखने में राज्य के बाकी दो स्तम्भों कार्यपालिका व विधायिका की तरह ही न्यायपालिका का भी कुछ कम ‘योगदान’ नहीं है।
एक फरवरी, 1986 के फैजाबाद की जिला अदालत के विवादित भवन का ताला खोलने के आदेश से लेकर विवादित स्थल के स्वामित्व निर्धारण पर उच्च न्यायालय के 30 सितम्बर, 2010 के फैसले तक जहां इस ‘योगदान’ की कई मिसालें हैं। वहीं याद रखने की एक बात यह भी है कि जो नेता अब साजिश रचने के अभियुक्त हैं और जो एक वक्त इस बाबत फैसले के अदालतों के अधिकार पर उंगली उठाते रहे हैं। ध्वंस के वक्त उन्होंने यह भी कहा था कि उनकी प्रस्तावित कारसेवा की बाबत समय रहते फैसला हो जाता तो जो ध्वंस हुआ, वह होता ही नहीं।
तिस पर इस आदेश का दूसरा पहलू देखिये:
एक तो यह ध्वंस की चौथाई सदी गुजर जाने यानि देश की नदियों में ढेर सारा पानी बह चुकने के बाद आया है।
तब, जब स्थितियां इतनी बदल चुकी हैं कि ध्वंस के कई अभियुक्त इस दुनिया में ही नहीं रहे और कई अन्य उसे मुद्दा बनाकर इतनी शक्ति व सामथ्र्य अर्जित कर चुके हैं कि चित और पट दोनों उन्हीं की होकर रह जायें!
जानकारों की मानें तो वे इस पुरानी कहावत को कि ‘न्याय में देरी न्याय से इन्कार करने के बराबर होता है’, ‘देर भी और अंधेर भी’ की हिमाकत तक ले जा सकते हैं।
इसे समझने के लिए जानना चाहिए कि जिन दिनों सीबीआई इस मामले की जांच कर रही थी, अटल के गृहमंत्री के तौर पर लालकृष्ण आडवानी लम्बे अरसे तक उसकी रीति-नीति तय करते रहे थे और उनकी जमातों को इसमें कुछ भी अनैतिक या अनुचित नहीं लगा था।
अखबारों में छपी खबरों की गवाही मानें तो उन्होंने उन्हीं दिनों अपने बचाव के लगभग सारे इंतजाम कर लिए थे।
उन दिनों मुरली मनोहर जोशी उनसे अंदर ही अंदर बेहद नाराज थे कि जिस गृहमंत्रालय ने आडवानी को बचाने में पूरी शक्ति लगा दी, उसने उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया। ऐसे में भले ही सीबीआई ने खुद सर्वोच्च न्यायालय में आडवानी के खिलाफ मुकदमे की मांग की हो, सबसे बड़ा सवाल यही है कि वह नेकनीयती से अदालत में उनके खिलाफ सारे सबूत पेश करेगी या नहीं?
अगर, जैसा कि उसके बारे में कहा जाता है, वह पिंजरे का तोता है तो इस सवाल के जवाब की सहज ही कल्पना की जा सकती है। ऐसे में मुकदमे का मतलब ही क्या रह जायेगा?
फिर जैसा कि कई हलकों में अंदेशा जताया जा रहा है, दो साल में फैसला सुना देने के सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से नजर बचाने के लिए, किन्हीं ‘अपरिहार्य’ बाधाओं के हवाले से, उसी से और वक्त न मांग लिया जाये और मूलभावना के अनुसार उसका सम्यक अनुपालन सुनिश्चित हो जाये, तो फैसले के वक्त देश अगले लोकसभा चुनाव की सरगर्मियों से गुजर रहा होगा।
ऐसे में तकनीकी आधार पर बचने से रह गये ये नेता, पर्याप्त साक्ष्यों के अभाव में, जिसके सबसे ज्यादा अंदेशे हैं, या किसी और बहाने बरी हो गये तो जताया जायेगा कि न सिर्फ उनके बल्कि समूचे संघ परिवार के अयोध्या में किये सारे पाप (पढ़िये अपराध) धुल गये हैं और उन्होंने गंगा नहा लिया है।
इसके उलट खुदा न खास्ता उन्हें सजाएं हुईं, कल्याण सिंह की तरह प्रतीकात्मक ही सही, तो भी वे उन्हें अपने माथे पर सजाये घूमेंगे।
