कोलेजियम की मर्यादा, न्यायिक स्वतंत्रता और पारदर्शिता पर पूर्व न्यायाधीश अभय एस. ओका का बयान

  • मेरे पिता कभी आरएसएस से जुड़े नहीं थे : न्यायमूर्ति अभय एस. ओका
  • न्यायिक नियुक्तियां और कोलेजियम की चुनौतियां
  • सीजेआई के रिश्तेदार की नियुक्ति पर ओका का मत
  • पारदर्शिता और कोलेजियम में असहमति का महत्व
  • “मेरे पिता आरएसएस से कभी नहीं जुड़े” – ओका की सफाई
  • न्यायपालिका में निष्पक्षता और अनुशासन का महत्व

सुप्रीम कोर्ट सुधार के लिए ओका के तीन सुझाव

सुप्रीम कोर्ट के अवकाशप्राप्त न्यायाधीश जस्टिस अभय एस. ओका ने अपने पिता के आरएसएस से जुड़े होने के दावों का खंडन करते हुए कहा है कि उनके पिता 2017 तक जीवित रहे और 2003 में वे न्यायाधीश बने। उन्होंने अपने बचपन में अपने पिता को किसी भी आरएसएस शाखा में भाग लेते हुए नहीं देखा। अधिकतम, उनके पिता एक या दो ट्रस्टों से जुड़े हो सकते थे जिनसे आरएसएस जुड़ा हुआ था। इसलिए, उनका मानना है कि कोई यह नहीं कह सकता कि उनके पिता आरएसएस के सदस्य थे। वे यह भी कहते हैं कि एक वकील के रूप में उन्होंने लगभग सभी राजनीतिक दलों के लिए पेशी की है और न्यायाधीश बनने के बाद संविधान के तहत शपथ ली है, जिससे उन्हें निष्पक्ष रहने में मदद मिली है।

नई दिल्ली, सितंबर 2025 । सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति अभय एस. ओका (Retired Supreme Court Judge Justice Abhay S. Oka) ने साफ शब्दों में कहा है कि उनके पिता का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) से कोई संबंध नहीं था। उन्होंने न्यायिक नियुक्तियों में कोलेजियम की मर्यादा, न्यायपालिका की स्वतंत्रता और पारदर्शिता जैसे मुद्दों पर खुलकर बात की। उन्होंने सीजेआई जस्टिस बीआर गवई पर भी प्रश्नचिन्ह खड़े किए।

Bar & Bench को दिए गए एक विशेष साक्षात्कार में न्यायमूर्ति ओका ने कहा कि उनकी प्राथमिक शिक्षा वकालत में पिता के चैंबर में हुई, लेकिन बचपन से उन्होंने कभी अपने पिता को आरएसएस की शाखाओं में जाते नहीं देखा।

न्यायिक नियुक्तियां और कोलेजियम की भूमिका

न्यायमूर्ति ओका ने बताया कि हाल के वर्षों में कोलेजियम की अनुशंसाओं को केंद्र सरकार द्वारा मंजूरी देने में लंबी देरी "नियम" बन गई है। लेकिन जुलाई-अगस्त 2025 में बंबई हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के लिए नामों को अभूतपूर्व तेजी से मंजूरी दी गई।

उन्होंने कहा, “अगर यह नई परंपरा बनती है कि कोलेजियम की सिफारिशें 8-10 दिनों में मंजूर हों, तो स्वागत योग्य है। लेकिन अगर यह अपवाद है, तो चिंता का विषय है।”

जस्टिस ओका ने सुझाव दिया कि इस मामले में लंबित अवमानना याचिका पर सुनवाई करके देरी के मुद्दे का समाधान किया जा सकता है।

न्यायपालिका की स्वतंत्रता और पारिवारिक रिश्ते

सीजेआई जस्टिस बीआर गवई के भतीजे की नियुक्ति पर सवालों को लेकर न्यायमूर्ति ओका ने कहा कि यदि कोई उम्मीदवार कोलेजियम सदस्य का करीबी रिश्तेदार है, तो संबंधित न्यायाधीश को प्रक्रिया से अलग हो जाना चाहिए। उन्होंने कहा, “अगर मैं होता, तो अपने भतीजे की नियुक्ति के समय पद पर रहते हुए ऐसा करने से बचता।”

पारदर्शिता और असहमति का अधिकार

हाल ही में कोलेजियम के असहमति नोट (dissent) के सार्वजनिक होने पर उन्होंने कहा कि न्यायपालिका में पारदर्शिता जरूरी है। लेकिन निजी टिप्पणियों को छांटकर ही प्रकाशित किया जाना चाहिए। उन्होंने जोर देकर कहा कि “सच्ची पारदर्शिता वही है जब आप असहमति के आधार पर विस्तार से चर्चा करें और फिर निर्णय लें।”

