#Mee_Too के समर्थन में ..! अभी रुकेगा नहीं आज़ाद औरत का मुखरित होना

भंवर मेघवंशी

मैं वैश्विक रूप से चल रहे मी टू अभियान का समर्थन करता हूँ।

हर दौर में कमजोर और हाशिये की जमातों का हर प्रकार से शोषण हुआ है, आज भी हो रहा है और आगे भी होता रहेगा, अगर उसे चुपचाप सहन किया गया तो ..इसलिए अगर वंचित तबके बोलते है ,तो मैं बेशर्त उनके समर्थन में हूँ।

भारत जैसे पुरुष प्रधानता वाले देश मे महिलाएं क्या क्या नहीं सहती हैं, अब अगर वे बोल रही हैं तो यह क्या हाय तौबा कि इतने साल क्यों चुप रही, पहले क्यों नहीं बोलीं, उसी वक़्त क्यों नहीं बोली ? आदि इत्यादि ...

यह कहना भी ज्यादती ही है कि सोशल मीडिया पर क्यों बोल रही है, पुलिस में क्यों नहीं जाती ? सबूत हैं तो मुकदमा दर्ज क्यों नहीं करवाती?

एक केंद्रीय मंत्री की प्रतिक्रिया तो और भी भयंकर ही रही, उन्होंने तो पूरी वकील मंडली ही अपने बचाव में उतार दी, हालांकि लोग सब समझ रहे हैं।

बेहद जरूरी और गंभीर अभियान को प्रहसन में तब्दील करने की कोशिश

कुछ लोग इसकी मजाक बना कर एक बेहद जरूरी और गंभीर अभियान को प्रहसन में तब्दील करने की कोशिश में लगे हुए हैं, उनको लगता है कि मी टू को एक चुटकला बना देने से इसकी गंभीरता खत्म हो जायेगी। यह बहुत ही बचकाना और पितृसत्तात्मक प्रयास है, ऐसा ज्यादातर पुरुष लोग ही कर रहे हैं, पर इससे पुरुष वर्ग बरी नहीं हो जाता।

#Mee_Too की कॉन्सपिरेसी थियरी

कुछ लोग जो कॉन्सपिरेसी थियरी में यकीन करते है,वे इसे एजेंडा घोषित करते हुए इसके पीछे के षड़यंत्र को उजागर कर रहे हैं, कुछ को यह रफाल डील को रफा-दफा करने का षड्यंत्र लगता है, तो कुछ को चुनावी मौसम में बुनियादी मुद्दों से लोगों को भटकाने की साज़िश, ये लोग यह मानने को ही राज़ी नहीं है कि दुनिया भर में चल रहा मी टू कम्पैन रफाल और चुनाव से पहले का अभियान है, यह साल भर से भी अधिक वक्त से जारी है, इसकी टाईमिंग और मीडिया पब्लिसिटी में साज़िश ढूंढने के बजाय इसके जरिये उठ रही आवाज़ों और मांगे जा रहे सवालों का जवाब देने की जरूरत है।

सर्वशक्तिमान पुरुष की सत्ता को हिला कर रख दिया #MeeToo ने

मी टू ने सर्वशक्तिमान पुरुष की सत्ता को हिला कर रख दिया है, उसकी सर्वग्राही कुत्सित नज़र और करतूतें अब सवालों के दायरे में है।

मुझे लगता है कि इस वक्त पुरुष चेतना बुरी तरह बौखलाई हुई है, वह स्वीकार नहीं कर पा रही है कि जिसे अबला मानकर शोषित करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार माना था, वह अब बोल रही है।

उसे तो चुपचाप सहना था, यह सहना छोड़कर कहना शुरू करके उसने अच्छा नहीं किया, इसलिए स्वतन्त्र स्त्री के इस मीटू नामक मुखर स्वर को पूरी निर्ममता से कुचलने के प्रयास जारी है, पर क्या ये स्वर मौन में तब्दील हो पाएंगे ?

अभी रुकेगा नहीं आज़ाद औरत का मुखरित होना

मुझे लगता है कि यह आज़ाद औरत का मुखरित होना अभी रुकेगा नहीं, यह समाज की कथित मर्यादाओं, नैतिकताओं, वर्जनाओं, बंधनों, उपेक्षाओं और शोषणों के परखच्चे उड़ा देगा, यह परिवर्तनकारी करतब है, यह जारी रहेगा।

बहुत से चेहरों से अभी नकाब उतरने हैं

अभी बहुत सारे आदर्शों को ढहना है, बहुत से चेहरों से नकाब उतरने हैं, अभी बहुत सारी महानताओं को निकृष्टताओं में बदल जाना है, यह सामाजिक बदलाव की सुनामी है, इस का सम्मान जरूरी है।

मेरा स्पष्ट मानना है कि हर दलित जिस तरह अनिवार्य रूप से अपनी ज़िंदगी मे भेदभाव, अश्पृश्यता और उत्पीड़न का दंश झेलता है, वैसे ही हर स्त्री को पुरुष सत्ता की कामुक नजरों, इशारों, अवांछित स्पर्शों और भी न जाने क्या-क्या अनचाही चीजों से गुजरना पड़ता है। देश, काल, परिस्थितियों के अनुसार इसकी संगीनता कम ज्यादा हो सकती है, पर घर से लेकर कार्यस्थलों तक उसे विभिन्न प्रकार के यौन उत्पीड़न से गुजरना पड़ता है।

हर पुरुष वह चाहे महानता का कितना ही बड़ा लबादा ओढ़े क्यों न हो, यहां तक कि स्त्रीवादी व अपनी महिला समर्थक छवि लिए ही क्यों नहीं घूमता फिरता हो, उसके भीतर एक संभावित यौन दुर्व्यवहारी पुरूष छिपा रहता है, वह मौके का फायदा उठाने में कभी नहीं चूकता है।

नारी विरोधी होना हमारा चयन नहीं हमारा जन्मजात संस्कार है

खासतौर पर भारत जैसे देश मे हम पुरुष बचपन से ही अमानवीय तरीके से पलते हैं, हमें मर्दानगी सिखाई जाती है। स्त्री का हर प्रकार से शोषण करके उसे अपने नियन्त्रण में रखने की हमें जन्मजात ट्रेनिंग मिली हुई है। नारी विरोधी होना हमारा चयन नहीं है, यह हमारा जन्मजात संस्कार है, इसलिए हम सब पुरुष अपने जीवन मे थोड़ा बहुत यह कुकृत्य करते ही हैं। मैं मी टू के इस दौर में यह स्वीकार करता हूँ कि हर पुरुष की तरह एक बलात्कारी पुरुष मुझमें भी कहीं भीतर बैठा हुआ है, इसलिए मैं भी मी टू के दायरे में हूँ। इस बलात्कारी पुरुषत्व से निकलना ही हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती है, इससे पार जाना ही हमें ह्यूमन बना सकता है, नहीं तो हम ताज़िन्दगी सिर्फ पुरुष ही रहते हैं।

मैं हमारे देश और पूरी दुनिया के स्त्री समुदाय द्वारा चलाये जा रहे "मी टू कम्पैन" का घनघोर समर्थन करता हूँ, मुझे हजारों बरसों से दबी हुई इन आवाज़ों के मुखर होने से बहुत आस बंधी है, वैसे भी मुक्तिकामी परिवर्तन इतने आसानी से नहीं आते, वे बेहद पीड़ादायक और शोरशराबे से लबरेज होते हैं।

( भंवर मेघवंशी, लेखक शून्यकाल के संपादक हैं)

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