अभी भी उमा भारती सब कुछ को ठेंगे पर मारती हुई कह रही हैं कि साजिश कैसी, जो कुछ भी हुआ, खुल्लमखुल्ला हुआ था और वे उसके लिए फांसी तक पर लटकने को तैयार हैं, जबकि विनय कटियार कह रहे हैं कि उनके लिए इससे बढक़र खुशी की क्या बात होगी कि उन्हें राममन्दिर के लिए जेल जाना पड़े तो कोई उनका क्या बिगाड़ ले रहा है? तिस पर उनकी राजनीतिक नैतिकता का आलम यह है कि उमा, एक वक्त आडवानी द्वारा हवाला घोटाले में बनाई गई निर्दोष सिद्ध होने तक मंत्री पद छोडऩे की नजीर का भी पालन करने को तैयार नहीं हैं और कल्याण सिंह को अपने खिलाफ आरोप तय होने से बचने के लिए राज्यपाल पद की उन्मुक्तियों का लाभ लेने में कोई हर्ज नहीं दिखता।
तथाकथित अल्पसंख्यक तुष्टिकरण से कहीं ज्यादा बुरा है बहुसंख्यकों का तुष्टिकरण
इन सबके दोनों हाथों में इसलिए भी लड्डू हैं कि खुद को धर्मनिरपेक्षता का अलमबरदार कहने वालों की करनी ने इस पवित्र संवैधानिक मूल्य की ऐसी की तैसी कर रखी है। वे इस कदर अविश्वसनीय हो चले हैं कि अपनी जनता को यह मोटी बात भी नहीं समझा पा रहे कि बहुसंख्यकों का तुष्टिकरण तथाकथित अल्पसंख्यक तुष्टिकरण से कहीं ज्यादा बुरा है। इसलिए इस बहुलवादी देश में विभिन्न समुदायों के बीच जो दुर्भावनाएं कभी-कभी बवंडर की तरह आती थीं, अब मौसम बनती जा रही हैं और परस्पर अविश्वास के चलते उनका प्रतिरोध लगातार मुश्किल होता जा रहा है।
प्रसंगवश, इन नेताओं को जिस तकनीकी आधार पर निजात मिली हुई थी, वह भी उन्हें धर्मनिरपेक्ष राजनीति की बदौलत ही हासिल हुआ था।
मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व वाली तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने बार-बार मांग के बावजूद इस आधार के खात्मे के लिए जरूरी एक अधिसूचना फिर से जारी नहीं की थी।
विडम्बना देखिये कि इस आदेश के सिलसिले में ‘धर्मनिरपेक्ष’ राजनीति का सारा तकिया साम्प्रदायिक सत्ताधीशों के अंतर्विरोधों पर है।
खुद के दिलासे के लिए कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उन लालकृष्ण आडवानी के समक्ष मुश्किलों का पहाड़ खड़ा कर दिया, जिन्होंने एक वक्त उनकी प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी में अड़ंगा लगाने की कोशिश की थी। वे लालू, जो कभी यह कहकर आडवानी की खिल्ली उड़ाते थे कि उनकी कुंडली में प्रधानमंत्री बनने का योग ही नहीं है, कह रहे हैं कि सब कुछ आडवानी को राष्ट्रपति न बनने देने के लिए किया जा रहा है।
दूसरी ओर कई लोग इसकी विरोधी दलीलें भी दे रहे हैं। क्या अर्थ है इसका? सिवा इसके कि ‘उदार’ अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में रथयात्राएं, कारसेवाएं और ध्वंस वगैरह कराने के चलते जो आडवानी कट्टर या अनुदार और इस कारण अस्वीकार्य थे, अब गुजरात के महानायक नरेन्द्र मोदी की अनूठी आक्रामकता के दौर में अटल बिहारी वाजपेयी जैसे उदार व स्वीकार्य हो गये हैं।
ऐसा है तो क्या इस तथ्य को भुला देना चाहिए कि इन सबकी उदारता या अनुदारता का लाभार्थी तो एक ही है, जिसे संघ परिवार कहते हैं?
यह भी कि साम्प्रदायिक फासीवाद और हिन्दूराष्ट्रवाद से न अटल को कोई दिक्कत थी, न मोदी को है और न आडवानी को और इनकी बाबत उनका मुखर या चुप होना उनकी जरूरतों के हिसाब से तय होता रहा है?
यह और बात है कि कभी आडवानी जिन्ना की तारीफ करके ‘फंस’ जाते और मोदी विकास के गुजरात माडल का झांसा देकर पार उतरने में सफल हो जाते हैं।
कृष्ण प्रताप सिंह
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
Web Title: The judiciary has also contributed no less in keeping the Ayodhya case complicated


