नेताजी नीतीश को पटकना क्यों चाहते हैं?
मुलायम सिंह यादव ने बिहार चुनाव में जनता परिवार की बजाय सैफई परिवार को तरजीह दी। जानिए तीसरे मोर्चे, मोदी मुलाकात और नीतीश विवाद की पूरी कहानी...

मुलायम सिंह यादव
जनता परिवार के हितों से ज्यादा तरजीह सैफई परिवार को दी — मुलायम सिंह यादव का बिहार चुनावी दांव
- बिहार में तीसरे मोर्चे की घोषणा — सपा के नेतृत्व में नया राजनीतिक समीकरण
- नीतीश की धर्मनिरपेक्षता पर मुलायम के तीखे सवाल
- जनता परिवार की भ्रूण हत्या — मुलायम की पलटी और विपक्षी एकता पर असर
- मोदी-मुलायम मुलाकात के बाद महागठबंधन से दूरी — क्या है असली वजह?
- रिहाई मंच के आरोप और सीबीआई कनेक्शन की राजनीतिक गूंज
- नीतीश कुमार बनाम मुलायम सिंह — पिछड़ों की राजनीति में बढ़ती प्रतिस्पर्धा
- अखिलेश यादव की चुनौतियाँ और सपा का घटता प्रभाव
जनता परिवार या सैफई परिवार, किसका भविष्य तय कर रहे हैं मुलायम?
मुलायम सिंह यादव ने बिहार चुनाव में जनता परिवार की बजाय सैफई परिवार को तरजीह दी। जानिए तीसरे मोर्चे, मोदी मुलाकात और नीतीश विवाद की पूरी कहानी...
जनता परिवार के हितों से ज्यादा तरजीह सैफई परिवार को दी
बिहार विधानसभा चुनाव के लिए समाजवादी पार्टी के नेतृत्व में तीसरा मोर्चा बन गया है। इस मोर्चे में सपा के अलावा शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी), पीए संगमा की पार्टी और बिहार के नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री देवेन्द्र प्रसाद यादव, जिन्होंने हाल ही में एनडीए के घटक दल जीतनराम मांझी की पार्टी हम छोड़ी है, की समाजवादी जनता दल शामिल है।
मुलायम सिंह यादव ने सिर्फ बिहार में चुनाव लड़ने का ही फैसला नहीं किया है, बल्कि नीतीश कुमार की धर्मनिरपेक्षता पर सवाल भी उठाए हैं। मुलायम का बयान मीडिया में तैर रहा है, जिसमें उन्होंने कहा है कि बिहार में 12 साल तक भाजपा के साथ रहकर सत्ता में रहने वाले अब सेक्युलर होने का दावा कर रहे हैं। जब सत्ता में थे तब वो क्या थे।
मुलामय का यह भी कहना है कि बिहार चुनाव के लिए बने ‘महागठबंधन’ से सपा के अलग होने से भगदड़ मच गई है। हमने सेक्युलर की लड़ाई लड़ी है, पर वो कहते हैं कि समाजवादी पार्टी सेक्युलर नहीं है। और सेक्युलर वो बन गए, जो साढ़े 12 साल तक भाजपा के साथ मिल कर सरकार चलाते हैं।
मजे की बात यह है कि मुलायम सिंह यादव उस जनता परिवार के अध्यक्ष थे, जिसकी उन्होंने ही भ्रूण हत्या कर दी।
हालांकि नेताजी ने ऐसी पलटी कोई पहली बार नहीं मारी है, इसके पहले भी जब-जब एक मजबूत विपक्ष की एकता की जरूरत हुई, नेताजी ने उस एकता को तोड़ने का काम किया है। फिर चाहे परमाणु करार पर मनमोहन सिंह की सरकार को जीवनदान देने का मामला रहा हो या एपीजे अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति बनाने का। इसीलिए माकपा महासचिव सीताराम येचुरी को कहना पड़ा कि मोदी सरकार के बारे में मुलायम का रुख सवाल खड़े करता है। पता नहीं चलता कि वह क्या करेंगे। पता नहीं उन पर कोई दबाव है या उनके सामने कुछ पेशकश की गई है।
