अभिषेक श्रीवास्तव

ग़ाज़ीपुर में जब अंग्रेज़ों की ईस्‍ट इंडिया कंपनी ने अफ़ीम का पहला कारखाना खोला, उस वक्‍त कार्ल मार्क्‍स की उम्र लगभग दो साल थी। कालांतर में यही फैक्‍ट्री ऐतिहासिक अफ़ीम युद्ध का सबब बनी। चीनियों और अंग्रेज़ों के बीच लंबे चले अफ़ीम युद्ध के वक्‍त मार्क्‍स महर्षि हो चुके थे। उन्‍होंने ज्ञान दिया, "धर्म जनता का अफ़ीम है।" इसके बाद अफ़ीम को लेकर कोई जंग कभी नहीं हुई। धर्म को लेकर हुई। आज तक हो रही है।

आज मार्क्‍स जि़ंदा होते तो अपना 200वां जन्‍मदिन मना रहे होते और उम्र में अपने से दो साल बड़े ग़ाज़ीपुर के अफ़ीम कारखाने के बंद होने पर विस्मित होते। जिस अफ़ीम ने दुनिया में एक बड़ी जंग को पैदा किया, उसका कारखाना प्रदूषण के नाम पर बंद कर दिया गया है।

जिस मार्क्‍स ने अफ़ीम से धर्म की तुलना की, उसे मैकाले और मुसलमान के साथ बराबर खड़ा कर के खदेड़ने का सपना देखने वालों की देश में आज सरकार है। बोले तो इस देश को अब न अफ़ीम की ज़रूरत है और न उस फिलॉसफ़र की, जिसने अफीम का सर्वकालिक साहित्यिक प्रयोग कर के उसे राजनीतिशास्‍त्र में अमर बना दिया।

महज दो सौ साल में सब उलट गया है। अफ़ीम जनता का धर्म बन गया है। राष्‍ट्रऋषि उसकी अबाध सप्‍लाई कर रहा है। ग़ाज़ीपुर के कारखाने की छत पर अफ़ीम का पानी पीकर झूमते बंदर दिल्‍ली पहुंच गए हैं। मार्क्‍स की दूसरी मौत ग़ाज़ीपुर में हुई है। काल का एक चक्र पूरा हुआ।

मार्क्सवाद और आधुनिक हिंदी कविता के बहाने "हिंदी में मार्क्सवाद के शिक्षण और अनुसंधान की मुश्किलें"

Web Title: Monkeys reached Delhi after drinking opium water, Marx's second death occurred in Ghazipur