आरएसएस से संबंधों पर सफाई

जस्टिस ओका से सवाल किया गया कि उनके पिता का आरएसएस से जुड़ाव था। इस पर उन्होंने कहा, “मेरे बचपन से लेकर 2017 में उनकी मृत्यु तक, मैंने उन्हें कभी शाखा जाते नहीं देखा। अधिकतम इतना कहा जा सकता है कि वे किसी ऐसे ट्रस्ट से जुड़े होंगे जिसका आरएसएस से दूर का नाता हो। लेकिन यह कहना कि वे स्वयंसेवक थे, तथ्यात्मक रूप से गलत है।”

एक सवाल के जवाब में जस्टिस ओका ने कहा कि उन्होंने लगभग दो साल ट्रायल कोर्ट में प्रैक्टिस की। यह एक ऐसी अदालत है जहाँ आप बुनियादी बातें सीखते हैं... दलीलें बेहद महत्वपूर्ण होती हैं, क्योंकि पूरी व्यवस्था दलीलों और जिरह की कला पर ही टिकी होती है। इन बुनियादी बातों ने उन्हें हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक एक वकील के रूप में मेरे पूरे करियर में मदद की... उन्होंने कहा, "इसलिए, मैं बार के युवा सदस्यों से हमेशा कहता हूँ कि अगर आप हाई कोर्ट में प्रैक्टिस करना चाहते हैं, तो कम से कम कुछ साल ट्रायल कोर्ट में प्रैक्टिस करना ज़रूरी है।"

न्यायिक निष्पक्षता और अनुशासन

उन्होंने स्पष्ट किया कि जब कोई व्यक्ति न्यायाधीश बनता है तो वह संविधान की शपथ लेता है और व्यक्तिगत झुकाव या विचारधारा के बजाय कानून और संवैधानिक मूल्यों के आधार पर निर्णय करता है।

ओका ने कहा, “जमानत के मामलों में चाहे अपराध गंभीर हो, लेकिन यदि लंबी कैद हो गई है और मुकदमा शुरू नहीं हो रहा, तो अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्ति को राहत देनी ही होगी।”

जस्टिस ओका ने कहा अगर रिकॉर्ड देखें, तो पिछले कई सालों से सुप्रीम कोर्ट की सिफ़ारिशें हमारी वेबसाइट पर मौजूद हैं। इसके अलावा, हमारे पास केंद्र सरकार द्वारा जारी अधिसूचनाओं का रिकॉर्ड भी है, जिनमें हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति की जाती है। अक्सर, आपको 9 महीने, 10 महीने या उससे भी ज़्यादा की देरी देखने को मिलेगी। तो यह अब आम बात हो गई है।

साक्षात्कार में उन्होंने कहा- मैं आपको एक दिलचस्प बात बताता हूँ। 28 जुलाई 2025 को सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने बॉम्बे हाईकोर्ट के जजों के तौर पर नियुक्ति के लिए 3 नामों की सिफ़ारिश की थी। उनके नामों को 13 अगस्त 2025 को, मुश्किल से दो हफ़्ते के भीतर, मंज़ूरी दे दी गई... 19 अगस्त 2025 को सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने बॉम्बे हाईकोर्ट के जजों के तौर पर नियुक्ति के लिए 14 वकीलों के नामों को मंज़ूरी दी।

उन्होंने आगे कहा, सबसे दिलचस्प बात यह है कि... 25 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट के 2 जजों की नियुक्ति की सिफ़ारिश की गई थी। 27 अगस्त को, बॉम्बे हाईकोर्ट के लिए सभी 14 सिफ़ारिशें और सुप्रीम कोर्ट के लिए 2 सिफ़ारिशें मंज़ूर कर ली गईं...

क्या कॉलेजियम और सरकार मिल गए हैं ?

एक प्रश्न के उत्तर में जस्टिस ओका ने साफ कहा- "अपने लंबे अनुभव में, मैंने पहली बार ऐसा होते देखा है कि कॉलेजियम की सिफ़ारिश की तारीख़ और हाईकोर्ट में वास्तविक नियुक्ति की तारीख़ के बीच का समय अंतराल चार महीने से कम हो। मैंने ऐसा पहले कभी नहीं देखा। यह पहली बात है। दूसरी बात, मैंने भारत सरकार को बॉम्बे हाईकोर्ट के जजों की सूची को 8 दिनों के भीतर मंज़ूरी देते कभी नहीं देखा। ऐसा कभी नहीं हुआ। और तीसरी दिलचस्प बात यह है कि सभी 14 नामों को मंज़ूरी दे दी गई। ऐसा भी कभी नहीं हुआ। कुछ नाम आमतौर पर रोक दिए जाते हैं।

अब, मैं बॉम्बे हाईकोर्ट का हिस्सा हूँ। मुझे बहुत खुशी है कि बॉम्बे हाईकोर्ट को ये 14 और 3 जज बहुत जल्दी मिल गए। लेकिन हम यहाँ सिद्धांतों के मुद्दे पर चर्चा कर रहे हैं। 27 अगस्त को, आठ दिनों के भीतर 14 नामों को मंज़ूरी दे दी गई। उस तारीख़ तक, अन्य हाईकोर्ट्स की कई सिफ़ारिशें महीनों से लंबित हैं।