एक समाचार पोर्टल की एक रिपोर्ट के मुताबिक 27 अगस्त को मुलायम सिंह यादव और उनके भाई रामगोपाल यादव ने नरेंद्र मोदी से एक घंटे तक बंद कमरे में बैठक की और उसके बाद ही बिहार चुनाव के लिए महागठबंधन की तरफ से 30 अगस्त को होने वाली स्वाभिमान रैली में खुद शामिल न होने सम्बंधित बयान दिया और रैली में शिवपाल यादव के शामिल होने के ठीक दूसरे दिन 31 अगस्त को फिर रामगोपाल यादव और अमित शाह के बीच एक घंटे तक मुलाकात के बाद, 2 सितम्बर को सपा ने महागठबंधन से अपने को अलग कर लिया।
रिहाई मंच ने मुलायम सिंह यादव के इस पैंतरे को सपा का भाजपा के साथ गुप्त तालमेल साबित करने वाला बताया है, और कहा है कि बिहार चुनाव में राजद, जदयू और कांग्रेस के महागठबंधन से अलग होने का निर्णय मुलायम सिंह ने मोदी और अमित शाह से गुप्त मुलाकात के बाद लिया है।
रिहाई मंच के अध्यक्ष मोहम्मद शुऐब का कहना है कि अमित शाह और रामगोपाल यादव के बीच 31 अगस्त को हुयी बैठक अमित शाह और बिहार चुनाव में उसके गठबंधन के दूसरे सहयोगी दलों लोजपा, हिंदुस्तान अवाम मोर्चा, आरएलसपी के नेताओं के साथ दोपहर के भोजन से ठीक पहले खत्म हुयी, वह यह भी साबित करता है कि भाजपा और उसके घटक दल सीटों के बंटवारे में सपा की अपने पक्ष में भूमिका निभा पाने की क्षमता को भी ध्यान में रख रहे हैं।
याद होगा जब शुरूआती दौर में सपा की महागठबंधन से नाराजगी की खबरें आई थीं, तो कहा गया था कि सपा को गठबंधन में उचित हिस्सेदारी नहीं दी गई। सपा बिहार में 50 सीटों पर लड़ना चाह रही थी। जबकि सपा की बिहार में कोई हैसियत है ही नहीं (उप्र के बाहर सपा की हैसियत कहीं है ही नहीं और उप्र में भी ये हैसियत अब बचेगी इसमें संदेह है) और 2010 के चुनाव में सपा ने जिन 146 सीटों पर चुनाव लड़ा था, उन सबमें उसकी जमानत जब्त हो गई थी। यहीं सवाल यह भी है कि सपा जिस तरह बिहार में गठबंधन में 50सीटें मांग रही थी, क्या वह राजद, जद(यू) और कांग्रेस को उप्र में 2017 में विधानसभा चुनाव में 50-50 सीटें दे देगी?
इसलिए मामला गठबंधन में हिस्सेदारी का नहीं है, बल्कि रिहाई मंच का आरोप सही लगता है। और देखने में भी आया कि यादव सिंह मामले की सीबीआई जांच के आदेश होते ही सपा का रुख एकदम भाजपा की तरफ हो गया, उसने भूमि अधिग्रहण पर मोदी सरकार को समर्थन पर हामी भरी, लोकसभा में व्यवधान पर कांग्रेस को घेरा और बाद में राज खुला कि यादव सिंह के साथ रामगोपाल यादव के सांसद बेटे के कारोबारी रिश्ते हैं। जाहिर है सपा के ताजा रुख में सीबीआई की भूमिका से भी इंकार नहीं किया जा सकता।
लेकिन नीतीश के खिलाफ जहर उगलते वक्त मुलायम का पैतरा सिर्फ अकेले सीबीआई के डर से नहीं है, बल्कि इसकी शुद्ध राजनैतिक वजह भी है। बिहार विधानसभा चुनाव नरेंद्र मोदी के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है। नरेंद्र मोदी हर हाल में बिहार अपनी झोली में चाहते हैं, फिर चाहे इसके लिए मुलायम से दोस्ती करनी पड़े या असदुद्दीन ओवैसी को खाद-रसद पहुंचानी पड़े। ऐसे में जब भाजपा बिहार विधानसभा चुनाव हारेगी तो उसका राष्ट्रव्यापी असर पड़ेगा। जाहिर तौर पर ऐसा होने पर मोदी विरोधी और संघ-भाजपा विरोधी ताकतों