लंच के बाद सुनवाई शुरू, याचिकाकर्ताओं की ओर से दिग्गज वकीलों की दलीलें

  • डॉ. अभिषेक मनु सिंघवी: बिना नोटिस और दस्तावेज़ के हटाए गए लाखों नाम
  • गोपाल शंकरनारायणन की दलील: मतदाता सूची से नाम हटाना संवैधानिक अधिकार का हनन
  • जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धाराओं पर शीर्ष अदालत में कानूनी जिरह
  • प्रशांत भूषण का तर्क : 8 करोड़ मतदाताओं में भारी पैमाने पर मनमानी
  • जजों के सवाल : चुनाव आयोग की अवशिष्ट शक्तियों की सीमा कहाँ तक?

कल होगी आधे घंटे की अतिरिक्त सुनवाई, फिर चुनाव आयोग का जवाब

सुप्रीम कोर्ट में मतदाता सूची से 65 लाख नाम हटाने पर आज गरमागरम बहस हुई। डॉ. अभिषेक मनु सिंघवी, गोपाल शंकरनारायणन और प्रशांत भूषण ने चुनाव आयोग पर नियम तोड़ने और संवैधानिक अधिकारों के उल्लंघन का आरोप लगाया, जबकि जजों ने चुनाव आयोग की शक्तियों और प्रक्रिया की वैधता पर उठाए गंभीर सवाल...

नई दिल्ली, 13 अगस्त 2025. बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में एक अहम सुनवाई में मतदाता सूची से 65 लाख नाम हटाने के मुद्दे पर तीखी बहस हुई। याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ. अभिषेक मनु सिंघवी, गोपाल शंकरनारायणन और प्रशांत भूषण ने चुनाव आयोग पर नियमों और जन प्रतिनिधित्व अधिनियम के प्रावधानों की अनदेखी का आरोप लगाया। उनका साफ कहना था कि बिना नोटिस, दस्तावेज़ या वैधानिक प्रक्रिया के लाखों मतदाताओं को सूची से बाहर कर देना संविधान के तहत मिले मतदान के अधिकार का सीधा उल्लंघन है।

65 लाख मतदाताओं के नाम हटाने के मुद्दे पर डॉ. सिंघवी ने तर्क दिया कि चुनाव आयोग ने बिना किसी सूचना या दस्तावेज़ के इन लोगों को सूची से बाहर कर दिया। उन्होंने कहा कि 5 लाख मृत, 5 लाख विस्थापित और 5 लाख डुप्लिकेट हैं, और यह प्रक्रिया ROPA में या कहीं भी नहीं की जाती है। डॉ. सिंघवी ने तर्क दिया कि नाम हटाने के नियम जटिल हैं और चुनाव आयोग ने प्रक्रिया का पालन नहीं किया है, यहाँ तक कि ऐसे मामले भी हैं जहाँ 'मृत' लोग जीवित पाए गए हैं।

डॉ. सिंघवी ने कहा कि चुनाव आयोग के हटाने के अधिकार को कोई चुनौती नहीं दे रहा है, लेकिन उसे अपनी ही प्रक्रिया का पालन करना होगा। उन्होंने आयोग के 2004 के प्रेस नोट का हवाला दिया जहाँ अरुणाचल और महाराष्ट्र को छूट दी गई थी क्योंकि वहाँ चुनाव नज़दीक थे, जबकि बिहार में ऐसा नहीं होना चाहिए। उन्होंने स्थगन की मांग की।

गोपाल शंकर नारायण ने तर्क दिया कि चुनाव आयोग पश्चिम बंगाल में भी बिना परामर्श के प्रक्रिया शुरू कर रहा है। उन्होंने कहा कि मतदाता सूची में शामिल होने का अधिकार एक पवित्र अधिकार है और संविधान और कानून द्वारा निर्धारित अयोग्यता के अधीन है। उन्होंने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 2 (ई) और धारा 62 (मतदान का अधिकार) का हवाला दिया।