दरअसल, बॉम्बे हाईकोर्ट के लिए आखिरी सिफ़ारिशों में से एक सितंबर 2024 में आई थी। सरकार को उन नामों को मंज़ूरी देने में लगभग 8 महीने लग गए। और मैं समझ सकता हूँ कि बॉम्बे हाईकोर्ट के नामों को तो बड़ी तेज़ी से मंज़ूरी दे दी गई, लेकिन लंबित अन्य सिफ़ारिशों के मामले में भी यही तत्परता दिखाई जा सकती थी।

अगर यह एक नई सामान्य बात बनने जा रही है - सरकार कॉलेजियम द्वारा सुझाए गए सभी नामों को 8 से 10 दिनों के भीतर मंज़ूरी दे रही है - तो इसका स्वागत होना चाहिए। लेकिन अगर यह सामान्य नहीं है, यह कोई नियम नहीं है, यह अपवाद स्वरूप है, तो यह चिंता का विषय है।

अब, कॉलेजियम द्वारा सरकार के साथ इस मामले को उठाने की कुछ सीमाएँ हैं। मुझे लगता है कि सबसे आसान तरीका यह हो सकता है कि बैंगलोर बार एसोसिएशन द्वारा दायर एक अवमानना याचिका लंबित हो, जिसमें वृहद पीठ के दो फ़ैसलों में दिए गए निर्देशों के उल्लंघन का आरोप लगाया गया हो। उस याचिका पर भी न्यायिक पक्ष में विचार किया जा सकता है। दरअसल, मैंने अप्रैल में दिए गए अपने एक फ़ैसले में इस मुद्दे को उठाया था। मैंने सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर प्रकाशित आंकड़ों का हवाला दिया है और बताया है कि इसमें देरी कैसे हो रही है। इसलिए, बेहतर यही होगा कि उस अवमानना याचिका पर सुनवाई की जाए।"

सीजेआई पर उठाए सवाल

जब उनसे सीधा प्रश्न किया गया कि क्या मुख्य न्यायाधीश के पद पर रहते हुए, मुख्य न्यायाधीश गवई के भतीजे राज वाकोडे को बॉम्बे हाई कोर्ट के न्यायाधीश के रूप में मंजूरी देना न्यायिक स्वतंत्रता की धारणा से समझौता नहीं करता?

इस पर जस्टिस ओका ने कहा, "मैं अपने विचार बिल्कुल स्पष्ट कर दूँगा। सबसे पहले, अगर ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है कि किसी उच्च न्यायालय द्वारा किसी ऐसे उम्मीदवार की सिफारिश की जाती है जो मुख्य न्यायाधीश का करीबी रिश्तेदार या सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम का सदस्य या परामर्शदात्री न्यायाधीश है... तो ज़ाहिर है, संबंधित न्यायाधीश को खुद को इस मामले से अलग करना होगा। अगर कोई वास्तव में योग्य उम्मीदवार है, तो सवाल यह है कि क्या न्यायपालिका को उससे वंचित किया जाना चाहिए। लेकिन तब इस मामले में मुख्य न्यायाधीश को खुद को अलग कर लेना चाहिए था। मुझे नहीं पता कि उन्होंने खुद को अलग किया है या नहीं और फिर उन्हें एक और वरिष्ठ न्यायाधीश को जोड़कर कॉलेजियम का विस्तार करना चाहिए था। दूसरी बात, बातचीत भी नवगठित कॉलेजियम के साथ होनी चाहिए थी... यह कानूनी पहलू है।"

उन्होंने कहा "दूसरा मुद्दा औचित्य का है, क्या ऐसा किया जाना चाहिए था। अब, जहाँ तक औचित्य का प्रश्न है, औचित्य की अवधारणा व्यक्ति-दर-व्यक्ति भिन्न होती है।

सुधार के तीन सुझाव

सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली को और पारदर्शी बनाने के लिए न्यायमूर्ति ओका ने तीन सुझाव दिए—

  • हाईकोर्ट की तरह फिक्स्ड रोस्टर होना चाहिए।
  • ऑटो लिस्टिंग सिस्टम लागू हो, ताकि मामले अपने आप सूचीबद्ध हो जाएं।
  • जिन मामलों की सुनवाई नहीं हो पाती, उन्हें नई तारीख तुरंत मिलनी चाहिए।

न्यायमूर्ति ओका ने बार-बार इस बात पर बल दिया कि न्यायपालिका की विश्वसनीयता सुविधानुसार नहीं, बल्कि अनुशासन, मर्यादा और पारदर्शिता पर टिकती है। उन्होंने साफ किया कि व्यक्तिगत आरोपों और विचारधारात्मक लेबलों से न्यायिक कामकाज को प्रभावित नहीं होना चाहिए।

यह साक्षात्कार (Part I) न्यायपालिका की मर्यादा, पारदर्शिता और स्वतंत्रता पर एक गंभीर विमर्श को सामने लाता है।