के जुटान के केंद्र में नीतीश होंगे, और 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा जिन नीतीश को पीएम पद का मैटीरियल बताती रही है, वह नीतीश 2019 में मोदी के खिलाफ 2019 में पीएम पद का मैटीरियल स्वतः बन जाएंगे। ऐसा इसलिए क्योंकि कुल मिलाकर नीतीश कुमार की छवि देश भर में साफ सुथरी है (भले ही वे साफ सुथरे हों या न हों) और दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा को करारी शिकस्त देने के बावजूद अरविंद केजरीवाल 2019 में पीएम पद का मैटीरियल नहीं बन पाएंगे, कारण साफ है केजरीवाल अपनी हरकतों के चलते रोज बेनकाब हो रहे हैं। ... और राहुल बाबा लगता है 2019 तक प्रशिक्षण ही लेते रहेंगे। ऐसे में बिहार चुनाव जीतने के बाद नीतीश के नेता बनने की संभावनाएं प्रबल हैं।
और नेताजी इस खतरे को भांप रहे हैं, क्योंकि नरेंद्र मोदी तो पिछड़ों के फर्जी नेता हैं। मोदी पिछड़े हैं भी नहीं, और न उनकी जाति का कहीं कोई प्रभाव है, लेकिन अगर बिहार में अपनी जीत के बाद नीतीश बाहर पैर पसारते हैं तो वह पिछड़ों के स्वाभाविक नेता भी बन सकते हैं और उनकी जाति का प्रभाव बिहार के बाहर यूपी, गुजरात, आंध्र में है। लेकिन मुलायम सिंह यादव न तो समस्त पिछड़ों के नेता रहे और न यूपी के बाहर उनका यादवों में उनका कोई असर है।
जाहिर सी बात है कि नेताजी नीतीश को उभरता हुआ कैसे बर्दाश्त कर लें? सो नेता जी अपना चरखा दावं चल रहे हैं, लेकिन नेताजी ने इतनी बार चरखा दावं चला है कि इस बार दावं चलते ही जनता की नजरों में पकड़ लिए गए।
इतना ही नहीं, मुलायम सिंह यादव को खतरा उत्तर प्रदेश में भी है। उत्तर प्रदेश में सपा सरकार इस समय अलोकप्रियता के शिखर पर है। मौजूदा हालात में यह संभावना कतई नहीं है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा सत्ता में वापिस लौटे। दूसरे मुलायम सिंह यादव के पुत्र अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बन जरूर गए हैं, लेकिन अभी तक वह अपना कोई राजनीतिक कौशल न तो दिखा पाए हैं, और न कभी राजनीतिक सवालों पर उनकी कोई दृष्टि स्पष्ट दिखाई दी है। उनके इर्द-गिर्द जिस काकस ने उन्हें घेरा हुआ है, वे शुद्ध रूप से अराजनैतिक लोग हैं, जिनमें कुछ अच्छे व्यवसायी हो सकते हैं तो कुछ बड़े प्रशासनिक अधिकारियों के बेटे हैं, लेकिन एक भी कायदे का राजनीतिक व्यक्ति अखिलेश यादव की टीम का हिस्सा नहीं बन सका है। ऐसे में जब तक कोई राजनीतिक दृष्टि न हो तो आने वाले समय में सिर्फ युवा होने के नाम पर तो सियासत में नहीं टिका जा सकता ? बिहार में चले गए इस पैतरे के पीछे मुलायम की कई चिंताओं में एक बड़ी चिंता अपने बेटे का राजनैतिक भविष्य भी है।
इसलिए मुलायम के पैतरे के पीछे सिर्फ सीबीआई को मत मानिए, इस पैतरे के पीचे शुद्ध राजनीतिक कारण भी हैं और जाहिर सी बात है ये कारण नेता जी की नज़र में वाजिब हैं, और इसीलिए आज जब मुलायम सिंह जनता परिवार को एकजुट कर मोदी विरोधी कैंप की धुरी बन सकते थे, तो उन्होंने जनता परिवार के हितों से ज्यादा तरजीह सैफई परिवार को दी। आप इसे गलत मानते हैं, तो मानते रहें।
अमलेन्दु उपाध्याय