शंकर नारायण ने कहा कि गणना प्रपत्र आदि का संविधान में कोई आधार नहीं है और चुनाव आयोग को RPA में संशोधन करने की आवश्यकता है। धारा 14, 16 और 16(2) का हवाला देते हुए उन्होंने तर्क दिया कि 65 लाख लोगों को किसी भी आधार पर अयोग्य नहीं ठहराया गया है। उन्होंने कहा कि चुनाव आयोग ने सामूहिक रूप से मतदान को बाहर कर दिया है और यह एक मनगढ़ंत दस्तावेज़ है।

इंद्रजीत बरुआ बनाम असम राज्य एवं अन्य, 3 जून, 1983 (दिल्ली उच्च न्यायालय) के फैसले और अनूप बरनवाल मामले के फैसले का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि मतदाता सूची एक बार निर्धारित होने के बाद, हमेशा निर्धारित ही रहती है। उन्होंने कहा कि चुनाव आयोग ने तीन दस्तावेज़ों (आधार, ईपीआईसी, राशन कार्ड) पर विचार नहीं किया, और 65 लाख लोगों के नाम हटाने के कारण सार्वजनिक नहीं किए।

उन्होंने कहा कि ड्राफ्ट रोल 4 अगस्त के बाद खोज योग्य नहीं रहा।

प्रशांत भूषण ने अपनी बात रखते हुए कहा कि लगभग 8 करोड़ मतदाता हैं और दो जिलों में 10.6% और 12.6% मतदाता BLO द्वारा 'अनुशंसित नहीं हैं'। उन्होंने बताया कि कुछ विशेष बूथों में, अनुशंसित नहीं किए गए 90% से अधिक मतदाता हैं।

चुनाव आयोग की कार्रवाई को दुर्भावनापूर्ण बताते हुए उन्होंने कहा कि पहले अन्य राज्यों के लिए इस तरह की प्रक्रिया पर नाराजगी जताई थी, आधार, राशन, ईपीआईसी कार्ड को नागरिकता का प्रमाण नहीं माना, 65 लाख लोगों के नाम हटाने के कारण सार्वजनिक नहीं किए और ड्राफ्ट रोल को खोज योग्य नहीं रखा।

उन्होंने कहा कि चुनाव आयोग नागरिकता पर फैसला नहीं कर सकता और ड्राफ्ट रोल में 240 लोग एक ही घर में एक ही पते के साथ हैं। उन्होंने अंतरिम आदेश की मांग की कि चुनाव आयोग 65 लाख लोगों की सूची जारी करे और 7.24 करोड़ लोगों की सूची को खोज योग्य बनाए।

वरिष्ठ अधिवक्ता शादान फरासत ने कहा कि चुनाव आयोग को यह साबित करना होगा कि कोई व्यक्ति भारत का नागरिक नहीं है और धारा 21 (3) की शक्ति धारा 16 और 19 से प्रभावित होगी। उन्होंने कहा कि 65 लाख लोगों को अवैध रूप से हटाया गया है और उन्हें वापस लाना होगा।

एक अन्य वकील ने बताया कि बंगाल में तीन दिनों के भीतर बड़ी संख्या में मतदाताओं के नाम हटा दिए गए हैं।

पश्चिम बंगाल की तरफ से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता पी.सी. सेन ने कहा कि चुनाव आयोग के आदेश में दिया गया कारण प्रवासन है और उस स्थान के अभ्यस्त निवासियों को भी देखा जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि SIR के लिए कोई तर्क नहीं दिया जाता और BLO घर-घर जाकर लोगों से बात नहीं कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि बेघर लोगों के लिए निवास स्थान तय करना मुश्किल है।

शीर्ष अदालत ने कहा कि वह अगले दिन आधे घंटे तक याचिकाकर्ताओं की सुनवाई करेगा, उसके बाद चुनाव आयोग जवाब देगा।